"शक्ति (देवी)": अवतरणों में अंतर

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शब्द के अंतर्निहित अर्थ को व्यक्त करने का व्यापार शब्दशक्ति नाम से अभिहित है। ये व्यापार तीन कहे गए हैं - अभिधा, लक्षणा और व्यंजना। आचार्यों ने इसे शक्ति और वृत्ति नाम से कहा है। घट के निर्माण में मिट्टी, चक्र, दंड, कुलाल आदि कारण है और चक्र का घूमना शक्ति या व्यापार है और अभिधा, लक्षणा आदि व्यापार शक्तियाँ हैं। [[मम्मट]] ने व्यापार शब्द का प्रयोग किया है तो [[विश्वनाथ]] ने शक्ति का। 'शक्ति' में ईश्वरेच्छा के रूप में शब्द के निश्चित अर्थ के संकेत को माना गया है। यह प्राचीन तर्कशास्त्रियों का मत है। बाद में 'इच्छामात्र' को 'शक्ति' माना गया, अर्थात् मनुष्य की इच्छा से भी शब्दों के अर्थसंकेत की परंपरा को माना। 'तर्कदीपिका' में शक्ति को शब्द अर्थ के उस संबंध के रूप में स्वीकार किया गया है जो मानस में अर्थ को व्यक्त करता है।
 
पूर्व काल में राजा सुरथ ने ''महर्षि मेधा'' से ''आदि शक्ति महामाया (आद्या शक्ति)'' के सम्बन्ध में ज्ञात कर, शक्ति-साधन की थी तथा अपने साम्राज्य को पुनः प्राप्त किया था।
 
राजा सुरथ महान बल तथा पराक्रम से सम्पन्न थे! वे धर्मानुसार प्रजा का भली भाँति पालन करते थे तथा इंद्र के समान तेजस्वी थे। एक बार अन्य विरोधी राजाओं ने मिल-कर उनके राज्य पर आक्रमण कर दिया, जिसमें उनकी पराजय हुई; तदनंतर वे सर्व-त्याग कर गहन वन में चले गए। घूमते-घूमते राजा सुरथ! मेधा ऋषि के आश्रम में पहुँचें, वहाँ पर उन्होंने एक अद्भुत दृश्य देखा! ''"सिंह-बाघ इत्यादि हिंसक जीव अन्य अल्प शक्ति संपन्न पशुओं जैसे गाय, हिरण इत्यादि को पीड़ा नहीं देते थे।"'' राजा सुरथ! वही मेधा मुनि की आश्रम में रहने लगे, परन्तु उनका मन अपने पराजित राज्य की ओर सदा ही लगा रहता था। एक दिन आश्रम में एक वैश्य आया, वह भी बहुत दुखी था। वैश्य ने राजा सुरथ से कहा! ''"मैं धनी कुल में उत्पन्न हुआ वैश्य हूँ, परन्तु मेरे पुत्र तथा स्त्री ने धन के लोभ से मुझे घर से निकल दिया, परिणामस्वरूप में बहुत दुखी हूँ, साथ ही में अन्य सुहृदों का भी कुशल समाचार नहीं जान पता हूँ।"''
 
html राजा सुरथ ने वैश्य से कहा! ''"जिन दुराचारियों ने धन के लोभ से तुम्हें घर से निकल दिया, तुम उनके प्रति मोह क्यों कर रहे हो?"'' वैश्य ने उत्तर दिया! ''"राजन! आप ठीक कहाँ रहे हैं, परन्तु यह मुझे ज्ञात नहीं हैं की मैं क्यों मोह पाश में बंधता जा रहा हूँ।"'' मोह पाश में पड़े हुए दोनों मेधा मुनि के पास गए तथा उनसे इसका कारण पूछा?
 
मेधा मुनि ने उत्तर दिया! ''"राजन! सनातन शक्ति महामाया आदि शक्ति ही सबके मन को खींच कर मोह में डाल देती हैं। उन्हीं की माया से मोहित होने के परिणामस्वरूप, आप दोनों की मानसिक स्थिति ऐसी हैं, ब्रह्मा आदि समस्त देवता भी उनके परम-तत्व को नहीं जान पाते हैं तो मनुष्यों की बात ही क्या हैं? वे परमेश्वरी आदि शक्तिही सत्व, रज तथा तम गुणों का आश्रय लेकर, इस चराचर ब्रह्माण्ड के समस्त जीवित तथा अजीवित तत्वों का सृष्टि, पालन तथा संहार करती हैं। देवी की कृपा के बिना, मोह के घेरे कोई नहीं लाँघ पाता हैं। तदनंतर, राजा सुरथ ने महामाया आदि शक्ति के बारे में पूछा! की वे कौन हैं? तथा उनका प्रादुर्भाव कैसे हुआ?"''
 
ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा। बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति ॥
 
''वे भगवती महामाया देवी ज्ञानियों के भी चित्त को बल पूर्वक खींचकर मोह में डाल देती हैं। भगवान विष्णु के अन्तः कारण की शक्ति ‘महा-माया या योगमाया’ हैं, इन्हीं की शक्ति से संपन्न होकर भगवान श्री हरी जनार्दन विष्णुनाना प्रकार के उत्पातों का विनाश करते हैं। कल्प के आदि में दैत्य मधु तथा कैटभ के संहार हेतु भगवान विष्णुने इन्हीं आदि शक्ति की सहायता ली थीं। जिसके परिणामस्वरूप दैत्यों की बुद्धि भ्रमित हो गई तथा भगवान विष्णुने अपने सुदर्शन चक्र से मधु तथा कैटभ का संहार किया।''
 
''कल्प के आदि में महा-प्रलय उपस्थित होने पर भगवान विष्णु ने प्रलय स्तंभन हेतु इन्हीं आदि शक्ति की सहायता ली थीं। भगवान द्वारा निवेदन पर ‘देवी बगलामुखी’ ने प्रलय को शांत किया था या प्रलय का स्तंभन किया था।''
 
== कल्प के प्रथम में काली प्रादुर्भाव तथा मधु-कैटभ वध। ==
एक समय जब सम्पूर्ण जगत एकार्णवके जल में डूबा हुआ था तथा भगवान श्री हरी विष्णु शेष नाग की शय्या पर योग-निद्रा मग्न थे; उनके कान के मेल से दो बलशाली असुर उत्पन्न हुए, जो मधु और कैटभ नाम से प्रसिद्ध हुए। वे दोनों अत्यंत बलशाली, विशाल काया युक्त, घोर प्रलय के समान थे तथा ऐसे प्रतीत होते थे जैसे वे सम्पूर्ण जगत को खा लेंगे। उन दोनों भाइयों ने भगवान विष्णु की नाभि से उत्पन्न, कमल पर विराजमान ब्रह्मा जी को मार डालने का प्रयास किया। ब्रह्मा जी ने देखा कि! जनार्दन भगवान श्री विष्णु योग-निद्रा मग्न हैं, तब उन्होंने उनकी योगमाया शक्ति, महामाया ''(भगवान विष्णु के योग-निद्रा मग्न रहने पर उनसे उदित होती हैं)'' का स्तवन किया तथा उनसे प्रार्थना की! ''"आप इन दोनों दुर्जय असुरों को मोहित करें तथा भगवान विष्णु को योग-निद्रा से जगा दें।"'' इस प्रकार मधु और कैटभ से अपनी रक्षा हेतु, ब्रह्मा जी के द्वारा प्रार्थना करने पर सम्पूर्ण विद्याओं की अधिश्वरी देवी ने फाल्गुन शुक्ल द्वादशी को ''त्रैलोक्य मोहिनी शक्ति'' रूप में अवतार धारण किया तथाकाली के नाम से विख्यात हुई। तदनंतर आकाशवाणी हुई! ''"कमलासन डरो मत, युद्ध में मधु-कैटभ को मार कर में तुम्हारी रक्षा करूँगी।"'' ऐसा कहकर, वे महामाया शक्ति श्री विष्णु के नेत्र, मुख से निकल कर ब्रह्मा जी के सनमुख आ खड़ी हुई। तदनंतर, भगवान जनार्दन योग-निद्रा त्याग कर जग उठे तथा अपने सनमुख खड़े दोनों महा दैत्यों को देखा।
 
भगवान विष्णु, दोनों दैत्य-भ्राताओं के संग ५ हजार वर्षों तक युद्ध करते रहें, अंततः वे थक गए। मधु और कैटभ एक-एक कर युद्ध करते थे, तथापि जब एक भाई युद्ध करता तो दूसरा विश्राम कर लेता था। परिस्थिति देखकर कुछ क्षण हेतु भगवान विष्णु विश्राम करने लगे, इस अवधि में उन्होंने सहायतार्थ महामाया-स्तवन किया तथा उनसे उन दोनों भाईयों के वध का कोई उपाय करने का निवेदन किया। आदि शक्ति महामाया ने भगवान विष्णु को सलाह दी कि! ''"मैं उन दोनों भ्राताओं के बुद्धि को भ्रम में डाल दूंगी, तब आप उन दैत्यों से आपके हाथों से मारे जाने का वर मांग लेना।"'' तदनंतर, आदि शक्ति महामाया ने दोनों की बुद्धि को भ्रमित कर दिया, दोनों भाई भगवान विष्णु से कहने लगे कि! ''"वे दोनों उनके पराक्रम से बहुत संतुष्ट हैं, वे उन दोनों से इच्छित वर मांग ले।"'' भगवान विष्णु ने उन दोनों दैत्यों से कहा! ''"अगर तुम मुझ पर प्रसन्न हो तो मेरे हाथों मारे जाओ, तुम दोनों मुझे यह वर प्रदान करो, मुझे और दूसरा वर नहीं चाहिये।"''
 
तदनंतर, दोनों भाइयों ने देखा सारी पृथ्वी जल में निमग्न हैं, तब वे भगवान विष्णु से बोले! ''"हम दोनों को ऐसी जगह मारो, जहाँ पृथ्वी जल में भीगी हुई न हों।"'' बहुत अच्छा कहकर भगवान विष्णु ने दोनों दैत्यों को अपने जंघा पर रखा तथा अपने सुदर्शन चक्र से उनके मस्तक को देह से अलग कर दिया। इस प्रकार भगवान श्री हरी विष्णु की ''योग माया शक्ति! काली'' ही मधु-कैटभ के वध का कारण बनी।
 
भगवान विष्णु के योगमाया शक्ति ने ही ''काली'' ने ही अप्रत्यक्ष रूप से मधु-कैटभ का वध किया, देवी ही साक्षात शिव पत्नी सती-पार्वती हैं, आदि शक्ति हैं।
 
== सम्पूर्ण देवताओं के तेज से महालक्ष्मी अवतार तथा उनके द्वारा महिषासुर का वध। ==
सुरथ मुनि कहते हैं, राजन! रम्भ नाम से एक प्रसिद्ध असुर हुआ करता था, उससे महा-तेजस्वी महिष नमक दानव का जन्म हुआ। दानव-राज महिष ने समस्त देवताओं को युद्ध में पराजित कर, स्वर्ग से निकाल दिया तथा स्वयं इन्द्रासन पर जा बैठा; स्वर्ग लोक में रह कर तीनों लोकों में राज्य करने लगा। पराजित हुए सभी देवता ब्रह्मा जी के पास गए तथा उनसे सलाह-परामर्श कर सभी देवता एकत्र होकर उस स्थान पर गए! जहाँ भगवान शिव तथा भगवान विष्णु विराजमान थे। वहाँ पहुँच कर समस्त देवताओं ने भगवान शिव तथा भगवान विष्णु को नमस्कार कर, अपनी दुर्दशा का सारा वृत्तांत सुनाया। उस समय सभी देवता मर्त्यलोक में भटक रहे थे, कुछ ने पर्वतों की कंदराओं में शरण लिया था। समस्त देवता जैसे सूर्य, चन्द्रमा, वरुण, कुबेर, यम, इंद्र, अग्नि, वायु, गंधर्व इत्यादि के स्वाभाविक कर्म, महिषासुर स्वयं ही कर रहा था। समस्त देवताओ ने भगवान शिव तथा भगवान विष्णु से उनकी रक्षा तथा महिष के वध का उपाय शीघ्र ही करने का निवेदन किया। महिषासुर ब्रह्म प्रदत्त वर के अभिमान से चूर था, उसने ब्रह्मा जी की कठोर तपस्या कर किसी ''नारी या स्त्री के हाथों से मृत्यु वर'' प्राप्त किया था।
 
देवताओं की समस्त बात सुनकर भगवान शिव तथा विष्णु ने अत्यंत क्रोध किया और क्रोध के कारण उनके नेत्र घूमने लगे। अत्यंत क्रोध में भरे हुए शिव-विष्णु के मुख तथा अन्य सभी उपस्थित देवताओं के शरीर से, एक-एक कर तेज पुंज प्रकट हुआ तथा तेज का वह महान पुंज, अत्यंत प्रज्वलित हो दसों दिशाओं में प्रकाशित हो उठा। उस तेज पुंज का मुख ''भगवान शिव के तेज से, केश यम-राज के तेज से, दोनों स्तन चन्द्रमा के तेज से, कटिभाग इंद्र के तेज से, जंघा और ऊरू वरुण के तेज से, नितम्ब पृथ्वी के तेज से, दोनों चरण ब्रह्मा जी के तेज से, पैरो की उँगुलियाँ सूर्य के तेज से, नासिका कुबेर के तेज से, दांत प्रजापति के तेज से, तीनों नेत्र अग्नि के तेज से, दोनों भौहे साध्यगण के तेज से, दोनों कान वायु के तेज से उत्पन्न हुए।'' वह तेज पुंज तदनंतर एक दिव्य स्त्री के रूप में परिणति हो गया।
 
इसी प्रकार समस्त देवताओं के तेज से आविर्भाव हुई देवी लक्ष्मी ही वह परमेश्वरी शक्ति थी। उन्हें देख समस्त देवताओं के प्रसन्नता का कोई ठिकाना ही नहीं रहा, परन्तु देवी अस्त्र-शस्त्र विहीन थीं। तदनंतर, ब्रह्मा आदि देवताओं ने देवी को अस्त्र इत्यादि प्रदान किया! ''भगवान विष्णु ने 'चक्र', वरुण ने 'पाश', अग्निदेव ने 'शक्ति', वायु देव ने 'धनुष तथा बाण', देवराज इंद्र ने 'घंटा', यम-राज ने 'काल-दंड', प्रजापति ने 'अक्षरमाला', ब्रह्मा जी ने 'कमंडल', सूर्य देव ने अपनी 'किरणों' को देवी के रोम कूपों में भर दिया, काल ने 'ढाल तथा तलवार', क्षीर-सागर ने 'सुन्दर हार, नाना प्रकार के आभूषण तथा पुराने न होने वाले दो वस्त्र' प्रदान किये। विश्वकर्मा ने 'फरसा', अनेक प्रकार के 'अस्त्र तथा अभेद्य कवच', समुद्र ने 'माला तथा कमल पुष्प', हिमवान ने सवारी के लिये 'सिंह', कुबेर ने 'मधु से भरा पात्र, शेष जी ने 'नाग हार' प्रदान कर देवी का यथोचित सम्मान किया।'' तत्पश्चात देवी ने भयंकर गर्जना की जिसकी ध्वनि से आकाश भी गूँज उठा; सभी देवताओं ने लक्ष्मी स्वरूपा देवी का स्तवन किया; महर्षि कात्यायन ने सर्वप्रथम इनकी आराधना की, परिणामस्वरूप देवी कात्यायनी नाम से विख्यात हुई।
 
देवी द्वारा किये गए घोर गर्जन सुनकर महिषासुर, ने उस गर्जन की ओर अपने दूत को भेजा। उस स्थान पर पहुँचकर दैत्य-राज के दूतों ने अस्त्र-शस्त्र धारण किये हुए युद्ध हेतु उद्धत एक दिव्य नारी को देखा, जो अपनी दिव्य आभा से तीनों लोकों को प्रकाशित कर रही थी। दूतों ने जाकर दैत्य-पति को दिव्य नारी के सम्बन्ध में अवगत कराया; जिससे उसके मन में उस दिव्य नारी से विवाह की इच्छा जागृत हुई। महिषासुर ने अपने महावीर योद्धाओं को देवी के पास संदेश देकर भेजा, परन्तु देवी केवल युद्ध ही करना चाहती थीं। तदनंतर, दैत्य-पति ने चिक्षुर, चामर, उदग्र, कराल, उद्धत, बाष्कल, ताम्र, उग्रविर्य, अन्धक, दुर्धर, दुर्मुख, महाहनु, त्रिनेत्र जैसे महान बलशाली योद्धाओं को देवी से युद्ध करने हेतु भेजा। देवी तथा दैत्यों के समूह के बीच घनघोर युद्ध हुआ, जिसमें सभी दैत्य वीर एक-एक कर मारे गए, अंततःमहिषासुर, देवी के साथ मायायुद्ध करने लगा। इस घनघोर युद्ध में देवी द्वारा दैत्य-पति महिषासुर मारा गया तथा दैत्यराज की समस्त सेना भाग खड़ी हुई। तदनंतरदेवी महिषासुरमर्दिनी नाम से विख्यात हुई, इन्हें ही देवी मह-लक्ष्मी नाम से जाना जाता हैं।
 
== देवी द्वारा सरस्वती अवतार धारण कर, शुम्भ-निशुम्भ तथा उस की बड़ी भरी सेना का संहार करना। ==
पूर्व काल की बात हैं, शुम्भ तथा निशुम्भ नाम के दो भाई बहुत बलशाली प्रतापी दैत्य थे। अपने अपार बल के मद-अभिमान से चूर हो दोनों भाइयों ने त्रिलोक के राज्य पर आक्रमण किया तथा देवताओं को परास्त कर उन्हें अमरावती पुरी से निकाल दिया। तदनंतर, समस्त देवताओं ने हिमालय पर जाकर शरण लिया एवं सर्व मनोकामना पूर्ण करने वाली देवी का स्तवन किया। ''(देवताओं द्वारा किये हुए स्तवन अनुसार! देवी दुर्गा तीनों लोकों की रक्षा, मोक्ष प्रदान, उत्पत्ति, स्थिति तथा संहार करने वाली हैं। काली, तारा, छिन्नमस्ता, श्री विद्या,भुवनेश्वरी, भैरवी, बगलामुखी, धूमावती, त्रिपुरसुन्दरी, मातंगी, अजिता, विजया, जया, मंगला, विलासिनी, अपराजिता, घोर आकर धारण करने वाली, महाविद्या, शरणागतों का पालन करने वाली रुद्राणी, परमात्मा, अनन्तकोटि ब्रह्मांडों का सञ्चालन करने वाली देवी कहा गया हैं।)''
 
इस प्रकार, देवताओं की स्तुति करने पर गौरी देवी या पार्वती अत्यंत प्रसन्न हुई, उन्होंने देवताओं से पूछा!''"आप लोग किसकी स्तुति कर रहे हैं?"'' तक्षण ही वहां पर देखते ही देखते शिवा देवी के शरीर से एक कुमारी कन्या का प्राकट्य हुआ तथा वे कहने लगी! ''"यह सभी! आप की ही स्तुति कर रहें हैं! शुम्भ तथा निशुम्भ नमक दैत्यों से प्रताड़ित होने के कारण, अपनी रक्षा हेतु आपकी प्रार्थना कर रहे हैं।'' उस कन्या का प्रादुर्भाव शिव पत्नी शिवा से हुआ एवं वे देवी कौशिकी नाम से विख्यात हुई। ''देवी कौशिकी ही साक्षात् शुम्भ-निशुम्भ का वध करने वाली सरस्वती हैं तथा उन्हें ही उग्र तारा या महोग्र तारा कहा गया हैं।'' देवी कौशिकीने देवताओं से कहा! ''"तुम लोग निर्भय हो जाओ! मैं स्वतंत्र हूँ! बिना किसी सहायता मैं तुम लोगों का कार्य सिद्ध कर दूंगी तथा तक्षण ही वहाँ से अंतर ध्यान हो गई।"''
 
तदनंतर, एक दिन शुम्भ तथा निशुम्भ के सेवकों ने देवी के स्वरूप को देखा! उनका मनोहर रूप देखकर वे चकित, अचंभित होकर सुध बुध खो बैठे। यह सब जाकर दोनों ने अपने स्वामी को कहा! ''"एक अपूर्व सुंदरी हिमालय पर रहती हैं तथा सिंह पर सवारी करती हैं।"'' यह सुनकर शुम्भ ने अपने दूत सुग्रीव को देवी के पास प्रस्ताव देकर भेजा तथा प्रयत्न पूर्वक देवी को ले आने की आज्ञा दी। दूत, देवी के पास गया तथा बोलने लगा! ''"देवी! दैत्यराज शुम्भ, अपने महान बल तथा पराक्रम के कारण तीनों लोकों में विख्यात हैं, उनका छोटा भाई निशुम्भ भी समान प्रतापी हैं। शुम्भ ने मुझे तुम्हारे पास दूत बना कर भेजा हैं, इसी कारण में यहाँ आया हूँ। सुरेश्वरी! शुम्भ ने जो सन्देश दिया हैं उसे सुनो! मैंने युद्ध में इंद्र आदि देवताओं को पराजित कर, उनसे समस्त रत्नों का हरण कर लिया हैं, यज्ञ में दिया हुआ देव भाग मैं स्वयं ही भोगता हूँ। तुम स्त्रियों में रत्न हो तथा सब रत्नों की शिरोमणि हो, तुम कामजनित रस के साथ मुझे या मेरे भाई को अंगीकार करो।"'' यह सुनकर कौशिकी देवी ने कहा! ''"तुम्हारा कथन असत्य नहीं हैं, परन्तु मैंने पूर्व में एक प्रण लिया हैं उसे सुनो! जो मेरा घमंड चूर कर मुझे युद्ध में जीत लेगा, उसी को में अपने स्वामी रूप में वरण कर सकती हूँ, यह मेरा दृढ़ प्रण हैं। तुम शुम्भ तथा निशुम्भ को मेरी यह प्रतिज्ञा बता दो, तदनंतर इस विषय में वह जैसा उचित समझें करें।"''
 
देवी द्वारा इस प्रकार उत्तर पाकर, दूत सुग्रीव वापस शुम्भ के पास चला आया तथा विस्तार पूर्वक सारी बातों से अपने स्वामी को अवगत करवाया। दूत की बातें सुनकरशुम्भ कुपित हो उठा तथा अपने श्रेष्ठ सेनापति धूम्राक्ष को हिमालय पर जाकर, देवी जिस भी अवस्था पर हो! ले आने का निर्देश दिया, फिर उसे भले ही देवी के साथ युद्ध ही क्यों न करना पड़े। दैत्य धूम्रलोचन हिमालय पर जाकर, भगवती भुवनेश्वरी (कौशिकी) से कहने लगा! ''"मेरे स्वामी के पास चलो नहीं तो में तुम्हें मार डालूँगा।"''देवी ने कहा! ''"युद्ध के बिना मेरा शुम्भ के पास जाना असंभव हैं",'' यह सुनकर धूम्राक्ष, देवी को पकड़ने के लिये गया, परन्तु देवी ने 'हूँ' के उच्चारण मात्र से उसे भस्म कर दिया, देवी का यह रूप धूमावती नाम से भी प्रसिद्ध हैं। यह समाचार पाकर शुम्भ बड़ा ही कुपित हुआ तथा चण्ड, मुंड तथा रक्तबीज नामक असुरों को देवी के पास भेजा। दानव गणो ने, देवी के सनमुख जाकर शीघ्र ही दैत्य-पति शुम्भको पति बनाने का आदेश दिया, अन्यथा गणो सहित उन्हें मार डालने का भय दिखाया।
 
देवी ने कहा! ''"मैं सद भगवान शिव की सूक्ष्म प्रकृति हूँ, फिर किसी दूसरे की पत्नी कैसे बन सकती हूँ? दैत्यों! या तो तुम अपने-अपने स्थानों को लौट जाओ अन्यथा मेरे साथ युद्ध करो।"'' देवी के यह वचन सुनकर, दैत्यों ने बड़ा क्रोध किया तथा बोलने लगे! ''"अब तक हम तुम्हें अबला समझ कर नहीं मार रहे थे, अब युद्ध करो।"'' युद्ध में देवी ने तीनों वीर दैत्यों को मार डाला तथा अपना उत्तम लोक प्रदान किया। इस प्रकार शुम्भ को जब यह समाचार प्राप्त हुआ, उसने युद्ध के निमित्त दुर्जय गणो को भेजा। कालक, कालकेय, मौर्य, दौर्ह्रद तथा अन्य असुरगण भरी सेना को साथ ले कर, दोनों भाई शुम्भ तथा निशुम्भ रथ पर आरूढ़ हो देवी से युद्ध करने के लिये निकले। हिमालय पर्वत पर खड़ी हुई रमणीय आभूषणों तथा अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित देवी शिवा को देखकर निशुम्भ मोहित हो गया तथा सरस वाणी में बोला! ''"देवी, तुम जैसे सुंदरी रमणी के शरीर पर मालती के फूल का एक दल भी डाल दिया जाये तो वह व्यथा उत्पन्न कर देती हैं। ऐसे मनोहर शरीर से तुम विकराल युद्ध का विस्तार कैसे कर रही हो?'' तब चंडिका देवी ने उसे या तो युद्ध करने या वापस चले जाने की सलाह दी। इतना सुनकर सभी महारथी देवी से युद्ध करने लगे, नाना प्रकार से अस्त्र-शस्त्र युद्ध भूमि में चलने लगे। देवी कालिका तथा उनकी सहचरियों ने दैत्यों को मरना शुरू कर दिया तथा देवी के वाहन सिंह ने भी कई दैत्यों का भक्षण कर लिया। दैत्यों के मारे जाने के कारण, रण-भूमि में रक्त की धार, नदिया बहने लगी। घोर युद्ध छिड़ जाने पर, दैत्यों का महान संहार होने लगा, देवी ने विष में बुझे हुए तीखे बाणों से निशुम्भ को मार कर धराशायी कर दिया।
 
अपने प्रिय भाई निशुम्भ के मारे जाने पर शुम्भ क्रोध से भर गया तथा अष्ट भुजाओं से युक्त हो देवी के पास आया। शुम्भ ने शंख बजाने तथा धनुष की टंकार से आकाश-मंडल गुंज उठा तथा देवी के अटृहास से समस्त असुर संत्रस्त हो गए, देवी ने शुम्भ से कहा! ''"तुम युद्ध में स्थिरता पूर्वक खड़े रहो।"'' शुम्भ ने देवी की ओर शिखा से अग्नि ज्वाला निकलती हुई बड़ी भरी शक्ति छोड़ी, देवी एक-एक उल्का से शुम्भ की शक्ति को भस्म कर दिया, दोनों के द्वारा चलाये हुए बाणों को एक दूसरे ने काट दिया। तत्पश्चात, चंडिका ने त्रिशूल से शुम्भ पर प्रहार किया, जिससे वह पृथ्वी पर गिर गया। शूल के आघात से होने वाली व्यथा को सहकर, शुम्भ ने १० हजार भजायें धारण कर ली तथा चक्र द्वारा देवी के वाहन सिंह तथा देवी पर आक्रमण करना प्रारंभ कर दिया; देवी ने खेल-खेल में उन चक्रों को विदीर्ण कर दिया। तदनंतर, देवी ने त्रिशूल के प्रहार से असुर शुम्भ को मार गिराया। शुम्भ तथा निशुम्भ दैत्य का वध करने वाली शक्ति साक्षात ''सरस्वती'' ही थीं।
 
== चण्ड तथा मुंड के वध करने पर देवी चामुंडा नाम से तथा रक्तबीज का वध करने पर देवी काली नाम से प्रसिद्ध हुई। ==
 
== ब्रह्मा जी द्वारा अपने पुत्र प्रजापति दक्ष को आदि शक्ति देवी की आराधना कर पुत्री रूप में प्राप्त करने हेतु परामर्श देना तथा देवी द्वारा संतुष्ट हो प्रजापति को आशीर्वाद प्रदान करना। ==
एक बार ब्रह्मा जी ने अपने पुत्र दक्ष प्रजापति से कहा! ''“पुत्र मैं तुम्हारे परम कल्याण की बात कह रहा हूँ।भगवान शिव ने 'पूर्णा परा प्रकृति' (देवी आदि शक्ति) को पत्नी स्वरूप प्राप्त करने हेतु पूर्व में आराधना की थीं। जिसके परिणामस्वरूप देवी आदि शक्ति ने उन्हें वर प्रदान किया, 'वह कहीं उत्पन्न होंगी तथा शिव को पति रूप में वरन करेंगी।'तुम उग्र तपस्या कर उन आदि शक्ति को प्रसन्न करो और उन्हें अपनी पुत्री रूप में प्राप्त करो, जिसके पश्चात उनका शिव जी से विवाह करना। परम-सौभाग्य से वह आदि शक्ति देवी जिसके यहाँ जन्म लेगी उसका जीवन सफल हो जायेगा।”''
प्रजापति दक्ष ने ब्रह्मा जी को आश्वासन दिया की वह घोर साधना कर देवी आदि शक्ति को अपने पुत्री रूप में प्राप्त करेंगे। इस प्रकार निश्चय कर प्रजापति दक्ष, देवी की आराधना हेतु तत्पर हुए तथा उपवासादी नाना व्रतों द्वारा कठोर तपस्या करते हुए उन्होंने देवी आदि शक्ति की आराधना की। दक्ष की तपस्या से संतुष्ट होदेवी आदि शक्ति ने उन्हें दर्शन दिया! वे चार भुजाओं से युक्त एवं कृष्ण वर्ण की थीं तथा गले में मुंड-माला धारण किये हुए थीं। वे निर्वस्त्र थीं एवं उनके केश खुले बिखरे हुए थे, नील कमल के समान उनके नेत्र अत्यंत सुन्दर प्रतीत हो रहे थे तथा वे सिंह के पीठ पर विराजमान थीं। देवी आदि शक्ति ने दक्ष प्रजापति से तपस्या का कारण पूछा! साथ ही उन्हें मनोवांछित वर प्रदान करने का आश्वासन दिया। 
''इस प्रकार देवी से आश्वासन पाने दक्ष ने उन्हें अपने यहाँ पुत्री रूप में जन्म धारण करने हेतु निवेदन किया।''
देवी आदि शक्ति ने प्रजापति दक्ष से कहाँ! “मैं तुम्हारे यहाँ जन्म धारण करूँगी तथा भगवान शिव की पत्नी बनूँगी, मैं तुम्हारी तपस्या से संतुष्ट हूँ। मैं तुम्हारे घर में तब तक रहूंगी जब तक की तुम्हारा पुण्य क्षीण न हो और तुम्हारे द्वारा मेरे प्रति अनादर करने पर मैं, पुनः अपनी यह आकृति धारण कर वापस अपने धाम को चली जाऊंगी।”
इस प्रकार देवी दक्ष से कह कर वहां से अंतर्ध्यान हो गई।
 
== देवी आदि शक्ति का प्रजापति दक्ष के यह जन्म धारण करना तथा 'सती' नाम-करण, युवा अवस्था को प्राप्त होना, सती हेतु दक्ष द्वारा स्वयंवर का आयोजन करना जिस में शिव जी निमंत्रण न भेजना। ==
कुछ समय पश्चात '''दक्ष-पत्नी प्रसूति''' ने एक कन्या को जन्म दिया तथा दसवें दिन सभी परिवार जनों ने एकत्रित हो, उस कन्या का नाम '''‘सती’''' रखा। ज्यों-ज्यों उस कन्या की आयु बड़ी, त्यों-त्यों उसकी शारीरिक सुन्दरता भी बढ़ने लगी। उस सुन्दर कन्या ('''सती''') के विवाह योग्य होने पर '''दक्ष''' ने अपनी कन्या के विवाह हेतु चिंतन करना प्रारंभ किया, उन्हें ध्यान आया की यह साक्षात् '''भगवती आदि शक्ति''' हैं इन्होंने पूर्व से ही किसी और को पति बनाने का निश्चय कर रखा हैं। परन्तु '''दक्ष''' ने सोचा कि! '''शिव जी''' के अंश से उत्पन्न '''रुद्र''' उनके आज्ञाकारी हैं, उन्हें ससम्मान बुलाकर मैं अपनी इस सुन्दर कन्या को कैसे दे सकता हूँ।
 
'''दक्ष''' ने इस प्रकार सोच कर, एक सभा का आयोजन किया जिसमें सभी देवता, दैत्य, गन्धर्व, किन्नर इत्यादि को निमंत्रित किया गया, परन्तु त्रिशूल धारी '''शिव''' को नहीं, जिससे उस सभा में '''शिव''' न आ पायें। उस समय जो भी विधाता ने मन हैं सोच रखा होगा वही होगा।
 
'''दक्ष प्रजापति''' ने अपने सुन्दर भवन में '''सती''' के निमित्त स्वयं-वर आयोजित किया! उस सभा में सभी '''देव, दैत्य, मुनि''' इत्यादि आयें। सभी अतिथि-गण वहां नाना प्रकार के दिव्य वस्त्र तथा रत्नमय अलंकार धारण किये हुए थे, वे नाना प्रकार के रथ तथा हाथियों पर आयें थे। इस विशेष अवसर पर भेरी (नागड़ा), मृदंग और ढोल बज रहें थे, सभा में गन्धर्वों द्वारा सु-ललित गायन प्रस्तुत किया जा रहा था। सभी अतिथियों के आने पर '''दक्ष प्रजापति''' ने अपनी त्रैलोक्य-सुंदरी कन्या '''सती''' को सभा में बुलवाया। इस अवसर पर '''शिव जी''' भी अपने वाहन वृषभ में सवार होकर वहां आयें, सर्वप्रथम उन्होंने आकाश से ही उस सभा का अवलोकन किया।
 
==== स्वयंवर में सती द्वारा भगवान शिव का पति रूप में वरन कर उनके साथ कैलाश शिखर में जाना। ====
सभा को '''शिव''' विहीन देख कर, '''दक्ष''' ने अपनी कन्या '''सती''' से कहा! ''“पुत्री यहाँ एक से एक सुन्दर देवता, दैत्य, ऋषि, मुनि एकत्रित हैं, तुम इनमें से जिसे भी अपने अनुरूप गुण-सम्पन्न युक्त समझो, उस दिव्य पुरुष के गले में माला पहना कर, उसको अपने पति रूप में वरन कर लो।”'' '''सती''' देवी ने आकाश में उपस्थित '''भगवान शिव''' को प्रणाम कर वर माला को भूमि पर रख दिया तथा उनके द्वारा भूमि पर रखी हुई वह माला '''शिव जी''' ने अपने गले में डाल लिया, '''भगवान शिव''' अकस्मात् ही उस सभा में प्रकट हो गए। उस समय '''शिव जी''' का शरीर दिव्य रूप-धारी था, वे नाना प्रकार के अलंकारों से सुशोभित थे, उनकी शारीरिक आभा करोड़ों चन्द्रमाओं के कांति के समान थीं। सुगन्धित द्रव्यों का लेपन करने वाले, कमल के समान तीन नेत्रों से युक्त '''भगवान शिव''' देखते-देखते प्रसन्न मन युक्त हो वहां से अंतर्ध्यान हो गए। '''सती''' द्वारा '''भगवान शिव'''का वरन करने के परिणामस्वरूप, '''दक्ष प्रजापति''' के मन में '''सती''' के प्रति आदर कुछ कम हो गया।
 
== शिव के भिक्षा वृति तथा श्मशान-वासी होने के कारण, सती के लिए उनके पिता दक्ष प्रजापति की चिंता तथा निंदा, शिव के अस्तित्व को स्वीकार न कर बार-बार उनकी निंदा तथा उनसे द्वेष करना तथा दधीचि मुनि द्वारा उन्हें नाना प्रकार से शिव तत्त्व के सम्बन्ध में समझाना। ==
 
==== दधीचि मुनि द्वारा प्रजापति दक्ष को शिव तत्त्व के बारे में समझाना। ====
'''सती''' के चले जाने के पश्चात '''दक्ष प्रजापति, शिव तथा सती''' की निंदा करते हुए रुदन करने लगे, इस पर उन्हें '''दधीचि मुनि''' ने समझाया!
 
''"तुम्हारा भाग्य पुण्य-मय था, जिसके परिणामस्वरूप '''सती''' ने तुम्हारे यहाँ जन्म धारण किया, तुम '''शिव तथा सती''' के वास्तविकता को नहीं जानते हो। '''सती''' ही '''आद्या शक्ति मूल प्रकृति''' तथा जन्म-मरण से रहित हैं, '''भगवान शिव''' भी साक्षात् '''आदि पुरुष''' हैं, इसमें कोई संदेह नहीं हैं। देवता, दैत्य इत्यादि, जिन्हें कठोर से कठोर तपस्या से संतुष्ट नहीं कर सकते उन्हें तुमने संतुष्ट किया तथा पुत्री रूप में प्राप्त किया। अब किस मोह में पड़ कर तुम उनके विषय में कुछ नहीं जानने की बात कर रहे हों? उनकी निंदा करते हो?''
 
इस पर '''दक्ष''' ने अपने ही पुत्र '''मरीचि''' से कहाँ! ''“आप ही बताएं की यदि शिव आदि-पुरुष हैं एवं इस चराचर जगत के स्वामी हैं, तो उन्हें >श्मशान भूमि क्यों प्रिय हैं? वे विरूपाक्ष तथा त्रिलोचन क्यों हैं? वे भिक्षा-वृति क्यों स्वीकार किये हुए हैं? वे अपने शरीर में चिता भस्म क्यों लगते हैं?”''
 
इस पर मुनि ने अपने पिता को उत्तर दिया! ''“'''भगवान शिव''' पूर्ण एवं नित्य आनंदमय हैं तथा सभी ईश्वरों के भी ईश्वर हैं, उनके आश्रय लेने वाले हेतु दुःख तो है ही नहीं। तुम्हारी विपरीत बुद्धि उन्हें कैसे भिक्षुक कह रही हैं? उनकी वास्तविकता जाने बिना तुम उनकी निंदा क्यों कर रहे हो? वे सर्वत्र गति हैं और वे ही सर्वत्र व्याप्त हैं। उनके निमित्त >श्मशान या रमणीय नगर दोनों एक ही हैं, '''शिव''' लोक तो बहुत ही अपूर्व हैं, जिसे '''ब्रह्मा जी''' तथा '''श्री हरी विष्णु''' भी प्राप्त करने की आकांशा करते हैं, देवताओं के लिए कैलाश में वास करना दुर्लभ हैं। '''देवराज इंद्र''' का स्वर्ग, कैलाश के सोलहवें अंश के बराबर भी नहीं हैं। इस मृत्यु लोक में वाराणसी नाम की रमणीय नगरी '''भगवान शिव''' की ही हैं, वह परमात्मा मुक्ति क्षेत्र हैं, जहाँ '''ब्रह्मा जी''' आदि देवता भी मृत्यु की कामना करते हैं। यह तुम्हारी मिथ्या भ्रम ही हैं की >श्मशान के अतिरिक्त उनका कोई वास स्थान नहीं हैं। तुम्हें व्यर्थ मोह में पड़कर '''शिव तथा सती''' की निंदा नहीं करनी चाहिये।''
 
इस प्रकार मुनि '''दधीचि''' द्वारा समझाने पर भी '''दक्ष प्रजापति''' के मन से उन दंपति '''शिव तथा सती''' के प्रति हीन भावना नहीं गई तथा उनके बारे में निन्दात्मक कटुवचन बोलते रहें। वे अपनी पुत्री '''सती''' की निंदा करते हुए विलाप करते थे! ''“हे '''सती'''! हे पुत्री! तुम मुझे मेरे प्राणों से भी अधिक प्रिय थीं, मुझे शोक सागर में छोड़-कर तुम कहाँ चली गई। तुम दिव्य मनोहर अंग वाली हो, तुम्हें मनोहर शय्या पर सोना चाहिये, आज तुम उस कुरूप पति के संग >श्मशान में कैसे वास कर रहीं हो?”''
 
इस पर '''दधीचि मुनि''' ने '''दक्ष''' को पुनः समझाया! ''“आप तो ज्ञानियों में श्रेष्ठ हैं, क्या आप यह नहीं जानते हैं कि उस स्वयंवर में इस पृथ्वी, समुद्र, आकाश, पाताल से जितने भी दिव्य स्त्री-पुरुष आयें थे, वे सब इन्हीं दोनों '''आदि पुरुष-स्त्री''' के ही रूप हैं। तुम उस पुरुष '''(भगवान शिव)''' को यथार्थतः '''अनादि (प्रथम) पुरुष जान लो तथा त्रिगुणात्मिका परा भगवती तथा चिदात्मरूपा प्रकृति''' के विषय में अभी अच्छी तरह समझ लो। यह तुम्हारा दुर्भाग्य ही हैं की तुम '''आदि-विश्वेश्वर भगवान तथा उनकी पत्नी परा भगवती सती''' को महत्व नहीं दे रहे हो। तुम शोक-मग्न हो, यह समझ लो की हमारे शास्त्रों में जिन्हें '''प्रकृति एवं पुरुष''' कहा गया हैं, वे दोनों '''सती तथा शिव''' ही हैं।”''
 
==== रुद्र, जो भगवान शिव के अवतार हैं, उनके दक्ष के आधीन रहना। ====
पुनः '''दक्ष''' ने कहा! ''“आप उन दोनों के सम्बन्ध में ठीक ही कह रहें होंगे, परन्तु मुझे नहीं लगता हैं की '''शिव''' से बढ़कर कोई और श्रेष्ठ देवता नहीं हैं। यद्यपि ऋषिजन सत्य बोलते हैं, उनकी सत्यता पर कोई संदेह नहीं होना चाहिये, परन्तु मैं यह मानने को सन्नद्ध नहीं हूँ की '''शिव''' ही सर्वोत्कृष्ट हैं। इसका मूल करण हैं, जब मेरे पिता '''ब्रह्मा जी'''ने इस सृष्टि की रचना की थीं, तभी '''रुद्र''' भी उत्पन्न हुए थे, जो '''शिव''' समान शरीर तथा भयानक बल वाले थे। वे अति-साहसी एवं विशाल आकर वाले थे, निरंतर क्रोध के कारण उनके नेत्र सर्वदा लाल रहते थे, वे चीते का चर्म पहनते थे, सर पर लम्बी-लम्बी जटाएं रखते थे। एक बार दुष्ट '''रूद्र''' '''ब्रह्मा जी''' द्वारा निर्मित इस सृष्टि को नष्ट करने उद्यत हुए, '''ब्रह्मा जी''' ने उन्हें कठोर आदेश देकर शांत किया, साथ ही मुझे आदेश दिया की भविष्य में ये प्रबल पराक्रमी रुद्र ऐसा उपद्रव न कर पायें तथा आज वे सभी मेरे वश में हैं। '''ब्रह्मा जी''' की आज्ञा से ही ये रौद्र-कर्मा रुद्र भयभीत हो मेरे वश में रहते हैं, '''रुद्र''' अपना आश्रय स्थल एवं बल छोड़ कर मेरे अधीन हो गए हैं। अब में पूछता हूँ! जिनके अंश से संभूत ये '''रुद्र''' मेरे अधीन हैं तो इनका जन्म दाता मुझ से कैसे श्रेष्ठ हो सकता हैं? सत्पात्र को अधिकृत कर दिया गया दान ही पुण्यप्रद एवं यश प्रदान करने वाला होता हैं, मेरी इतनी गुणवान और सुन्दर पुत्री को क्या मेरी आज्ञा में रहने वाला वह '''शिव''' ही मिला था, मैंने अपनी पुत्री का दान उसे कर दिया। जब तक '''रुद्र'''मेरी आज्ञा के अधीन हैं, तब तक मेरी ईर्ष्या '''शिव''' में बनी रहेंगी।”''
 
== कैलाश में उत्सव तथा हिमालय पत्नी मेनका का सती को अगले जन्म में संतान रूप में प्राप्त करने की चाह तथा दक्ष के सेवक नंदी वृषभ के शिव का प्रधान अनुचर बनना। ==
'''सती-शिव,''' विवाह पश्चात हिमालय शिखर कैलाश में वास करने हेतु गए, जहाँ सभी देवता, महर्षि, नागों के प्रमुख, गन्धर्व, किन्नर, प्रजापति इत्यादि उत्सव मनाने हेतु गये। उनके साथ '''हिमालय-पत्नी मेनका''' भी अपनी सखियों के संग गई। इस प्रमोद के अवसर पर सभी ने वहां उत्सव मनाया, सभी ने उन '''‘शिव-सती’''' दम्पती को प्रणाम किया, उन्होंने मनोहर नित्य प्रस्तुत किये तथा विशेष गाना-बजाना किया। अंततः '''शिव तथा सती''' ने वहां उत्सव मनाने वाले सभी गणो को प्रसन्नतापूर्वक विदाई दी, तत्पश्चात सभी वह से चले गए।
 
'''हिमालय पत्नी मेनका''' जब अपने निवास स्थान को लौटने लगी, तो उन्होंने उन परम सुंदरी मनोहर अंगों वाली '''सती''' को देख कर सोचा! ''“'''सती''' को जन्म देने वाली माता धन्य हैं, मैं भी आज से प्रतिदिन इन देवी से प्रार्थना करूँगी कि अगले जन्म में ये मेरी पुत्री बने।"'' ऐसा विचार कर, हिमालय पत्नी '''मेनका''' ने उन '''शिव-पत्नी सती''' की प्रतिदिन पूजा-आराधना करने लगी।
 
'''''हिमालय पत्नी मेनका ने महाष्टमी से उपवास आरंभ कर वर्ष पर्यंत भगवती सती के निमित्त व्रत प्रारंभ कर दिया, वे सती को पुत्री रूप में प्राप्त करना चाहती थीं। अंततःमेनका के तपस्या से संतुष्ट हो देवी आदि शक्ति ने उन्हें अगले जन्म में पुत्री होने का आशीर्वाद दिया।'''''
 
==== दक्ष के सेवक का भगवान शिव के पास जाना तथा उनका प्रधान अनुचर बनना। ====
एक दिन बुद्धिमान '''''नंदी''''' नाम के वृषभ '''भगवान शिव''' के पास कैलाश गए, वेसे वे '''दक्ष''' के सेवक थे परन्तु '''दधीचि मुनि''' के शिष्य होने के कारण परम ''शिव भक्त'' थे। उन्होंने भूमि पर लेट कर '''शिव जी''' को दंडवत प्रणाम किया तथा बोले! ''“महादेव! मैं '''दक्ष''' का सेवक हूँ, परन्तु '''महर्षि मरीचि''' के शिष्य होने के कारण आप के सामर्थ्य को भली-भांति जनता हूँ। मैं आपको साक्षात '''‘आदि-पुरुष तथा माता सती को मूल प्रकृति आदि शक्ति’''' के रूप में इस चराचर जगत की सृष्टि-स्थिति-प्रलय कर्ता मानता हूँ।"'' इस प्रकार'''नंदी''' ने शिव-भक्ति युक्त गदगद वाणी से स्तुति कर '''भगवान शिव''' को संतुष्ट तथा प्रसन्न किया।
 
'''नंदी''' द्वारा स्तुति करने पर प्रसन्न हो '''भगवान शिव''' उस से बोले! ''“तुम्हारी मनोकामना क्या हैं? मुझे स्पष्ट बताओ, मैं उसे अवश्य पूर्ण करूँगा।”''
 
'''नंदी''' ने '''भगवान शिव''' से कहा! ''“में चाहता हूँ की आप की सेवा करता हुआ निरंतर आप के समीप रहूँ, में जहाँ भी रहूँ आप के दर्शन करता रहूँ।”''
 
तदनंतर, '''भगवान शिव''' ने उन्हें अपना प्रधान अनुचर तथा प्रमथ-गणो का प्रधान नियुक्त कर दिया। '''भगवान शिव''' ने '''नंदी''' को आज्ञा दी कि, मेरे निवास स्थान से कुछ दूर रहकर तुम सभी गणो के साथ पहरा दो, जब भी में तुम्हारा स्मरण करूँ तुम मरे पास आना तथा बिना आज्ञा के कोई भी मेरे पास ना आ पावें। इस प्रकार सभी प्रमथगण'''शिव जी''' के निवास स्थान से कुछ दूर चले गए और पहरा देने लगे।
 
== दक्ष द्वारा शिव-सती की निंदा करते रहना, नारद जी का उन्हें इसके विकट विध्वंसात्मक परिणाम के बारे में समझाना तथा उनके यज्ञ करने का संकल्प कर भगवान विष्णु को यज्ञ के संरक्षण का भार देना। ==
उधर '''दक्ष प्रजापति''' अपने दुर्भाग्य के कारण प्रतिदिन '''शिव-सती''' की निंदा करते रहें, वे '''भगवान शंकर''' को सम्मान नहीं देते थे तथा उन दोनों का द्वेष परस्पर बढ़ता ही गया। एक बार '''नारद जी, दक्ष प्रजापति''' के पास गए और उनसे कहा! ''“तुम सर्वदा '''भगवान शिव''' की निंदा करते रहते हो, इस निन्दात्मक व्यवहार के प्रतिफल में जो कुछ होने वाला हैं उसे भी सुन लो। '''भगवान शिव''' शीघ्र ही अपने गणो के साथ यहाँ आकर सब कुछ भस्म कर देंगे, हड्डियाँ बिखेर देंगे, तुम्हारा कुल सहित विनाश कर देंगे। मैंने तुम्हें यह स्नेह वश बता रहा हूँ, तुम अपने मंत्रियों से भाली-भाती विचार-विमर्श कर लो,'' यह कह '''नारद जी''' वह से चेले गए। तदनंतर, '''दक्ष''' ने अपने मंत्रियों को बुलवा कर, इस सन्दर्भ में अपने भय को प्रकट किया तथा कैसे इसका प्रतिरोध हो, इसका उपाय विचार करने हेतु कहा।
 
'''दक्ष''' की चिंता से अवगत हो, सभी मंत्री भयभीत हो गए। उन्होंने '''दक्ष''' को परामर्श दिया की! ''“'''शिव''' के साथ हम विरोध नहीं कर सकते हैं तथा इस संकट के निवारण हेतु हमें और कोई उपाय नहीं सूझ रहा हैं। आप परम बुद्धिमान हैं तथा सब शास्त्रों के ज्ञाता हैं, आप ही इस समस्या के निवारण हेतु कोई प्रतिकारात्मक उपाय सोचें, हम सभी उसे सफल करने का प्रयास करेंगे।”''
 
इस पर '''दक्ष''' ने संकल्प किया कि! ''मैं सभी देवताओं को आमंत्रित कर '''<nowiki/>'बृहस्पति श्रवा'<nowiki/>''' यज्ञ करूँगा!'' जिसके संरक्षक सर्व-विघ्न-निवारक '''यज्ञाधिपति भगवान विष्णु''' स्वयं होंगे, जहाँ >श्मशान वासी शिव को नहीं बुलाया जायेगा। '''दक्ष''' यह देखना चाहते थे कि '''भूतपति शिव''' इस पुण्य कार्य में कैसे विघ्न डालेंगे। इस तथ्य में '''दक्ष''' के सभी मंत्रियों का भी मत था, तदनंतर वे क्षीरसागर के तट पर जाकर, अपने यज्ञ के संरक्षण हेतु '''भगवान विष्णु''' से प्रार्थना करने लगे। '''दक्ष''' के प्रार्थना को स्वीकार करते हुए, '''भगवान विष्णु'''उस यज्ञ के संरक्षण हेतु '''दक्ष''' की नगरी में आयें। '''दक्ष''' ने इन्द्रादि समस्त देवताओं सहित, देवर्षियों, ब्रह्म-ऋषियों, यक्षों, गन्धर्वों, किन्नरों, पितरों, ग्रह, नक्षत्र दैत्यों, दानवों, मनुष्यों इत्यादि सभी को निमंत्रण किया परन्तु '''भगवान शिव''' तथा उनकी पत्नी '''सती''' को निमंत्रित नहीं किया और न ही उनसे सम्बन्ध रखने वाले किसी को। ''अगस्त्य, कश्यप, अत्रि, वामदेव, भृगु, दधीचि, व्यास जी, भारद्वाज, गौतम, पैल, पाराशर, गर्ग, भार्गव, ककुप, सित, सुमन्तु, त्रिक, कंक तथा वैशम्पायन ऋषि'' एवं और भी दूसरे मुनि सपरिवार '''दक्ष''' के यज्ञ अनुष्ठान में पधारे थे। '''दक्ष''' ने '''विश्वकर्मा''' से अनेक विशाल तथा दिव्य भवन का निर्माण करवा कर, अतिथियों के ठहरने हेतु प्रदान किया, अतिथियों का उन्होंने बहुत सत्कार किया। '''दक्ष''' का वह यज्ञ '''''कनखल''''' नामक स्थान में हो रहा था। '''''कपाल-धारी होने के कारण भगवान शिव को उस यज्ञ में निमंत्रित नहीं किया गया था।'''''
 
यज्ञ अनुष्ठान में उपस्थित समस्त लोगों से '''दक्ष''' ने निवेदन किया, ''“मैंने अपने इस यज्ञ महोत्सव में '''शिव तथा सती''' को निमंत्रित नहीं किया हैं, उन्हें यज्ञ का भाग नहीं प्राप्त होगा, '''परमपुरुष भगवान विष्णु''' इस यज्ञ में उपस्थित हैं तथा स्वयं इस यज्ञ की रक्षा करेंगे। आप सभी किसी का भी भय न मान कर इस यज्ञ में सम्मिलित रहें।”'' इस पर भी वहां उपस्थित देवता आदि आमंत्रित लोगों को भय हो रहा था, परन्तु जब उन्होंने सुना की इस यज्ञ की रक्षा हेतु स्वयं '''यज्ञ-पुरुष भगवान श्री विष्णु''' आयें हैं तो उनका भय दूर हो गया।
 
'''प्रजापति दक्ष''' ने यज्ञ में '''सती''' को छोड़ अपनी सभी कन्याओं को बुलवाया तथा वस्त्र-आभूषण इत्यादि आदि देकर उनका यथोचित सम्मान किया। उस यज्ञ में किसी भी पदार्थ की कमी नहीं थीं, तदनंतर '''दक्ष''' ने यज्ञ प्रारंभ किया, उस समय स्वयं '''पृथ्वी देवी यज्ञ-वेदी बनी तथा साक्षात् अग्निदेव यज्ञकुंड''' में विराजमान हुए।
 
== दधीचि मुनि द्वारा यज्ञ में शिव जी के न होने का कारण पूछना! उनके द्वारा दक्ष को पुनः समझाने पर मुनि पर क्रोध कर अनुष्ठान से निर्वासित करना तथा दुर्वासा, वामदेव, च्यवन एवं गौतम आदि ऋषियों का यज्ञ अनुष्ठान का त्याग करना। ==
स्वयं '''यज्ञ-भगवान श्री विष्णु''' उस यज्ञ में उपस्थित हैं, वहां '''दधीचि मुनि''' ने '''भगवान शिव''' को न देखकर, '''प्रजापति दक्ष''' से पूछा! ''“आप के यज्ञ में सभी देवता अपने-अपने भाग को लेने हेतु साक्षात उपस्थित हैं, ऐसा यज्ञ न कभी हुआ हैं और न कभी होगा। यहाँ सभी देवता आयें हैं, परन्तु '''भगवान शिव''' नहीं दिखाई देते हैं?”''
 
'''प्रजापति दक्ष''' ने मुनिवर से कहा! ''“हे मुने, मैंने इस शुभ अवसर पर शिव को निमंत्रित नहीं किया हैं, मेरी मान्यता हैं कि ऐसे पुण्य-कार्यों में शिव की उपस्थिति उचित नहीं हैं।”''
 
इस पर '''दधीचि मुनि''' ने कहा! ''“यह यज्ञ उन '''शिव''' के बिना >श्मशान तुल्य हैं।”'' इस पर '''दक्ष''' को बड़ा क्रोध हुआ तथा उन्होंने '''दधीचि मुनि''' को अपशब्द कहे, मुनिराज ने उन्हें पुनः '''शिव जी''' को ससम्मान बुला लेने का आग्रह किया, कई प्रकार के उदाहरण देकर उन्होंने '''शिव जी''' के बिना सब निरर्थक हैं, समझाने का बहुत प्रयत्न किया। '''दधीचि मुनि''' ने कहा! ''“जिस देश में नदी न हो, जिस यज्ञ में शिव न हो, जिस नारी का कोई पति न हो, जिस गृहस्थ का कोई पुत्र न हो सब निरर्थक ही हैं। कुश के बिना संध्या तथा तिल के बिना पित्र-तर्पण, हवि के बिना होम पूर्ण नहीं हैं, उसी प्रकार '''शिव''' के बिना कोई यज्ञ पूर्ण नहीं हो सकता हैं। जो '''विष्णु''' हैं वही शिव हैं और शिव हैं वही '''विष्णु'''हैं, इन दोनों में कोई भेद नहीं हैं, इन दोनों से किसी एक के प्रति भी द्वेष रखता हैं तो वह द्वेष दोनों के ही प्रति हैं, ऐसा समझना चाहिये। '''शिव''' के अपमान हेतु तुमने जो ये यज्ञ का आयोजन किया हैं, इस से तुम नष्ट हो जाओगे।"''
 
इस पर '''दक्ष''' ने कहा! ''"सम्पूर्ण जगत के पालक '''यज्ञ-पुरुष जनार्दान श्री विष्णु''' जिसके रक्षक हो, वहां >श्मशान में रहने वाला '''शिव''' मेरा कुछ अहित नहीं कर सकता हैं। अगर वह यहाँ अपने भूत-प्रेतों के साथ यहाँ आते हैं तो '''भगवान विष्णु''' का चक्र उनके ही विनाश का कारण बनेगा।"'' इस पर '''दधीचि मुनि''' ने '''दक्ष''' से कहा ! ''"अविनाशी विष्णु तुम्हारी तरह मूर्ख नहीं हैं, जो तुम्हारे लिए युद्ध करें, यह कुछ समय पश्चात तुम्हें स्वतः ही ज्ञात हो जायेगा।”''
 
यह सुनकर '''दक्ष''' और अधिक क्रोधित हो गए और अपने अनुचरों से कहा! ''“इस ब्राह्मण को दूर भगा दो।”'' इस पर मुनिराज ने '''दक्ष''' से कहा ! ''“तू क्या मुझे भगा रहा हैं, तेरा भाग्य तो पहले से ही तुझसे रूठ गया हैं; अब शीघ्र ही तेरा विनाश होगा, इस में कोई संदेह नहीं हैं।”'' उस यज्ञ अनुष्ठान से '''दधीचि मुनि''' क्रोधित हो चेले गए, उनके साथ'''दुर्वासा, वामदेव, च्यवन एवं गौतम''' आदि ऋषि भी उस अनुष्ठान से चल दिए, क्योंकि वे '''शिव तत्त्व''' के उपासक थे। इन सभी ऋषियों के जाने के पश्चात, उपस्थित ऋषियों से ही यज्ञ को पूर्ण करने का '''दक्ष''' ने निश्चय कर यज्ञ आरंभ किया। परिवार के सदस्यों द्वारा कहने पर भी '''दक्ष''' ने '''सती''' का अपनाम करना बंद नहीं किया, उसका पुण्य क्षीण हो चूका था परिणामस्वरूप, वह '''भगवती आदि शक्ति रूपा 'सती'''' अपमान करता ही जा रहा था।
 
''वहां, '''भगवती आदि शक्ति''' ने विचार किया कि! कभी '''हिमालय पत्नी मेनका''' ने भी उन्हें अपनी पुत्री रूप में प्राप्त करने का वचन माँगा था तथा उन्होंने उन्हें मनोवांछित वर प्रदान भी किया था। आब शीघ्र ही उनके पुत्री रूप में वे जन्म लेंगी इसमें कोई संशय नहीं हैं। '''दक्ष''' के पुण्य क्षीण होने के कारण '''देवी भगवती''' का उसके प्रति आदर भी कम हो गया था। उन्होंने अपनी लीला कर प्रजापति द्वारा उत्पन्न देह तथा स्थान को छोड़ने का निश्चय कर लिया तथा हिमालय राज के घर जन्म ले, पुनः '''शिव''' को पति स्वरूप में प्राप्त करने का निश्चय किया एवं '''दक्ष''' यज्ञ विध्वंस के समय की प्रतीक्षा करने लगी।''
 
== देवर्षि नारद का कैलाश जा शिव जी को उनके श्वसुर गृह में होने वाले अनुष्ठान के बारे में बताना, देवी सती द्वारा अपने पिता दक्ष के अनुष्ठान में जाने हेतु शिव जी से विचार विमर्श कर, स्वेच्छा से जाने का निश्चय करना। ==
सभी देवर्षि गण बड़े उत्साह तथा हर्ष के साथ '''दक्ष''' के यज्ञ में जा रहें थे, '''सती देवी''' गंधमादन पर्वत पर अपनी सखियों के संग क्रीड़ाएँ कर रहीं थीं। उन्होंने '''रोहिणी''' के संग'''चंद्रमा''' को आकाश मार्ग से जाते हुए देखा तथा अपनी सखी '''विजया''' से कहा! ''“जल्दी जाकर पूछ तो आ, ये '''चन्द्र, देव रोहिणी''' के साथ कहा जा रहें हैं?”'' तदनंतर '''विजया, चन्द्र देव''' के पास गई; '''चन्द्र देव''' ने उन्हें '''दक्ष''' के महा-यज्ञ का सारा वृतांत सुनाया। '''विजया, माता सती''' के पास आई और '''चन्द्र देव''' द्वारा जो कुछ कहा गया, वह सब कह सुनाया। यह सुनकर '''देवी सती''' को बड़ा विस्मय हुआ और वे अपने पति '''भगवान शिव''' के पास आयें।
 
इधर, यज्ञ अनुष्ठान से '''देवर्षि नारद, भगवान शिव''' के पास आयें, उन्होंने '''शिव जी''' को बताया कि! ''“दक्ष ने अपने यज्ञ अनुष्ठान में सभी को निमंत्रित किया हैं, केवल मात्र आप दोनों को छोड़ दिया हैं। उस अनुष्ठान में आपको न देख कर मैं दुःखी हुआ तथा आपको बताने आया हूँ की आप लोगों का वह जाना उचित हैं, अविलम्ब आप वहां जाये।''
 
'''भगवान शिव''' ने '''नारद''' से कहा! ''“हम दोनों के वह जाने से कोई विशेष प्रयोजन सिद्ध नहीं होने वाला हैं, प्रजापति जैसे चाहें अपना यज्ञ सम्पन्न करें।”''
 
इस पर '''नारद''' ने कहा ! ''“आप का अपमान करके यदि वह यह यज्ञ पूर्ण कर लेगा तो इसमें आप की अवमानना होगी। यह समझते हुए कृपा कर आप वहाँ चल कर अपना यज्ञ भाग ग्रहण करें, अन्यथा आप उस यज्ञ में विघ्न उत्पन्न करें।"'' 
 
'''भगवान शिव''' ने कहा! ''“'''नारद!''' न ही मैं वहां जाऊंगा और न ही '''सती''' वह जाएँगी, वहाँ जाने पर भी '''दक्ष''' हमें हमारा यज्ञ भाग नहीं देगा।”''
 
'''भगवान शिव''' से इस प्रकार उत्तर पाकर '''नारद जी''' ने '''सती''' से कहा! ''“जगन्माता आप को वहां जाना चाहिये, कोई कन्या अपने पितृ गृह में किसी विशेष आयोजन के बारे में सुन कर कैसे वहाँ नहीं जा सकती हैं? आप की अन्य जितनी बहनें हैं, सभी अपने-अपने पतियों के साथ उस आयोजन में आई हैं। उस '''दक्ष''' ने आपको अभिमान वश नहीं बुलाया हैं, आप उनके इस अभिमान के नाश हेतु कोई उपाय करें। आपके पति-देव '''शिव''' तो परम योगी हैं, इन्हें अपने मान या अपमान की कोई चिंता नहीं हैं, वें तो उस यज्ञ में जायेंगे नहीं और न ही कोई विघ्न उत्पन्न करेंगे।”'' इतना कहकर '''नारद जी''' पुनः यज्ञ सभा में वापस आ गए।
 
'''नारद मुनि''' के वचन सुनकर, '''सती''' ने अपने पति '''भगवान शिव''' से कहा! ''“मेरे पिता '''प्रजापति दक्ष''' विशाल यज्ञ का आयोजन किये हुए हैं, हम दोनों का उस में जाना उचित ही हैं, यदि हम वह गए तो वे हमारा सम्मान ही करेंगे।”''
 
इस पर '''भगवान शिव''' ने कहा ! ''“तुम्हें ऐसे अहितकर बात मन में नहीं सोचना चाहिये, बिन निमंत्रण के जाना मरण के समान ही हैं। तुम्हारे पिता को मेरा विद्याधर कुलो में स्वछंद विचरण करना अच्छा नहीं लगता हैं, मेरे अपमान के निमित्त उन्होंने इस यज्ञ का आयोजन किया हैं। मैं जाऊं या तुम दोनों का वहाँ पर कोई सम्मान नहीं होगा, यह तुम समझ लो। श्वसुर गृह में जामाता अधिक से अधिक सम्मान की आशा रखता हैं, यदि वहां जाने से अपमान होता हैं तो वह मृत्यु से भी बढ़ कर कष्टदायक होगा। अतः मैं तुम्हारे पिता के यहाँ नहीं जाऊंगा, वहां मेरा जाना तुम्हारे पिता को प्रिय नहीं लगेगा, तुम्हारे पिता मुझे दिन-रात, दिन-हीन तथा दरिद्र और दुःखी कहते रहते हैं, बिन बुलाये वह जाने पर वे और अधिक कटु-वचन कहने लगेंगे। अपमान हेतु कौन बुद्धिमान श्वसुर गृह जाना उचित समझता हैं? बिना निमंत्रण के हम दोनों का वहां जाना कदापि उचित नहीं हैं।"''
 
'''भगवान शिव''' द्वारा समझाने पर भी '''सती''' नहीं मानी और कहने लगी! ''“आप ने जो भी कहाँ वह सब सत्य हैं, परन्तु ऐसा भी तो हो सकता हैं की वहां हमारे जाने पर वे हमारा यथोचित सम्मान करें।”''
 
'''भगवान शिव''' ने '''सती''' से कहा! ''“तुम्हारे पिता ऐसे नहीं हैं, वे हमारा सम्मान नहीं करेंगे, मेरा स्मरण आते ही दिन-रात वे मेरी निंदा करते हैं, यह केवल मात्र तुम्हारा भ्रम ही हैं।”''
 
'''सती''' ने कहा! ''“आप जाये या न जाये यह आपकी रुचि हैं, आप मुझे आज्ञा दीजिये मैं अपने पिता के घर जाऊंगी, पिता के घर जाने हेतु कन्या को आमंत्रण-निमंत्रण की आवश्यकता नहीं होती हैं। वहां यदि मेरा सम्मान हुआ तो मैं पिताजी से कहकर आप को भी यज्ञ भाग दिलाऊँगी और यदि पिता जी ने मेरे सनमुख आप की निंदा की तो उस यज्ञ का विध्वंस कर दूंगी।”''
 
'''शिव जी''' ने पुनः '''सती''' से कहा! ''“तुम्हारा वहां जाना उचित नहीं हैं, वहां तुम्हारा सम्मान नहीं होगा, पिता द्वारा की गई निंदा तुम सहन नहीं कर पाओगी, जिसके कारण तुम्हें प्राण त्याग करना पड़ेगा, तुम अपने पिता का क्या अनिष्ट करोगी?”''
 
इस पर '''सती''' ने क्रोध युक्त हो, अपने पति '''भगवान शिव''' से कहा! ''“अब आप मेरी भी सुन लीजिये, मैं अपने पितृ-गृह जाऊंगी, फिर आप मुझे आज्ञा दे या न दे।”'' जिस से'''भगवान शिव''' भी क्रुद्ध हो गए और उन्होंने '''सती''' के अपने पिता के यहाँ जाने का वास्तविक प्रयोजन पूछा! अगर उन्हें आपने पति की निंदा सुनने का कोई प्रयोजन नहीं हैं तो वे क्यों ऐसे पुरुष के गृह जा रही हैं? जहाँ उनकी सर्वथा निंदा होती हो। इस पर '''सती''' ने कहा ! ''“मुझे आपकी निंदा सुनने में कोई रुचि नहीं हैं और न ही मैं आपके निंदा करने वाले के घर जाना चाहती हूँ। वास्तविकता तो यह हैं, यदि आपका प्रकार अपमान कर, मेरे पिताजी इस यज्ञ को सम्पूर्ण कर लेते हैं तो भविष्य में हमारे ऊपर कोई श्रद्धा नहीं रखेगा और न ही हमारे निमित्त आहुति ही डालेगा। आप आज्ञा दे या न दे, में वहां जा कर यथोचित सम्मान न पाने पर यज्ञ का विध्वंस कर दूंगी।”''
 
'''भगवान शिव''' ने कहा! '''''“मेरे इतने समझाने पर भी आप आज्ञा से बहार होती जा रही हैं, आप की जो इच्छा हो वही करें, आप मेरे आदेश की प्रतीक्षा क्यों कर रहीं हैं?'''''
 
== दक्ष-कन्या सती का क्रोधित हो शिव जी को अपना भयंकर रूप दिखाना तथा डर कर भागते हुए शिव को अपने दस अवतारों या महाविद्याओं द्वारा रोकना। ==
'''शिव जी''' के ऐसा कहने पर '''दक्ष-पुत्री सती देवी''' अत्यंत क्रुद्ध हो गई, उन्होंने सोचा! '''''“जिन्होंने कठिन तपस्या करने के पश्चात मुझे प्राप्त किया था आज वो मेरा ही अपमान कर रहें हैं, अब मैं इन्हें अपना वास्तविक प्रभाव दिखाऊंगी।"'''''
 
'''भगवान शिव''' ने देखा की '''सती''' के होंठ क्रोध से फड़क रहे हैं तथा नेत्र प्रलयाग्नि के समान लाल हो गए हैं, जिसे देखकर भयभीत उन्होंने अपने नेत्रों को मूंद लिया। '''सती'''ने सहसा घोर अट्टहास किया, जिसके कारण उनके मुंह में लंबी-लम्बी दाढ़े दिखने लगी, जिसे सुनकर '''शिव जी''' अत्यंत हतप्रभ हो गए। कुछ समय पश्चात उन्होंने जब अपनी आंखों को खोला तो, सामने देवी का भीम आकृति युक्त भयानक रूप दिखाई दे रहा था, '''देवी वृद्धावस्था के समान वर्ण वाली हो गई थीं, उनके केश खुले हुए थे, जिह्वा मुख से बहार लपलपा रहीं थीं, उनकी चार भुजाएं थीं। उनके देह से प्रलयाग्नि के समान ज्वालाएँ निकल रही थीं, उनके रोम-रोम से स्वेद निकल रहा था, भयंकर डरावनी चीत्कार कर रहीं थीं तथा आभूषणों के रूप में केवल मुंड-मालाएं धारण किये हुए थीं। उनके मस्तक पर अर्ध चन्द्र शोभित था, शरीर से करोड़ों प्रचंड आभाएँ निकल रहीं थीं, उन्होंने चमकता हुआ मुकुट धारण कर रखा था।''' इस प्रकार के घोर भीमाकार भयानक रूप में, अट्टहास करते हुए देवी, '''भगवान शिव''' के सनमुख खड़ी हुई। उन्हें इस प्रकार देख कर '''भगवान शंकर''' ने भयभीत हो भागने का मन बनाया, वे हतप्रभ हो इधर उधर दौड़ने लगे। '''सती''' देवी ने भयानक अट्टहास करते हुए, निरुद्देश्य भागते हुए '''भगवान शिव''' से कहाँ! आप मुझसे डरिये नहीं! परन्तु '''भगवान शिव''' डर के मारे इधर उधर भागते रहें। इस प्रकार भागते हुए अपने पति को देखकर, दसो दिशाओं में देवी अपने ही दस अवतारों में खड़ी हो गई। '''शिव जी''' जिस भी दिशा की ओर भागते, वे अपने एक अवतार में उनके सनमुख खड़ी हो जाती। इस तरह भागते-भागते जब '''भगवान शिव''' को कोई स्थान नहीं मिला तो वे एक स्थान पर खड़े हो गए। इसके पश्चात उन्होंने जब अपनी आंखें खोली तो अपने सामने मनोहर मुख वाली श्यामा देवी को देखा। '''उनका मुख कमल के समान खिला हुआ था, वे निर्वस्त्र थीं, दोनों पयोधर स्थूल तथा आंखें भयंकर एवं कमल के समान थीं। उनके केश खुले हुए थे, देवी करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाशमान थीं, उनकी चार भुजाएं थीं, वे दक्षिण दिशा में सामने खड़ी थीं।'''
 
देवी का अपने पति भगवान शिव को अपने दस महाविद्याओं या शक्तियों से परिचय करवाना।
 
अत्यंत भयभीत हो '''भगवान शिव''' ने उन देवी से पूछा! ''“आप कौन हैं, मेरी प्रिय '''सती''' कहा हैं?”''
 
'''सती''' ने '''शिव जी''' से कहा! ''“आप मुझ '''सती''' को नहीं पहचान रहें हैं? '''काली, तारा, त्रिपुरसुंदरी, भुवनेश्वरी, छिन्नमस्ता, बगलामुखी, धूमावती, मातंगी एवं कमला,''' ये सब मेरे ही नाना नाम हैं।"'' '''भगवान शिव''' द्वारा उन नाना देवियों का परिचय पूछने पर देवी ने कहा ! ''“ये जो आप के सनमुख भीमाकार देवी हैं इनका नाम '''‘काली’''' हैं, ऊपर की ओर जो श्याम-वर्ना देवी खड़ी हैं वह '''‘तारा’''' हैं, आपके दक्षिण में जो मस्तक-विहीन अति भयंकर देवी खड़ी हैं वह '''‘छिन्नमस्ता’''' हैं, आपके उत्तर में जो देवी खड़ी हैं वह'''‘भुवनेश्वरी’''' हैं, आपके पश्चिम दिशा में जो देवी खड़ी हैं वह शत्रु विनाशिनी '''‘बगलामुखी’''' देवी हैं, विधवा रूप में आपके आग्नेय कोण में '''‘धूमावती’''' देवी खड़ी हैं, आपके नैऋत्य कोण में देवी '''<nowiki/>'त्रिपुरसुंदरी'<nowiki/>''' खड़ी हैं, आप के वायव्य कोण में जो देवी हैं वह '''<nowiki/>'मातंगी'<nowiki/>''' हैं, आपके ईशान कोण में जो देवी खड़ी हैं वह '''‘कमला’''' हैं तथा आपके सामने भयंकर आकृति वाली जो मैं '''‘भैरवी’''' खड़ी हूँ। अतः आप इनमें किसी से भी न डरें। यह सभी देवियाँ '''महाविद्याओं''' की श्रेणी में आती हैं, इनके साधक या उपासक पुरुषों को चतुर्वर्ग (धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष) तथा मनोकामनाएँ पूर्ण करने वाली हैं। आज मैं अपने पिता का अभिमान चूर्ण करने हेतु जाना चाहती हूँ, यदि आप न जाना चाहें तो मुझे ही आज्ञा दें।"''
 
'''भगवान शिव''' ने '''सती''' से कहा! ''“मैं अब आप को पूर्ण रूप से जान पाया हूँ, अतः पूर्व में प्रमाद या अज्ञान वश मैंने आपके विषय में जो भी कुछ अनुचित कहा हो, उसे क्षमा करें। आप '''आद्या परा विद्या हैं, सभी प्राणियों में आप व्याप्त हैं तथा स्वतंत्र परा-शक्ति हैं, आप का नियन्ता तथा निषेधक कौन हो सकता हैं?''' आप को रोक सकूँ मुझमें ऐसा सामर्थ्य नहीं हैं, इस विषय में आपको जो अनुचित लगे आप वही करें।”''
 
इस प्रकार '''भगवान शिव''' के कहने पर '''देवी''' उनसे बोलीं ! '''''“हे महेश्वर! सभी प्रमथ गणो के साथ आप यही कैलाश में ठहरे, मैं अपने पिता के यहाँ जा रही हूँ।”''''' '''शिव जी''' को यह कह वह ऊपर खड़ी हुई '''तारा''' अकस्मात् एक रूप हो गई तथा अन्य अवतार अंतर्ध्यान हो गए, देवी ने प्रमथों को रथ लाने का आदेश दिया। वायु वेग से सहस्रों सिंहों से जुती हुई मनोरम देवी-रथ, जिसमें नाना प्रकार के अलंकार तथा रत्न जुड़े हुए थे, प्रमथ प्रधान द्वारा लाया गया। वह भयंकर रूप वाली '''काली देवी (भैरवी)''' उस विशाल रथ में बैठ कर आपने पितृ गृह को चली, '''नंदी''' उस रथ के सारथी थे, इस कारण '''भगवान शिव''' को सहसा धक्का सा लगा।
 
== सती का अपने पिता दक्ष के यहाँ गमन, उनके भयंकर रूप को देख सभी देवताओं का भय से व्याकुल होना, पति निंदा के कारण पितृ हत्या के पाप से बचने हेतु अपनी ही छाया को प्रकट कर उन्हें यज्ञ में कूद जाने की आज्ञा देना तथा वीर-भद्र द्वारा दक्ष यज्ञ विध्वंस। ==
'''दक्ष यज्ञ मंडप''' में उस भयंकर रूप वाली देवी को देख कर सभी चंचल हो उठे, सभी भय से व्याकुल हो गए। सर्वप्रथम भयंकर रूप वाली देवी अपनी माता के पास गई, बहुत काल पश्चात आई हुई अपनी पुत्री को देख कर '''दक्ष-पत्नी प्रसूति''' बहुत प्रसन्न हुई तथा देवी से बोलीं! ''“तुम्हें आज इस घर में देख कर मेरा शोक समाप्त हो गया हैं, तुम स्वयं आद्या शक्ति हो। तुम्हारे दुर्बुद्धि पिता ने तुम्हारे पति '''शिव''' की महिमा को न समझते हुए, उनसे द्वेष कर, यहाँ यज्ञ का योजन कर रहें हैं जिसमें तुम्हें तथा तुम्हारे पति को निमंत्रित नहीं किया गया हैं। इस विषय में हम सभी परिवार वालों तथा बुद्धिमान ऋषियों ने उन्हें बहुत समझाया, परन्तु वे किसी की न माने।"''
 
'''सती''' ने अपनी माता से कहा! ''“मेरे पति '''भगवान शिव''' का अनादर करने के निमित्त उन्होंने ये यज्ञ तो प्रारंभ कर लिया हैं, परन्तु मुझे यह नहीं लगता हैं की यह यज्ञ निर्विघ्न समाप्त होगा।"'' उनकी माता ने भी उन्हें ब्रह्म मुहूर्त में आयें हुए स्वप्न से अवगत कराया, जिसमें उन्होंने देखा की इस यज्ञ का विध्वंस, शिव गणो द्वारा हो गया हैं। इसके पश्चात '''सती''' अपनी माता को प्रणाम कर, अपने पिता के पास यज्ञ स्थल पर गई।
 
उन भयंकर '''काली देवी''' को देख कर '''दक्ष''' सोचने लगा! ''“यह कैसी अद्भुत बात हैं पहले तो '''सती''' स्वर्ण के वर्ण वाली गौर शरीर, सौम्य तथा सुन्दर थीं, आज वह श्याम वर्ण वाली कैसी हो गए हैं! '''सती''' इतनी भयंकर क्यों लग रही हैं? इसके केश क्यों खुले हैं? क्रोध से इसके नेत्र लाल क्यों हैं? इसकी दाड़ें इतनी भयंकर क्यों लग रहीं हैं? इसने अपने शरीर में चीते का चर्म क्यों लपेट रखा हैं? इसकी चार भुजाएँ क्यों हो गई हैं? इस भयानक रूप में वह इस देव सभा में कैसे आ गई? '''सती''' ऐसे क्रुद्ध लग रही थीं मानो वह क्षण भर में समस्त जगत का भक्षण कर लेगी। इसका अपमान कर हमने यह यज्ञ आयोजन किया हैं, मानो वह इसी का दंड देने हेतु यहाँ आई हो। प्रलय-काल में जो इन '''ब्रह्मा जी''' एवं '''विष्णु''' का भी संहार करती हैं, वह इस साधारण यज्ञ का विध्वंस कर दे तो '''ब्रह्मा जी''' तथा '''विष्णु''' क्या कर पाएंगे?”''
 
'''सती''' की इस भयंकर रूप को देख कर सभी यज्ञ-सभा में भय से कांप उठे, उन्हें देख कर सभी अपने कार्यों को छोड़ते हुए स्तब्ध हो गए। वहाँ बैठे अन्य देवता, '''दक्ष प्रजापति''' के भय से उन्हें प्रणाम नहीं कर पायें। समस्त देवताओं की ऐसी स्थिति देखकर, क्रोध से जलते नेत्रों वाली काली देवी से '''दक्ष''' ने कहा! ''“तू कौन हैं निर्लज्ज? किसकी पुत्री हैं? किसकी पत्नी हैं? यहाँ किस उद्देश्य से आई हैं? तू '''सती''' की तरह दिख रही हैं क्या तू वास्तव में शिव के घर आई मेरी कन्या '''सती''' हैं ?”''
 
इस पर '''सती''' ने कहा! ''“अरे पिताजी, आपको क्या हुआ हैं? आप मुझे क्यों नहीं पहचान पा रहें हैं? आप मेरे पिता हैं और मैं आपकी पुत्री '''सती''' हूँ, मैं आपको प्रणाम करती हूँ।”''
 
'''दक्ष''' ने '''सती''' से कहा! ''“पुत्री तुम्हारी यह क्या अवस्था हो गई हैं? तुम तो गौर वर्ण की थीं, दिव्य वस्त्र धारण करती थीं और आज तुम बिना वस्त्र धारण किये (चीते का चर्म पहने) भरी सभा में क्यों आई हो? तुम्हारे केश क्यों खुले हैं? तुम्हारे नेत्र इतने भयंकर क्यों प्रतीत हो रहें हैं? क्या '''शिव''' जैसे अयोग्य पति को पाकर तुम्हारी यह दशा हो गई हैं? या तुम्हें मैंने इस यज्ञ अनुष्ठान में नहीं आमंत्रित किया इसके कारण तुम अप्रसन्न हो? केवल '''शिव पत्नी''' होने के कारण मैंने तुम्हें इस यज्ञ में निमंत्रित नहीं किया हैं, ऐसा नहीं हैं की तुमसे मेरा स्नेह नहीं हैं, तुमने अच्छा ही किया जो तुम स्वयं चली आई। तुम्हारे निमित्त नाना अलंकार-वस्त्र इत्यादि रखे हुए हैं, इन्हें तुम स्वीकार करो! तुम तो मुझे अपने प्राणों की तरह प्रिय हो। कही तुम '''शिव''' जैसे अयोग्य पति पाकर दुःखी तो नहीं हो?”''
 
इस पर '''शिव जी''' के सम्बन्ध में कटुवचन सुनकर '''सती''' के सभी अंग प्रज्वलित हो उठे और उन्होंने सोचा; ''“सभी देवताओं के साथ अपने पिता को यज्ञ सहित भस्म करने का मुझ में पर्याप्त सामर्थ्य हैं; परन्तु पितृ हत्या के भय से मैं ऐसा नहीं कर पा रहीं हूँ, परन्तु इन्हें सम्मोहित तो कर सकती हूँ।”''
 
ऐसा सोचकर सर्वप्रथम उन्होंने अपने समान आकृति वाली '''छाया-सती''' का निर्माण किया तथा उनसे कहा! ''“तू इस यज्ञ का विनाश कर दे। मेरे पिता के मुंह से '''शिव''' निंदा की बातें सुनकर, उन्हें नाना प्रकार की बातें कहना तथा अंततः इस प्रज्वलित अग्नि कुंड में अपने शरीर की आहुति दे देना। तुम पिताजी के अभिमान का इसी क्षण मर्दन कर दो, इसका समाचार जब '''भगवान शिव''' को प्राप्त होगा तो वे अवश्य ही यहाँ आकर इस यज्ञ का विध्वंस कर देंगे।”'' '''छाया सती''' से इस प्रकार कहकर, आदि शक्ति देवी स्वयं वहां से अंतर्ध्यान हो आकाश में चली गई।
 
'''छाया सती ने दक्ष को चेतावनी दी कि! वह देव सभा में बैठ कर शिव निंदा न करें नहीं तो वह उनकी जिह्वा हो काट कर फेंक देंगी।''' 
 
'''दक्ष''' ने अपनी कन्या से कहा! ''“मेरे सनमुख कभी उस '''शिव''' की प्रशंसा न करना, में उस दुराचारी >श्मशान में रहने वाली, भूत-पति एवं बुद्धि-विहीन तेरे पति को अच्छी तरह जनता हूँ। तू अगर उसी के पास रहने में अपना सब सुख मानती हैं, तो तू वही रह! तू मेरे सामने उस भूत-पति भिक्षुक की स्तुति क्यों कर रही हैं?”''
 
'''छाया-सती''' ने कहा! ''“मैं आप को पुनः समझा रहीं हूँ, अगर अपना हित चाहते हो तो यह पाप-बुद्धि का त्याग करें तथा '''भगवान शिव''' की सेवा में लग जाए। यदि प्रमाद-वश अभी भी '''भगवान शंकर''' की निंदा करते रहें तो वह यहाँ आकर इस यज्ञ सहित आप को विध्वस्त कर देंगे।”''
 
इस पर '''दक्ष''' ने कहा! ''“कुपुत्री, तू दुष्ट हैं! तू मेरे सामने से दूर हट जा। तेरी मृत्यु तो मेरे लिए उसी दिन हो गई थीं, जिस दिन तूने '''शिव''' का वरन किया था, अब बार-बार मुझे अपने पति का स्मरण क्यों करा रही हैं? तेरा दुर्भाग्य हैं की तुझे निकृष्ट पति मिला हैं, तुझे देख कर मेरा शरीर शोकाग्नि से संतप्त हो रहा हैं। हे दुरात्मिके! तू मेरी आंखों के सामने से दूर हो जा और अपने पति का व्यर्थ गुणगान न कर।”''
 
'''दक्ष''' के इस प्रकार कहने पर '''छाया सती''' क्रुद्ध को भयानक रूप में परिवर्तित हो गई। उनका शरीर प्रलय के मेघों के समान काला पड़ गया था, तीन नेत्र क्रोध के मारे लाल अंगारों के समान लग रहे थे। उन्होंने अपना मुख पूर्णतः खोल दिया था, केश खुले पैरो तक लटक रहें थे। घोर क्रोध युक्त उस प्रदीप्त शरीर वाली '''सती''' ने अट्टहास करते हुए '''दक्ष''' से गंभीर वाणी में कहा! ''“आब में आप से दूर नहीं जाऊंगी, अपितु आप से उत्पन्न इस शरीर को शीघ्र ही नष्ट कर दूंगी।”'' देखते ही देखते वह '''छाया-सती''' क्रोध से लाल नेत्र कर, उस प्रज्वलित यज्ञकुंड में कूद गई। उस क्षण पृथ्वी कांपने लगी तथा वायु भयंकर वेग से बहने लगी, पृथ्वी पर उल्का-पात होने लगा। यज्ञ अग्नि की अग्नि बुझ गई, वह उपस्थित ब्राह्मणों ने नाना प्रयास कर पुनः जैसे-तैसे यज्ञ को आरंभ किया।
 
जैसे ही '''शिव जी''' के ६० हजार प्रमथों ने देखा की '''सती''' ने यज्ञ कुंड में अपने प्राणों की आहुति दे दी, वे सभी अत्यंत रोष से भर गए। २० हजार '''प्रमथ गणो''' ने '''सती''' के साथ ही प्राण त्याग दिए, बाकी बचे हुए '''प्रमथ गणो ने दक्ष''' को मरने हेतु अपने अस्त्र-शास्त्र उठायें। उन आक्रमणकारी '''प्रमथों''' को देख कर '''भृगु''' ने यज्ञ में विघ्न उत्पन्न करने वालों के विनाश हेतु '''यजुर्मंत्र से दक्षिणाग्नि''' में आहुति दी। जिस से यज्ञ से '''''<nowiki/>'ऋभु नाम'''''' के सहस्रों देवता प्रकट हुए, उन सब के हाथों में जलती हुई लकड़ियाँ थीं। उन'''ऋभुयों''' के संग प्रमथ गणो का भयंकर युद्ध हुआ, जिसमें उन '''प्रमथ गणो''' की हार हुई। यह सब देख वहां पर उपस्थित सभी '''देवता, ऋषि, मरुद्गणा, विश्वेदेव, लोकपाल'''इत्यादि सभी चुप रहें। वहां उपस्थित सभी को यह आभास हो गया था की, वहां कोई विकट विघ्न उत्पन्न होने वाला हैं, उनमें से कुछ एक ने '''भगवान विष्णु''' से विघ्न के समाधान करने हेतु कोई उपाय करने हेतु कहा। इस पर वहाँ उपस्थित सभी अत्यधिक भयभीत हो गए और '''शिव''' द्वारा उत्पन्न होने वाले विध्वंसात्मक प्रलय स्थित की कल्पना करने लगे। तदनंतर, वहां से '''मुनिराज नारद''' कैलाश को गमन कर गये।
 
==== भगवान शिव द्वारा वीरभद्र तथा महा-काली को प्रकट कर उन्हें दक्ष के यज्ञ का विध्वंस कर उनकी वध करने की आज्ञा दी। ====
'''मुनिराज नारद''' ने कैलाश जाकर भगवान से कहा! ''“महेश्वर आप को प्रणाम हैं! आप की प्राणप्रिय '''सती''' ने अपने पिता के घर आप की निंदा सुनकर क्रोध-युक्त हो यज्ञकुंड में अपने देह का त्याग कर दिया तथा यज्ञ पुनः आरंभ हो गया हैं, देवताओं ने आहुति लेना प्रारंभ कर दिया हैं।” '''भृगु''' के मन्त्र बल के प्रताप से जो प्रमथ बच गए थे, वे सभी '''भगवान शिव''' के पास गए और उन्होंने उन्हें उपस्थित परिस्थिति से अवगत करवाया।''
 
'''नारद तथा प्रमथ गणो''' से यह समाचार सुनकर '''भगवान शिव''' शोक प्रकट करते हुए रुदन करने लगे, वे घोर विलाप करने लगे तथा मन ही मन सोचने लगे! ''“मुझे इस शोक-सागर में निमग्न कर तुम कहा चली गई? अब मैं कैसे अपना जीवन धारण करूँगा? इसी कारण मैंने तुम्हें वहाँ जाने हेतु मना किया था, परन्तु तुम अपना क्रोध प्रकट करते हुए वहाँ गई तथा अंततः तुमने देह त्याग कर दिया।”'' इस प्रकार के नाना विलाप करते हुए उन '''शिव''' के मुख तथा नेत्र क्रोध से लाल हो गए तथा उन्होंने रौद्र रूप धारण कर लिया। उनके रुद्र रूप से पृथ्वी के जीव ही क्या स्वयं पृथ्वी भी भयभीत हो गई। '''भगवान रुद्र''' ने अपने सर से एक जटा उखड़ी और उसे रोष पूर्वक पर्वत के ऊपर दे मारा, इसके साथ ही उनके ऊपर के नेत्रों से एक बहुत चमकने वाली अग्नि प्रकट हुई। उनके जटा के पूर्व भाग से महा-भयंकर,'''‘वीरभद्र’''' प्रकट हुए तथा जटा के दूसरे भाग से '''‘महाकाली’''' उत्पन्न हुई, जो घोर भयंकर दिखाई दे रहीं थीं।
 
'''<nowiki/>'वीरभद्र'''' में प्रलय-काल के मृत्यु के समान विकराल रूप धारण किया, जिससे तीन नेत्रों से जलते हुए अंगारे निकल रहे थे, उनके समस्त शरीर से भस्म लिपटी हुई थीं, मस्तक पर जटाएं शोभित हो रहीं थीं। उसने '''भगवान शिव''' को प्रणाम कर तीन बार उनकी प्रदक्षिणा की तथा हाथ जोड़ कर बोला! ''“मैं क्या करूँ आज्ञा दीजिये? आप अगर आज्ञा दे तो मैं इंद्र को भी आप के सामने ले आऊँ, फिर भले ही '''भगवान विष्णु''' उनकी सहायतार्थ क्यों न आयें।”''
 
'''भगवान शिव''' ने '''वीरभद्र''' को अपने प्रमथों का प्रधान नियुक्त कर, शीघ्र ही '''दक्ष''' पुरी जाकर यज्ञ विध्वंस तथा साथ ही '''दक्ष''' का वध करने की भी आज्ञा दी। '''भगवान शिव''' ने उस '''वीरभद्र''' को यह आदेश देकर, अपने निश्वास से हजारों गण प्रकट किये। वे सभी भयंकर कृत्य वाले तथा युद्ध में निपुण थे, किसी के हाथ में तलवार थीं तो किसी के हाथ में गदा, कोई मूसल, भाला, शूल इत्यादि अस्त्र उठाये हुए थे। वे सभी '''भगवान शिव''' को प्रणाम कर '''वीरभद्र तथा महा-काली''' के साथ चल दिए और शीघ्र ही '''दक्ष'''-पुरी पहुँच गए।
 
== वीरभद्र, महाकाली तथा प्रमथ गणो द्वारा दक्ष यज्ञ विध्वंस तथा दक्ष वध। ==
'''काली, कात्यायनी, ईशानी, चामुंडा, मुंडनर्दिनी, भद्र-काली, भद्र, त्वरिता तथा वैष्णवी,''' इन नौ-दुर्गाओं के संग '''महाकाली, दक्ष''' के विनाश करने हेतु चली। उनके संग नाना''डाकिनियाँ, शकिनियाँ, भूत, प्रमथ, गुह्यक, कुष्मांड, पर्पट, चटक, ब्रह्म-राक्षस, भैरव तथा क्षेत्र-पाल'' आदि सभी वीर '''भगवान शिव''' की आज्ञानुसार '''दक्ष यज्ञ''' के विनाश हेतु चले। इस प्रकार जब '''वीरभद्र, महाकाली''' के संग इन समस्त वीरों ने प्रस्थान किया, तब '''दक्ष''' के यह देवताओं को नाना प्रकार के विविध उत्पात तथा अपशकुन होने लगे। '''वीरभद्र के दक्ष यज्ञ''' स्थल में पहुँच कर समस्त प्रमथों को आज्ञा दी ! ''“यज्ञ को तत्काल विध्वस्त कर समस्त देवताओं को यहाँ से भगा दो",'' इसके पश्चात सभी प्रमथ गण यज्ञ विध्वंसक कार्य में लग गए।
 
==== भयभीत दक्ष द्वारा भगवान विष्णु से यज्ञ की संरक्षा हेतु प्रार्थना करना। ====
इस कारण '''दक्ष''' बहुत भयभीत हो गए और उन्होंने यज्ञ संरक्षक '''भगवान विष्णु''' से यज्ञ की रक्षा हेतु कुछ उपाय करने का निवेदन किया। '''भगवान विष्णु''' ने '''दक्ष''' को बताया कि! उससे बहुत बड़ी भूल हो गई हैं, उन्हें तत्व का ज्ञान नहीं हैं, इस प्रकार उन्हें '''देवाधिदेव''' की अवहेलना नहीं करनी चाहिये थीं। उपस्थित संकट को टालने में कोई भी सक्षम नहीं हैं। '''शत्रु-मर्दक वीरभद्र, भगवान रुद्र''' के क्रोधाग्नि से प्रकट हुए हैं, इस समय वे सभी रुद्र गणो के नायक हैं एवं अवश्य ही इस यज्ञ का विध्वंस कर देंगे। इस प्रकार '''भगवान विष्णु''' के वचन सुनकर '''दक्ष''' घोर चिंता में डूब गए। तदनंतर, शिव गणो के साथ देवताओं का घोर युद्ध प्रारंभ हुआ, उस युद्ध में देवता पराजित हो भाग गए। शिव गणो ने यज्ञ स्तूपों को उखाड़ कर दसों दिशाओं में फेंका और हव्य पात्रों को फोड़ दिया, प्रमथों ने देवताओं को प्रताड़ित करना प्रारंभ कर दिया तथा उन्होंने देखते ही देखते उस यज्ञ को पूर्णतः विध्वस्त कर दिया।
 
इस पर '''भगवान विष्णु''' ने प्रमथों से कहा! ''“आप लोग यहाँ क्यों आयें हैं? आप लोग कौन हैं? शीघ्र बताइये।"''
 
इस पर '''वीरभद्र''' ने कहा ! ''“हम लोग '''भगवान शिव''' की अवमानना करने के कारण इस यज्ञ को विध्वंस करने हेतु भेजे गए हैं।”'' '''वीरभद्र''' ने प्रमथों को आदेश दिया कि! कही से भी उस दुराचारी '''शिव''' से द्वेष करने वाले '''दक्ष''' को पकड़ लायें। इस पर प्रमथ गण '''दक्ष''' को इधर उधर ढूंढने लगे, उनके रास्ते में जो भी आया उन्होंने उसे पकड़ कर मारा-पिटा। '''प्रमथों ने पूषा को पकड़ कर उसके दांत तोड़ दिए और अग्नि-देवता को बलपूर्वक पकड़ कर जिह्वा काट डाली, अर्यमा की बाहु काट दी गई, अंगीरा ऋषि के ओष्ट काट डाले, भृगु ऋषि की दाड़ी नोच ली।''' उन प्रमथों ने वेद-पाठी ब्राह्मणों को कहा! आप लोग डरे नहीं और यहाँ से चले जाइए, अपने आप को अधिक बुद्धिमान समझने वाला '''देवराज इंद्र''' मोर का भेष बदल उड़कर वह से एक पर्वत पर जा छिप बैठ गया और वही से सब घटनाएँ देखने लगा।
 
उन प्रमथ गणो द्वारा इस प्रकार उत्पात मचने पर '''भगवान विष्णु''' ने विचार किया! ''“मंदबुद्धि '''दक्ष''' ने शिव से द्वेष वश इस यज्ञ का आयोजन किया, उसे अगर इसका फल न मिला तो वेद-वचन निष्फल हो जायेगा। '''शिव''' से द्वेष होने पर मेरे साथ भी द्वेष हो जाता हैं, मैं ही विष्णु हूँ और मैं ही शिव! हम दोनों में कोई भेद नहीं हैं। शिव का निंदक मेरा निंदक हैं, विष्णु रूप में मैं इसका रक्षक बनूँगा तथा शिव रूप में इसका नाशक। अतः मैं कृत्रिम भाव से दिखने मात्र के लिए युद्ध करूँगा और अन्तः में हार मान कर'''रुद्र''' रूप में उसका संहार करूँगा।”'' यह संकल्प कर उन '''शंख चक्र धारी भगवान विष्णु''' ने प्रमथों द्वारा किये जा रहे कार्य को रोका, इस पर '''वीरभद्र''' ने '''विष्णु''' से कहा! ''“सुना हैं आप इस महा-यज्ञ के रक्षक हैं, आप ही बताये वह दुराचारी, शिव निंदक '''दक्ष''' इस समय कहाँ छिपा बैठा हैं? या तो आप स्वयं उसे लाकर मुझे सौंप दीजिये या मुझ से युद्ध करें। आप तो परम शिव भक्त हैं, परन्तु आज आप भी शिव के द्वेषी से मिल गए हैं।”''
 
'''भगवान विष्णु''' ने '''वीरभद्र''' से कहा! ''“आज मैं तुम से युद्ध करूँगा, मुझे युद्ध में जीतकर तुम '''दक्ष''' को ले जा सकते हो, आज मैं तुम्हारा बल देखूंगा।”'' यह कहा कर '''भगवान विष्णु''' ने गणो पर धनुष से बाणों की वर्षा की जिसके कारण बहुत से गण क्षत-विक्षत होकर मूर्छित हो गिर पड़े। इसके पश्चात '''भगवान विष्णु''' तथा '''वीरभद्र''' में युद्ध हुआ, दोनों ने एक दूसरे पर गदा से प्रहार किया, दोनों में नाना अस्त्र-शस्त्रों से महा घोर युद्ध हुआ। '''वीरभद्र तथा विष्णु''' के घोर युद्ध के समय आकाशवाणी हुई ''“'''वीरभद्र!''' युद्ध में क्रुद्ध हो तुम आपने आप को क्यों भूल रहे हो? तुम जानते नहीं हो की जो विष्णु है वही शिव हैं, इनमें किसी प्रकार का भेद नहीं हैं।"''
 
तदनंतर, '''वीरभद्र''' ने '''भगवान विष्णु''' को प्रणाम किया तथा '''दक्ष''' को पकड़ कर बोला ''“प्रजापति! जिस मुख से तुमने '''भगवान शिव''' की निंदा की हैं मैं उस मुख पर ही प्रहार करूँगा। '''वीरभद्र''' ने '''दक्ष''' के मस्तक को उसके देह से अलग कर दिया तथा अग्नि में मस्तक की आहुति दे दी एवं जो शिव निंदा सुनकर प्रसन्न होते थे उनके भी जिह्वा और कान कट डाले।''
 
== दक्ष के शिव जी से घृणा करने के अन्य कारण तथा सती प्रथा। ==
एक बार एक देव सभा में '''दक्ष''' के पधारने पर, वहां पहले से ही बैठे '''भगवान शिव''' ने उनका सत्कार नहीं किया, परन्तु वह उपस्थित समस्त देवताओं ने उनका हाथ जोड़ वंदन किया। इस पर '''दक्ष''' क्रुद्ध हो गए, वे ससुर या पिता सामान थे, वे मानते थे कि! उचित तो यह था की '''शिव''' अपने पिता के समान श्वसुर को प्रणाम कर उनका आशीर्वाद लें।
 
कल्प के आदि में '''शिव जी''' के द्वारा, '''दक्ष''' के पिता '''ब्रह्मा जी''' का एक मस्तक कट गया था, वे पांच मस्तकों से युक्त थे, अतः '''शिव जी''' को '''दक्ष''' ब्रह्म हत्या का दोषी मानते थे।
 
सती धर्म या प्रथा
 
'''सती द्वारा अपने आप को यज्ञ में आहुति देने के कारण, 'सती महिमा' का प्रचार हुआ। जो स्त्रियाँ, अपने पति के मृत्यु के पश्चात अपने पति के चिता संग जल कर देह त्याग कर देती थी, उसे साक्षात् 'सती' माना जाने लगा। इस तरह मृत पति के साथ चिता में बैठ, स्वयं जल जाने ने एक प्रथा को जन्म दिया, “सती प्रथा” अपने पति के सम्मान में विधवा हुई स्त्री सर्वोच्च बलिदान देते हुए, सती होने लगी। परन्तु यह विधवा के इच्छानुसार ही संभव था, स्व इच्छा अनुसार विधवा अगर चाहे तभी वह सती हो सकती थी या कहे तो अपने जीवन का त्याग कर सकती थी, अन्यथा नहीं। किसी भी प्रकार के बल द्वारा विधवा सती करना हिन्दू-धर्म के विरुद्ध हैं, अन्याय हैं। परन्तु, एक समय सती प्रथा का घोर दुरुपयोग होने लगा, बल पूर्वक विधवा स्त्री को उसके पति के साथ चिता में जला दिया जाता था। जिसे, अंग्रेजों शासन काल के दौरान, १८२९ में को गैर-क़ानूनी घोषित कर बंद कर दिया गया।'''
 
'''''भगवान शिव''' की पहली पत्नी '''<nowiki/>'सती',''' के नाम से विख्यात हैं, इन्होंने ही दक्ष यज्ञ का विध्वंस किया तथा ‘दाक्षायनी’ नाम से जानी जाने लगी। साक्षात् '''महा-काली,''' रूप में इन्होंने ही काल रूप धारण कर, ‘रक्त बीज’ का वध किया। ‘दुर्गमासुर’ नमक दैत्य का वध करने के परिणामस्वरूप देवी ‘दुर्गा’ नाम से प्रसिद्ध हुई तथा दुर्गम संकटों से मुक्ति हेतु भी इनकी शरण में जाना श्रेष्ठ माना जाता हैं। हिमालय राज के घर कन्या रूप में जन्म ले, अपने कठिन तपस्या से '''भगवान शिव''' को प्रसन्न किया तथा उन्हें पति रूप में प्राप्त कर आज भी उन्हीं के साथ निवास करने वाली पार्वती हैं। इनके अनेक अवतार हैं, जो विभिन्न कार्य के अनुसार जाने जाते हैं। समस्त योगिनियाँ इन्हीं के भिन्न-भिन्न अवतार माने जाते हैं। जब-जब देवताओं तथा मनुष्यों के सनमुख विकट से विकट समस्या उत्पन्न हुई, इन्हीं देवी ने नाना प्रकार के रूप धारण कर, तीनों लोकों को समस्या से भय मुक्त किया। प्रत्येक प्रकार के समस्या के निवारण हेतु आज भी इन्हीं '''देवी भगवती''' से सभी शरणागत होते हैं।''
 
== अपूर्ण यज्ञ को पूर्ण करने हेतु ब्रह्मा जी द्वारा शिव जी से निवेदन करना तथा दक्ष को शिव जी द्वारा क्षमा दान। ==
कैलाश में जाकर '''ब्रह्मा जी''' ने '''शिव जी''' को समझाया कि यह केवल उनका भ्रम ही हैं कि, '''सती''' का देह-पात हो गया हैं, '''जगन्माता ब्रह्मा-स्वरूपा देवी''' इस जगत में विद्यमान हैं। '''सती''' ने तो '''छाया सती''' को उस यज्ञ में खड़ा किया था, '''छाया सती''' यज्ञ में प्रविष्ट हुई, वास्तविक रूप से उस समय '''देवी सती''' आकाश में उपस्थित थीं। आप तो विधि के संरक्षक हैं, कृपा कार आप वहां उपस्थित हो यज्ञ को समाप्त करवाएं। अंततः '''शिव जी,''' '''ब्रह्मा जी''' के साथ '''दक्ष''' के निवास स्थान गए, जहाँ पर यज्ञ अनुष्ठान हो रहा था। तदनंतर, '''ब्रह्मा जी''' ने '''शिव जी''' से यज्ञ को पुनः आरंभ करने की अनुमति मांगी, इस पर '''शिव जी''' ने '''वीरभद्र''' को आज्ञा दी की वह यज्ञ को पुनः प्रारंभ करने की व्यवस्था करें। इस प्रकार '''शिव जी''' से आज्ञा पाकर '''वीरभद्र''' ने अपने गणो को हटने की आज्ञा दी तथा बंदी देवताओं को भी मुक्त कर दिया गया। '''ब्रह्मा जी''' ने पुनः'''शिव जी''' से '''दक्ष''' को भी जीवन दान देने का अनुरोध किया। '''शिव जी''' ने यज्ञ पशुओं में से एक बकरे का मस्तक मंगवाया तथा उसे '''दक्ष''' के धड़ के साथ जोड़ दिया गया, जिससे वह पुनः जीवित हो गया। '''''(इसी विद्या के कारण उन्हें वैध-नाथ भी कहा जाता हैं, शिव जी ने दक्ष के देह के संग बकरे का मस्तक तथा गणेश के देह के संग हाथी का मस्तक जोड़ा था, जो आज तक कोई भी नहीं कर पाया हैं। )''''' '''ब्रह्मा जी''' के कहने पर, यज्ञ छोड़ कर भागे हुए यजमान निर्भीक होकर पुनः उस यज्ञ अनुष्ठान में आयें तथा उसमें '''शिव जी''' को भी यज्ञ भाग देकर यज्ञ को निर्विघ्न समाप्त किया गया।
 
इसके पश्चात बकरे के मस्तक से युक्त दक्ष ने '''भगवान शिव''' से क्षमा याचना की तथा नाना प्रकार से उनकी स्तुति की, अंततः उन्होंने शिव-तत्व को ससम्मान स्वीकार किया।
 
==== एक यज्ञ अनुष्ठान में शिव जी द्वारा दक्ष का सत्कार न करने पर, दक्ष द्वारा क्रोध-वश श्राप देना। ====
पूर्व काल में, समस्त महात्मा मुनि प्रयाग में एकत्रित हुए, वहां पर उन्होंने एक बहुत बड़े यज्ञ का आयोजन किया। उस यज्ञ में तीनों लोकों के समस्त ज्ञानी-मुनिजन, देवर्षि, सिद्ध गण, प्रजापति इत्यादि सभी आयें। '''भगवान शिव (रुद्र)''' भी उस यज्ञ आयोजन पर पधारे थे, उन्हें आया हुए देख वहां पर उपस्थित समस्त गणो ने उन्हें प्रणाम किया। इसके पश्चात वह पर '''दक्ष प्रजापति''' आयें, उन दिनों वे तीनों लोकों के अधिपति थे इस कारण सभी के सम्माननीय थे। परन्तु अपने इस गौरवपूर्ण पद के कारण उन्हें बड़ा अहंकार भी था। उस समय उस अनुष्ठान में उपस्थित सभी ने नतमस्तक होकर उन्हें प्रमाण किया, परन्तु '''भगवान शिव''' ने उनके सनमुख मस्तक नहीं झुकाया, वे अपने आसन पर बैठे रहे। इस कारण '''दक्ष''' मन ही मन उन पर अप्रसन्न हुए, उन्हें क्रोध आ गया तथा बोले! ''“सभी देवता, असुर, ब्राह्मण इत्यादि मेरा सत्कार करते हैं, मस्तक झुकाते हैं, परन्तु वह दुष्ट भूत-प्रेतों का स्वामी, >श्मशान में निवास करने वाला '''शिव,''' मुझे क्यों नहीं प्रणाम करते ? इसके वेदोक्त कर्म लुप्त हो गए हैं, यह भूत और पिशाचों से सेवित हो मतवाला बन गया हैं तथा शास्त्रीय मार्ग को भूल कर, नीति-मार्ग को सर्वदा कलंकित किया करता हैं। इसके साथ रहने वाले गण पाखंडी, दुष्ट, पापाचारी होते हैं, स्वयं यह स्त्री में आसक्त रहनेवाला तथा रति-कर्म में ही '''दक्ष''' हैं। यह रुद्र चारों वर्णों से पृथक तथा कुरूप हैं, इसे यज्ञ से बहिष्कृत कर दिया जाए। यह >श्मशान में वास करने वाला तथा उत्तम कुल और जन्म से हीन हैं, देवताओं के साथ यह यज्ञ का भाग न पाएं।”''
 
'''दक्ष''' के कथन का अनुसरण कर '''भृगु''' आदि बहुत से महर्षि, '''शिव''' को दुष्ट मानकर उनकी निंदा करने लगे। '''दक्ष''' की बात सुनकर '''नंदी''' को बड़ा क्रोध आया तथा '''दक्ष''' से कहा! ''“दुर्बुद्धि '''दक्ष''' ! तूने मेरे स्वामी को यज्ञ से बहिष्कृत क्यों किया? जिनके स्मरण मात्र से यज्ञ सफल और पवित्र हो जाते हैं, तूने उन '''शिव जी''' को कैसे श्राप दे दिया? ब्राह्मण जाती की चपलता से प्रेरित हो तूने इन्हें व्यर्थ ही श्राप दे दिया हैं, वे सर्वथा ही निर्दोष हैं।"''
 
'''नंदी''' द्वारा इस प्रकार कहने पर '''दक्ष''' क्रोध के मारे आग-बबूला हो गया तथा उनके नेत्र चंचल हो गए और उन्होंने रूद्र गणो से कहा! ''“तुम सभी वेदों से बहिष्कृत हो जाओ, वैदिक मार्ग से भ्रष्ट तथा पाखण्ड में लग जाओ तथा शिष्टाचार से दूर रहो, सिर पर जटा और शरीर में भस्म एवं हड्डियों के आभूषण धारण कर मद्यपान में आसक्त रहो।”''
 
==== नंदी द्वारा ब्राह्मण कुल को श्राप देना। ====
इस पर '''नंदी''' अत्यंत रोष के वशीभूत हो गए और '''दक्ष''' को तत्काल इस प्रकार कहा! ''“तुझे '''शिव तत्व''' का ज्ञान बिलकुल भी नहीं हैं, '''भृगु''' आदि ऋषियों ने भी '''महेश्वर''' का उपहास किया हैं। '''भगवान रुद्र''' से विमुख तेरे जैसे दुष्ट ब्राह्मणों को मैं श्राप देता हूँ! सभी वेद के तत्व ज्ञान से शून्य हो जाये, ब्राह्मण सर्वदा भोगो में तन्मय रहें तथा क्रोध, लोभ और मद से युक्त हो निर्लज्ज भिक्षुक बने रहें, दरिद्र रहें। सर्वदा दान लेने में ही लगे रहे, दूषित दान ग्रहण करने के कारण वे सभी नरक-गामी हो, उनमें से कुछ ब्राह्मण ब्रह्म-राक्षस हो। शिव को सामान्य समझने वाला दुष्ट '''दक्ष''' तत्व ज्ञान से विमुख हो जाये। यह आत्मज्ञान को भूल कर पशु के समान जो जाये तथा '''दक्ष''' धर्म-भ्रष्ट हो शीघ्र ही बकरे के मुख से युक्त हो जाये।"''
 
क्रोध युक्त '''नंदी''' को '''भगवान शिव''' ने समझाया ! ''“तुम तो परम ज्ञानी हो, तुम्हें क्रोध नहीं करना चाहिये, तुमने व्यर्थ ही ब्राह्मण कुल को श्राप दे डाला। वास्तव में मुझे किसी का श्राप छु नहीं सकता हैं; तुम्हें व्यर्थ उत्तेजित नहीं होना चाहिये। वेद मंत्राक्षरमय और सूक्तमय हैं, उसके प्रत्येक सूक्त में देहधारियों के आत्मा प्रतिष्ठित हैं, किसी की बुद्धि कितनी भी दूषित क्यों न हो वह कभी वेदों को श्राप नहीं दे सकता हैं।”'' तुम सनकादि सिद्धो को तत्व-ज्ञान का उपदेश देने वाले हो, शांत हो जाओ।
 
===== 'आद्या शक्ति काली' के अवतार सती या शक्ति के भैरव भगवान शिव। =====
'''शंकर, हर्र, महादेव, महेश, कपाली, रुद्र, नीलकंठ, आशुतोष''' आदि अनेक नामों से '''भगवान शिव''' जन-साधारण में विख्यात हैं, संहारक, तामसी गुण सम्पन्न तथा परम सिद्ध योगी हैं। इस चराचर जगत या ब्रह्माण्ड में विध्वंस या संहार से सम्बंधित कार्य का प्रतिपादन इन्हीं'''शिव''' के द्वारा होता हैं, चराचर जगत द्वारा तज्य तत्व इन्हीं का हैं एवं विघटन भी।
 
परिणामस्वरूप, '''शिव जी''' का सम्बन्ध समस्त विध्वंस होने वाली वस्तुओं या तत्वों से हैं, जैसे ''शव या मृत देह, >श्मशान भूमि, गंजा, मदिरा, सर्प, विष'' इत्यादि। '''“महा-काल”''' के रूप में '''शिव''' ही मृत्यु के कारक हैं, मृत्यु के स्वरूप हैं तथा '''शिव जी ही काल''' रूप धारण कर प्राणी के सनमुख उपस्थित होते हैं, प्रत्येक प्राणी के मृत्यु-कारण बनते हैं। सादाहरणतः सर्वदा योगी भेष धारण किये रहते हैं, शरीर में चिता भस्म का लेपन करते हैं, अपनी जटाओ में चन्द्र, तथा आभूषण में सर्प या नाग, रुद्राक्ष, हड्डियों की माला, खोपड़ी इत्यादि धारण करते हैं। त्रिशूल, डमरू, कमंडल, मृत पशुओं के चर्म, चिमटा, खप्पर, चिलम ही इनकी संपत्ति हैं तथा >श्मशान भूमि में वास करते हैं। हिमालय की चोटी में रमणीय '''‘कैलाश’ पर्वत, शिव जी''' का वास्तविक निवास स्थल हैं। '''शिव''' लय तथा प्रलय दोनों को अपने अधीन किये हुए हैं। इनकी पत्नी या शक्ति, स्वयं '''आद्या शक्ति काली''' अवतार रूपी, प्रथम '''सती''' तथा द्वितीय '''पार्वती''' हैं, '''सती''' से इन्हें कोई संतान नहीं प्राप्त थीं, '''पार्वती''' से दो पुत्र '''गणेश तथा कार्तिक एवं पुत्री अशोक सुंदरी''' हैं, इनके अलावा'''भगवान शिव''' के मन से उत्पन्न होने के कारण '''मनसा''' नाम की एक भी कन्या हैं, जो सर्पों-नागों की अधिष्ठात्री देवी हैं।
 
वास्तव में '''भगवान शिव''', गृहस्थ होते हुए भी ''>श्मशान-वासी, सिद्ध योगी तथा सन्यासी'' हैं। योग के सर्वोच्च स्थान पर आसीन होते हुए, '''शिव जी''' ऐसे वैरागी हैं जिन्होंने '''कामदेव''' को भस्म कर दिया था, '''‘कुसुम-शर’''' नमक बाण का भी उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। सौम्य स्वभाव वाले '''<nowiki/>'आशुतोष'<nowiki/>''' (कम में ही संतुष्ट होने वाले) होते हुए भी, घोर रुद्र रूपी भयंकर तथा प्रचंड भी हैं। इनका परिवार या गण ''भूत-प्रेत, पिशाच, दैत्य, वृषभ, सर्प, दैत्य इत्यादि प्रमथ गण'' सभी हैं, समस्त पशुओं के नाथ होने के कारण इन्हें '''‘पशुपतिनाथ’''' के नाम से भी जाना जाता हैं, समस्त भूतों या तत्वों के स्वामी होने के परिणामस्वरूप इन्हें '''<nowiki/>'भूतनाथ'<nowiki/>''' नाम से भी जाना जाता हैं। यहाँ '''<nowiki/>'भूतनाथ'''' के दो अभिप्राय हैं, एक स्वरूप में '''शिव जी''' समस्त ''भूतों, प्रेतों, पिशाचों, बैतालों आदि प्रमथों'' के स्वामी हैं, सर्वदा उनके साथ रहते हैं तथा अन्य स्वरूप में समस्त तत्वों (भूतों) के स्वामी भी हैं। संसार के समस्त तत्वों, जीवों में '''शिव तथा शक्ति''' सम भाव रखते हैं, साक्षात् '''आद्या शक्ति काली''' इनकी पत्नी या जीवन संगिनी हैं। '''शिव तथा शक्ति''' के ऐक्य रूप को'''अर्धनारीश्वर''' नाम से जाना जाता हैं। सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति तथा संहार के कारक देव '''शिव''' को ही माना जाता हैं।
 
==== शिव जी का सामान्य रूप तथा विशेषकर उनकी बारात में के स्वरूप का वर्णन। ====
'''भगवान शिव''' का भेष बड़ा ही निराला हैं, समस्त प्रकार के विस्मित कर देने वाले तत्व इन्हें प्रिय हैं। ''वे अद्भुत वर के रूप में सज-धज कर अपनी बारात ले हिमालय राज के घर गए थे; ये वृषभ पर आरूढ़ थे, शरीर में चिता भस्म लगाये हुए, पांच मस्तको से युक्त थे, बाघाम्बर एवं गज चर्म इन्होंने वस्त्र के रूप में धारण कर रखा था। आभूषण के रूप में हड्डियों, मानव खोपड़ियों तथा रुद्राक्ष की माला शरीर में धारण किये हुए थे, अपने दस हाथों में खप्पर, पिनाक, त्रिशूल, डमरू, धनुष आदि अस्त्र-शस्त्र धारण किये हुए थे। साथ ही इनके संग आने वाले समस्त बाराती या गण भूत-प्रेत, बेताल इत्यादि भयंकर भय-भीत कर देने वाले अद्भुत रूप में थे। मर्मर नाद करते हुए, बवंडर के समान, टेढें-मेढें मुंह तथा शरीर वाले अत्यंत कुरूप, लंगड़े-लूले-अंधे, दंड, पाश, मुद्गर, हड्डियाँ, धारण किये हुए थे। बहुत से गणो के मस्तक नहीं थे तथा किन्हीं के एक से अधिक मस्तक थे, कोई बिना हाथ के तथा उलटे हाथ वाले, बहुत से मस्तक पर कई चक्षु वाले, कुछ नेत्र हीन थे तथा कुछ एक ही चक्षु वाले थे, किसी के बहुत से कान थे और किसी के एक भी नहीं थे।'' '''शिव''' रूपी वर तथा इनके बाराती या प्रमथ गणो को देख कर, '''पार्वती''' की माता मैना मूर्छित हो गई थी। उन्होंने ऐसे भयानक स्वरूप वाले '''‘भूत-नाथ’''' वर को अपनी कन्या '''पार्वती''' का हाथ देने से मना कर दिया था। साथ ही नारद मुनि, समस्त देवता, ऋषि-मुनि तथा सप्तऋषि गणो को बुरा-भला कहा था, यहाँ तक वह स्वयं तथा '''पार्वती''' को ले कर मर जाना चाहती थी। वास्तव में '''पार्वती''' के माता के गर्व को दूर करने के लिये '''शिव जी''' इस रुद्र स्वरूप में '''पार्वती''' से विवाह करने आये थे।
 
==== भगवान शिव के १० अवतार तथा ११ रुद्रो का वर्णन : ====
 
====== भगवान शिव के १० अवतार का वर्णन : ======
·        '''महाकाल, शक्ति महाकाली, सत-पुरुषों को भोग और मोक्ष, मृत्यु-कारक रूप में प्रस्तुत होने वाले महाकाल तथा कर्म की अधिष्ठात्री देवी महाकाली।'''
 
·        '''तार, शक्ति तारा, भुक्ति तथा मुक्ति प्रदाता।'''
 
·        '''बाल भुवनेश, शक्ति बाला भुवनेशी, सुख प्रदाता।'''
 
·        '''षोडश श्री विद्येश, शक्ति षोडशी श्री विद्या।'''
 
·        '''भैरव, शक्ति भैरवी, कामनाओं को पूर्ण करने वाले।'''
 
·        '''छिन्नमस्तक, शक्ति छिन्नमस्ता।'''
 
·        '''धूमवान, शक्ति धूमावती।'''
 
·        '''बगलामुख, शक्ति बगलामुखी।'''
 
·        '''मातंग, शक्ति मातंगी।'''
 
·        '''कमल, शक्ति कमला।'''
 
११ रुद्र अवतारों का वर्णन : पूर्व काल में, एक बार '''इंद्र''' सहित सभी देवता दैत्यों के अत्याचार से डर से स्वर्ग छोड़, कश्यप मुनि के पास गए तथा मस्तक झुका-कर मुनि का अभिवादन किया। देवताओं ने दैत्यों द्वारा उत्पीड़न करने का सारा वृत्तांत उन्हें सुनाया, मुनि ने समस्त देवताओं को धैर्य धारण करने का परामर्श देकर, काशी पुरी की यात्रा की तथा वहाँ जाकर '''भगवान शिव''' की साधना में मग्न हो गए। कश्यप मुनि के साधना से प्रसन्न हो, '''भगवान शिव''' ने कश्यप मुनि को दर्शन दिया तथा इच्छित वर मांगने हेतु कहा। कश्यप मुनि ने वर स्वरूप में देवताओं के दुःख का हरण करने हेतु '''शिव जी''' से निवेदन किया कि! ''“दैत्यों ने देवताओं तथा यक्षों को पराजित कर दिया हैं, आप मेरे पुत्र रूप में उत्पन्न होकर देवताओं के कष्टों का निवारण करें।“'' '''भगवान शिव''' तथास्तु कहकर वहाँ से अंतर्ध्यान हो गए तथा अपने वर के अनुसार, सुरभि (गौ-माता) के गर्भ से ११ रूप धारण कर प्रकट हुए।
 
·        '''शम्भू :''' साक्षात ब्रह्म, जगत की रचना, पालन और संहार।
 
·        '''पिनाकी :''' चारों वेद स्वरूपी माने जाने वाले पिनाकी रुद्र दुःखों का अंत करने वाले।3. गिरीश : कैलाश वासी, होने के परिणामस्वरूप गिरीश, इस रुप में रुद्र सुख और आनंद प्रदान करने वाले हैं।
 
·        '''गिरीश :''' कैलाश वासी, होने के परिणामस्वरूप गिरीश, इस रुप में रुद्र सुख और आनंद प्रदान करने वाले हैं।
 
·        '''स्थाणु :''' समाधि, तप और आत्म लीन होने से रुद्र का चौथा अवतार स्थाणु नाम से विख्यात हैं, इस रुप में देवी पार्वती, शक्ति स्वरूप में रुद्र के बाएँ भाग में विराजित हैं।
 
·        '''भर्ग :''' हर भय और पीड़ा का नाश करने वाले।
 
·        '''सदाशिव :''' निराकार ब्रह्म जी का साकार रूप, समस्त वैभव, सुख और आनंद प्रदान करने वाले।
 
·        '''शिव :''' अंत-हीन सुख देने वाला या सदा कल्याण करने वाले, मोक्ष प्राप्ति के साधन स्वरूपी।
 
·        '''हर :''' नागों तथा सर्पों को धारण करने वाले, शारीरिक, मानसिक और सांसारिक दुःखों को हर लेते हैं, नाग रूपी काल पर इन का नियंत्रण हैं।
 
·        '''शर्व :''' काल को भी वश में रखने वाले।
 
·        '''कपाली :''' कपाल धारण करने के परिणामस्वरूप, कपाली, दक्ष का दंभ नष्ट करने वाले।
 
==इन्हें भी देखें==