"माच": अवतरणों में अंतर

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इन सभी प्रकार के खेलों में जीवन की विभिन्न पहलुओं की अभिव्यक्ति के साथ ही कहीं मानव मन की सुकोमल भावनाओं के रागात्मक सन्दर्भों को व्यक्त किया गया है,तो कहीं साहसी और वीर चरित्रों को, कहीं आध्यात्मिकता की अभिव्यंजना है,तो कहीं सामयिक समस्याओं से टकराने की कोशिश। विविधायामी जीवन सन्दर्भों की अभिव्यक्ति के साथ ही उच्चतम मूल्यों की सिद्धि माच की केन्द्रीय प्रवृत्ति रही है, जो कहीं पौराणिक तो कहीं ऐतिहासिक, कहीं लोक-प्रसिद्ध तो कहीं काल्पनिक चरित्रों के माध्यम से मूर्त होती है।
 
भारत की समृद्ध नाट्य परम्परा की जीवंतता और निरंतरता को आधार देने में सर्वाधिक महत्वपूर्ण योगदान लोक-नाट्यों का ही रहा है। लोकमानस की अभिव्यंजना के लिए उपलब्ध विविध माध्यमों में से लोक-नाट्य ही अपनी तीव्र रसवत्ता और सहज सम्प्रेषणीयता के भाषागत अन्तर के बावजूद एक अन्तः सूत्र में जुड़े दिखाई देते है। लोकमानस की स्वाभाविक अभिव्यक्ति इन सारे लोक-नाट्य रूपों को एकसूत्र में जोड़ती दिखाई देती है। यह स्वाभाविक उनकी जटिल बौद्धिकता से विहीन भावात्मकता से उपजती है, जो कथानक, संवाद, गीत-संगीत, नृत्य, प्रदर्शन-शैली, रंग-शिल्प, भाषा आदि सभी स्तरों पर स्पष्टतः दृष्टिगोचर होती है। इस दृष्टि से मालवा क्षेत्रा का लोक-नाट्य रूप माच भारत के अन्य लोक नाट्यों रूपों से अलग नहीं है। उसमें भी वहीं लोकरंजता के अनुकूल संगीत, नृत्यमूलक अभिनय एवं प्रदर्शन के तत्त्व, धार्मिकता के साथ ही सामाजिक, राजनैतिक, लोककथामूलक और प्रेमाख्यानपरक कथानकों की बहुलता तथा शृंगार, वीर, करुण और हास्य रसमूलक अतिरंजित भावप्रवणता और तल्लीनता मौजूद है, जो भारत के अन्य लोकनाट्य रूपों जैसे नौटंकी, ख्याल,भवई,तमाशा, करियाला आदि में मिलते हैं। वस्तुतः इन सभी की सौन्दर्य दृष्टि संस्कृत नाटकों की भांति रसमूलक ही है। इसी तरह इन लोकनाट्य रूपों में वैयक्तिक संघर्ष के स्थान पर व्यक्ति एवं समूह के अन्तः सम्बन्धों की पहचान तथा जीवन की अनेक स्थितियों से गुजरकर एक तरह के संतुलन की दशा  में दर्शकों को ले जाने की प्रवृत्ति मौजूद है, जिसमें कहीं लोकमंगल की सिद्धि होती है तो कहीं कारुणिक अन्त के बावजूद लोकादर्श की स्थापना। माच के प्रवर्तक गुरु गोपालजी (1773-1842 ई.) से लेकर आज तक सृजनरत माचकारों की एक लम्बी फेहरिस्त है जिन्होंने माच के लगभग डेढ़ सौ खेलों का प्रणयन किया है। बीसवीं शती के शुरूआती दशकों में माच ही मालवा का प्रतिनिधि रंगमंच था जिसके प्रदर्शनों में रात-रात भर सैकड़ों दर्शकों की भीड़ जुटी रहती थी। यद्यपि पिछली शताब्दी के ढलते-ढलते माच की लोकप्रियता एवं प्रदर्शनों में कुछ कमी आई है फिर भी इसके संरक्षण  विस्तार और नवाचारी प्रयोगों द्वारा माच गुरुओं ने इसे आज जीवंत बनाए रखा है।<ref>1. प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा: मालवा का लोक नाट्य माच और अन्य विधाएँ, अंकुर मंच, उज्जैन , प्रथम संस्करण, 2008 ई.</ref>
 
डा. शैलेन्द्रकुमार शर्मा
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