"माच": अवतरणों में अंतर

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माच मालवा का लोक नाट्य रूप है। लोक मानस के प्रभावी मंच माच को उज्जैन में जन्म मिला है। माच शब्द का सम्बन्ध संस्कृत मूल मंच से है। इस मंच शब्द के मालवी में अनेक क्षेत्रों में प्रचलित परिवर्तित रूप मिलते हैं। उदाहणार्थ-माचा, मचली, माचली, माच, मचैली, मचान जैसे कई शब्दों का आशय मंच के समानार्थी भाव बोध को ही व्यक्त करता है। माच गुरु सिद्धेश्वर सेन माच की व्युत्पत्ति के पीछे सम्भावना व्यक्त करते हैं कि माच के प्रवर्तक गुरु गोपालजी ने सम्भवतः कृषि की रक्षा के लिए पेड़ पर बने मचान को देखा होगा, जिस पर चढ़कर स्त्री या पुरुष आवाज आदि के माध्यम से नुकसान पहुँचाने वाले पशु-पक्षियों से खेत की रक्षा करते हैं। गुरु गोपालजी ने मचान शब्द को ध्यान में रखा होगा और फिर नाटक-प्रदर्शन के ऊँचे स्थान (मंच) से उसी मचान की आकृति एवं रूप साम्य के आधार पर अपने मंच का नाम माच दे दिया होगा। कालान्तर में यही नाम प्रचलित हो गया। वस्तुतः माच के मंच और मचान में पर्याप्त साम्य रहा है। पुराने दौर में माच का मंच इतना अधिक ऊँचा बनाया जाता था कि उसके नीचे से बैलगाड़ी भी गुजर जाती थी। इन दिनों मंच की ऊँचाई प्रायः सामान्य ही रहती है।
माच मालवा का लोक नाट्य रूप है। लोक मानस के प्रभावी मंच माच को उज्जैन में जन्म मिला है।भारत के विभिन्न अंचलों में बोली जाने वाली लोक-भाषाएँ राष्ट्रभाषा की समृद्धि का प्रमाण हैं। लोक-भाषाएँ और उनका साहित्य वस्तुतः भारतीय संस्कृति एवं राष्ट्रवाणी के लिए अक्षय स्रोत हैं। हम इनका जितना मंथन करें, उतने ही अमूल्य रत्न हमें मिलते रहेंगे। कथित आधुनिकता के दौर में हम अपनी बोली-बानी, साहित्य-संस्कृति से विमुख होते जा रहे हैं। ऐसे समय में जितना विस्थापन लोगों और समुदायों का हो रहा है, उससे कम लोक-भाषा और लोक-साहित्य का नहीं हो रहा है। घर-आँगन की बोलियाँ अपने ही परिवेश में पराई होने का दर्द झेल रही हैं। इस दिशा में लोकभाषा, साहित्य और संस्कृतिप्रेमियों के समग्र प्रयासों की दरकार है। भारत के हृदय अंचल मालवा ने तो एक तरह से समूची भारतीय संस्कृति को गागर में सागर की तरह समाया हुआ है। मालवा की परम्पराएँ समूचे भारत से प्रभावित हुई हैं और पूरे भारत को मालवा की संस्कृति ने किसी न किसी रूप में प्रभावित किया है। मालवा भारत का हृदय अंचल है तो इसकी सांस्कृतिक राजधानी है उज्जैन। उज्जैन कला के अधिष्ठाता शिव और सर्व-कला-रत्न श्रीकृष्ण की नगरी है। इसी नगरी को लोक नाट्य माच के जन्म का श्रेय जाता है। आज का मालवा सम्पूर्ण पश्चिमी मध्यप्रदेश और उसके साथ सीमावर्ती पूर्वी राजस्थान के कुछ जिलों तक विस्तार लिए हुए है। इसकी सीमा रेखा के संबंध में एक पारम्परिक दोहा प्रचलित है जिसके अनुसार चम्बल, बेतवा और नर्मदा नदियों से घिरे भू-भाग को मालवा की सीमा मानना चाहिए- इत चम्बल उत बेतवा मालव सीम सुजान। दक्षिण दिसि है नर्मदा यह पूरी पहचान।।
 
माच मालवा का लोक नाट्य रूप है। लोक मानस के प्रभावी मंच माच को उज्जैन में जन्म मिला है।भारतभारत के विभिन्न अंचलों में बोली जाने वाली लोक-भाषाएँ राष्ट्रभाषा की समृद्धि का प्रमाण हैं। लोक-भाषाएँ और उनका साहित्य वस्तुतः भारतीय संस्कृति एवं राष्ट्रवाणी के लिए अक्षय स्रोत हैं। हम इनका जितना मंथन करें, उतने ही अमूल्य रत्न हमें मिलते रहेंगे। कथित आधुनिकता के दौर में हम अपनी बोली-बानी, साहित्य-संस्कृति से विमुख होते जा रहे हैं। ऐसे समय में जितना विस्थापन लोगों और समुदायों का हो रहा है, उससे कम लोक-भाषा और लोक-साहित्य का नहीं हो रहा है। घर-आँगन की बोलियाँ अपने ही परिवेश में पराई होने का दर्द झेल रही हैं। इस दिशा में लोकभाषा, साहित्य और संस्कृतिप्रेमियों के समग्र प्रयासों की दरकार है। भारत के हृदय अंचल मालवा ने तो एक तरह से समूची भारतीय संस्कृति को गागर में सागर की तरह समाया हुआ है। मालवा की परम्पराएँ समूचे भारत से प्रभावित हुई हैं और पूरे भारत को मालवा की संस्कृति ने किसी न किसी रूप में प्रभावित किया है। मालवा भारत का हृदय अंचल है तो इसकी सांस्कृतिक राजधानी है उज्जैन। उज्जैन कला के अधिष्ठाता शिव और सर्व-कला-रत्न श्रीकृष्ण की नगरी है। इसी नगरी को लोक नाट्य माच के जन्म का श्रेय जाता है। आज का मालवा सम्पूर्ण पश्चिमी मध्यप्रदेश और उसके साथ सीमावर्ती पूर्वी राजस्थान के कुछ जिलों तक विस्तार लिए हुए है। इसकी सीमा रेखा के संबंध में एक पारम्परिक दोहा प्रचलित है जिसके अनुसार चम्बल, बेतवा और नर्मदा नदियों से घिरे भू-भाग को मालवा की सीमा मानना चाहिए- इत चम्बल उत बेतवा मालव सीम सुजान। दक्षिण दिसि है नर्मदा यह पूरी पहचान।।
मालवा का लोक-साहित्य की दृष्टि से अत्यंत समृद्ध है। यहाँ का लोकमानस शताब्दी-दर-शताब्दी कथा-वार्ता, गाथा, गीत, नाट्य, पहेली, लोकोक्ति आदि के माध्यम से अभिव्यक्ति पाता आ रहा है। जीवन का ऐसा कोई प्रसंग नहीं है, जब मालवजन अपने हर्ष-उल्लास, सुख-दुःख को दर्ज करने के लिये लोक-साहित्य का सहारा न लेता हो। भारतीय लोक-नाट्य परम्परा में मालवा के माच का विशिष्ट स्थान है। मालवा क्षेत्र का प्रतिनिधि लोक नाट्य माच है, जो अपनी सुदीर्घ परम्परा के साथ आज भी लोक मानस का प्रभावी मंच बना हुआ हैं। मालवा के लोकगीतों, लोक-कथाओं, लोक- नृत्य रूपों और लोक-संगीत के समावेश से समृद्ध माच सम्पूर्ण नाट्य (टोटल थियेटर) की सम्भावनाओं को मूर्त करता है। लोकमानस की सहज अभिव्यंजना और लोक रंग व्यवहारों की सरल रेखीय अनायासता से उपजा यह लोकनाट्य लोकरंजन और लोक मंगल के प्रभावी माध्यम के रूप में स्थापित है। माच मालवा-राजस्थान के व्यापक जनसमुदाय को आन्दोलित करता आ रहा है। माच शब्द संस्कृत के मंच शब्द का ही परिवर्तित रूप है। माच के नाटकों को खेल कहा जाता है, जो मुक्ताकाशी रंगमंच पर प्रस्तुत किए जाते हैं । संगीत, नृत्य, पाठ, अभिनय और बोलों  की अन्तः क्रिया माच को एक सम्पूर्ण नाट्य या यूँ कहें टोटल थियेटर का रूप दे देती है। माच के खेलों में सामाजिक सद्भाव, परस्पर प्रेम और सहज लोक जीवन के दर्शन होते हैं। माच के दर्शकों में भी एक खास ढंग की रसिकता देखी जा सकती है। इसके दर्शक महज दर्शक नहीं होते, मंच व्यापार में उनकी आपसदारी भी दिखाई देती है। माच के क्षेत्र में उज्जैन में अनेक घराने बने, जिन्होंने अपने-अपने ढंग से माच को नई ऊर्जा, नई गति दी। गुरु गोपाल जी, गुरु बालमुकुन्दजी, भागीरथ पटेल, गुरु रामकिशन जी, गुरु राधाकिशनजी, उस्ताद कालूराम जी, पं. ओमप्रकाश शर्मा, सिद्धेश्वर सेन, फकीरचंद जी, चुन्नीलाल जी, अनिल पांचाल आदि का माच के खेलों के सृजन और मंचन की परम्परा को आगे बढ़ाने में अविस्मरणीय योगदान रहा है। मालवा का माच पुराण, इतिहास और लोकाख्यानों में निहित उच्च आदर्श, प्रणय और लोक मंगल की भावभूमि को समाहित करता आ रहा है। समाज में व्याप्त विसंगतियों और विद्रूपताओं के विरुद्ध माच के खेलों ने लोक के अंदाज में तीखा प्रतिकार किया है। आधुनिक रंगमंच पर भी माच शैली के साथ प्रयोग सामने आ रहे हैं। यह लोकविधा अपनी प्रासंगिकता बरकरार रखे हुए है।
 
इत चम्बल उत बेतवा मालव सीम सुजान।
 
दक्षिण दिसि है नर्मदा यह पूरी पहचान।।
 
मालवा का लोक-साहित्य की दृष्टि से अत्यंत समृद्ध है। यहाँ का लोकमानस शताब्दी-दर-शताब्दी कथा-वार्ता, गाथा, गीत, नाट्य, पहेली, लोकोक्ति आदि के माध्यम से अभिव्यक्ति पाता आ रहा है। जीवन का ऐसा कोई प्रसंग नहीं है, जब मालवजन अपने हर्ष-उल्लास, सुख-दुःख को दर्ज करने के लिये लोक-साहित्य का सहारा न लेता हो। भारतीय लोक-नाट्य परम्परा में मालवा के माच का विशिष्ट स्थान है। मालवा क्षेत्र का प्रतिनिधि लोक नाट्य माच है, जो अपनी सुदीर्घ परम्परा के साथ आज भी लोक मानस का प्रभावी मंच बना हुआ हैं। मालवा के लोकगीतों, लोक-कथाओं, लोक- नृत्य रूपों और लोक-संगीत के समावेश से समृद्ध माच सम्पूर्ण नाट्य (टोटल थियेटर) की सम्भावनाओं को मूर्त करता है। लोकमानस की सहज अभिव्यंजना और लोक रंग व्यवहारों की सरल रेखीय अनायासता से उपजा यह लोकनाट्य लोकरंजन और लोक मंगल के प्रभावी माध्यम के रूप में स्थापित है। माच मालवा-राजस्थान के व्यापक जनसमुदाय को आन्दोलित करता आ रहा है। माच शब्द संस्कृत के मंच शब्द का ही परिवर्तित रूप है। माच के नाटकों को खेल कहा जाता है, जो मुक्ताकाशी रंगमंच पर प्रस्तुत किए जाते हैं ।हैं। संगीत, नृत्य, पाठ, अभिनय और बोलों  की अन्तः क्रिया माच को एक सम्पूर्ण नाट्य या यूँ कहें टोटल थियेटर का रूप दे देती है। माच के खेलों में सामाजिक सद्भाव, परस्पर प्रेम और सहज लोक जीवन के दर्शन होते हैं। माच के दर्शकों में भी एक खास ढंग की रसिकता देखी जा सकती है। इसके दर्शक महज दर्शक नहीं होते, मंच व्यापार में उनकी आपसदारी भी दिखाई देती है। माच के क्षेत्र में उज्जैन में अनेक घराने बने, जिन्होंने अपने-अपने ढंग से माच को नई ऊर्जा, नई गति दी। गुरु गोपाल जी, गुरु बालमुकुन्दजी, भागीरथ पटेल, गुरु रामकिशन जी, गुरु राधाकिशनजी, उस्ताद कालूराम जी, पं. ओमप्रकाश शर्मा, सिद्धेश्वर सेन, फकीरचंद जी, चुन्नीलाल जी, अनिल पांचाल आदि का माच के खेलों के सृजन और मंचन की परम्परा को आगे बढ़ाने में अविस्मरणीय योगदान रहा है। मालवा का माच पुराण, इतिहास और लोकाख्यानों में निहित उच्च आदर्श, प्रणय और लोक मंगल की भावभूमि को समाहित करता आ रहा है। समाज में व्याप्त विसंगतियों और विद्रूपताओं के विरुद्ध माच के खेलों ने लोक के अंदाज में तीखा प्रतिकार किया है। आधुनिक रंगमंच पर भी माच शैली के साथ प्रयोग सामने आ रहे हैं। यह लोकविधा अपनी प्रासंगिकता बरकरार रखे हुए है।
 
माच की उत्सभूमि उज्जैन मानी जाती है। लगभग दो सौ से अधिक वर्षों से माच मालवा का प्रमुख लोकनाट्य बना हुआ है। इसके उद्भव और विकास में मालवा की अनेक लोकानुरंजक कला प्रवृत्तियों का योगदान रहा है। मालवा क्षेत्र में प्रचलित गरबी गीत, ढारा-ढारी के खेल, तुर्रा कलंगी, नकल-स्वांग की प्रवृत्ति, गम्मत, हाजरात विद्या आदि को माच के उद्भव एवं विकास में महत्त्वपूर्ण मानने वालों में डा. शिवकुमार मधुर का प्रमुख नाम है। मालवा के इन लोक कला रूपों में अन्तर्निहित तत्त्वों जैसे-नृत्य, गान एवं अभिनय, आध्यात्मिकता, नकल-स्वांग प्रवृत्ति, निर्गुणी भक्ति के तत्त्व, पुरुषों द्वारा स्त्री पात्रों की भूमिका सहित अनेक रंग व्यवहार आदि माच में आज भी मौजूद हैं। डा. मधुर के अनुसार- ढारा-ढारी के खेलों से अभिनय, गर्बा-उत्सव से संगीत, तुर्राकलंगी से काव्य-गायन और स्वांग-नकल प्रदर्शनों से अभिनय, हास-परिहास, चुटीले व्यंग्य एवं जनमनोरंजन के तत्त्व जुटाकर माचकारों ने इस नई रंग शैली को पनपाया।
 
राजस्थान में प्रचलित ख्याल का प्रभाव भी माच के खेलों में दिखाई देता है। इसीलिए प्रसिद्ध इतिहासज्ञ डा. रघुवीरसिंह ने ख्यालों को माचों का जनक कहा है। माच की शैली के आरम्भकर्ता गुरु गोपालजी को माना जाता है, जो मूलतः राजस्थान के रहने वाले थे और बाद में मालवा में बस गए थे। ऐसा माना जाता है कि गुरु गोपाल जी ने मालवा क्षेत्र में राजस्थान के ख्याल जैसा कोई नाट्य रूप न पाकर स्थानीय संगीत और लोककला रूपों के समावेश से माच की शुरूआत की, जो परम्परा से क्रमशः परिष्कृत, संरक्षित और संवर्धित होता गया।
 
माच शब्द का सम्बन्ध संस्कृत मूल मंच से है। इस मंच शब्द के मालवी में अनेक क्षेत्रों में प्रचलित परिवर्तित रूप मिलते हैं। उदाहणार्थ-माचा, मचली, माचली, माच, मचैली, मचान जैसे कई शब्दों का आशय मंच के समानार्थी भाव बोध को ही व्यक्त करता है। माच गुरु सिद्धेश्वर सेन माच की व्युत्पत्ति के पीछे सम्भावना व्यक्त करते हैं कि माच के प्रवर्तक गुरु गोपालजी ने सम्भवतः कृषि की रक्षा के लिए पेड़ पर बने मचान को देखा होगा, जिस पर चढ़कर स्त्री या पुरुष आवाज आदि के माध्यम से नुकसान पहुँचाने वाले पशु-पक्षियों से खेत की रक्षा करते हैं। गुरु गोपालजी ने मचान शब्द को ध्यान में रखा होगा और फिर नाटक-प्रदर्शन के ऊँचे स्थान (मंच) से उसी मचान की आकृति एवं रूप साम्य के आधार पर अपने मंच का नाम माच दे दिया होगा। कालान्तर में यही नाम प्रचलित हो गया। वस्तुतः माच के मंच और मचान में पर्याप्त साम्य रहा है। पुराने दौर में माच का मंच इतना अधिक ऊँचा बनाया जाता था कि उसके नीचे से बैलगाड़ी भी गुजर जाती थी। इन दिनों मंच की ऊँचाई प्रायः सामान्य ही रहती है।
 
माच के आदि प्रवर्तक गुरु गोपाल जी के अलावा माच परम्परा को गुरु बालमुकुन्दजी, गुरु रामकिशनजी, गुरु भैरवलालजी, गुरु राधाकिशनजी, गुरु कालूरामजी, गुरु फकीरचन्दजी, गुरु शिवजीराम, गुरु चुन्नीलाल, श्री सिद्धेश्वर सेन, श्यामदास चक्रधारी आदि ने आगे बढ़ाया और अनेक खेलों का लेखन एवं प्रदर्शन किया। माच के विभिन्न गुरुओं के बीच नये-नये माच के निर्माण एवं प्रदर्शन की स्वस्थ प्रतिस्पर्धा रहती थी। विभिन्न माच गुरुओं द्वारा मालवी में रचे गए लगभग सवा सौ अधिक माच के खेल मिलते हैं, जिन्हें डा. मधुर ने सुविधा की दृष्टि से चार भागों में बाँटा है - धार्मिक और पौराणिक कथानक,  शौर्य कथाएँ, प्रेमाख्यान और सामाजिक कथानक।
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