"पंज प्यारे": अवतरणों में अंतर

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'''पंज प्यारे''' अथवा '''पांच प्यारे''' ({{lang-pa|ਪੰਜ ਪਿਆਰੇ}}, ''{{IAST|Pañj Pi'ārē}}'', शाब्दिक अर्थ '''पाँच प्यारे लोग'''), सिख गुरु [[गुरु गोबिन्द सिंह]] द्वारा १३ अप्रैल १६९९ को [[आनन्दपुर साहिब]] के ऐतिहासिक दिवा में पाँच लोगों भाई साहिब सिंह, भाई धरम सिंह, भाई हिम्मत सिंह, भाई मोहकम सिंह और भाई दया सिंह को दिया गया नाम है। उन्होंने [[ख़ालसा पंथ]] के केन्द्र की स्थापना की।
== पंज प्यारे चुनाव की कथा ==
ऐसा माना जाता है कि जब मुगल शासनकाल के दौरान जब बादशाह [[औरंगजेब]] का आतंक बढ़ता ही जा रहा था। उस समय [[सिख धर्म]] के [[गुरु गोबिन्द सिंह]] ने [[बैसाखी]] पर्व पर आनन्दपुर साहिब के विशाल मैदान में [[सिख समुदाय]] को आमंत्रित किया। जहां गुरुजी के लिए एक तख्त बिछाया गया और तख्त के पीछे एक तम्बू लगाया गया। उस समय गुरु गोबिन्द सिंह के दायें हाथ में नंगी [[तलवार]] चमक रही थी। गोबिन्द सिंह नंगी तलवार लिए मंच पर पहुंचे और उन्होंने ऐलान किया- मुझे एक आदमी का सिर चाहिए। क्या आप में से कोई अपना सिर दे सकता है? यह सुनते ही वहां मौजूद सभी सिख आश्चर्यचकित रह गए और सन्नाटा छा गया। उसी समय दयासिंह (अथवा दयाराम) नामक एक व्यक्ति आगे आया जो लाहौर निवासी था और बोला- आप मेरा सिर ले सकते हैं। गुरुदेव उसे पास ही बनाए गए तम्बू में ले गए। कुछ देर बाद तम्बू से खून की धारा निकलती दिखाई दी। तंबू से निकलते खून को देखकर पंडाoलपंडाल में सन्नाटा छा गया। गुरु गोबिन्द सिंह तंबू से बाहर आए, नंगी तलवार से ताजा खून टपक रहा था। उन्होंने फिर ऐलान किया- मुझे एक और सिर चाहिए। मेरी तलवार अभी प्यासी है। इस बार धर्मदास (उर्फ़ धरम सिंह) आगे आये जो सहारनपुर के जटवाडा गांव के निवासी थे। गुरुदेव उन्हें भी तम्बू में ले गए और पहले की तरह इस बार भी थोड़ी देर में खून की धारा बाहर निकलने लगी। बाहर आकर गोबिन्द सिंह ने अपनी तलवार की प्यास बुझाने के लिए एक और व्यक्ति के सिर की मांग की। इस बार जगन्नाथ पुरी के हिम्मत राय (उर्फ़ हिम्मत सिंह) खड़े हुए। गुरुजी उन्हें भी तम्बू में ले गए और फिर से तम्बू से खून धारा बाहर आने लगी। गुरुदेव पुनः बाहर आए और एक और सिर की मांग की तब द्वारका के युवक मोहकम चन्द (उर्फ़ मोहकम सिंह) आगे आए। इसी तरह पांचवी बार फिर गुरुदेव द्वारा सिर मांगने पर बीदर निवासी साहिब चन्द सिर देने के लिए आगे आये। मैदान में इतने सिक्खों के होने के बाद भी वहां सन्नाटा पसर गया, सभी एक-दूसरे का मुंह देख रहे थे। किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा था। तभी तम्बू से गुरु गोबिन्द सिंह केसरिया बाना पहने पांच सिक्ख नौजवानों के साथ बाहर आए। पांचों नौजवान वहीं थे जिनके सिर काटने के लिए गोबिन्द सिंह तम्बू में ले गए थे। गुरुदेव और पांचों नौजवान मंच पर आए, गुरुदेव तख्त पर बैठ गए। पांचों नौजवानों ने कहां गुरुदेव हमारे सिर काटने के लिए हमें तम्बू में नहीं ले गए थे बल्कि वह हमारी परीक्षा थी। तब गुरुदेव ने वहां उपस्थित सिक्खों से कहा आज से ये पांचों मेरे पंज प्यारे हैं। इस तरह सिक्ख धर्म को पंजप्यारे मिल गए। जोन्होंने बाद में अपनी निष्ठा और समर्पण भाव से खालसा पंथ का जन्म दिया।<ref>{{cite web|title=ऐसे मिले सिक्ख धर्म को पंज प्यारे...|url=http://religion.bhaskar.com/article/panjpyare-1571013.html |publisher=दैनिक भास्कर |date=२१ नवम्बर २०१० |work=धर्म डेस्क |location= उज्जैन|accessdate=२१ अक्टूबर २०१३}}</ref>
 
== सन्दर्भ ==
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