"यज्ञ": अवतरणों में अंतर

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== यज्ञ की विधि ==
 
अग्नि को पावक कहते हैं क्योंकि यह अशुद्धि को दूर करती है। लोहे की असस्कके कोअयस्क भीषण गर्मीको मेंउच्च तपनेताप केदेने पर बाद, वह लोहा बनपिघल कर निकलता है। यह क्रिया भी लोहे का यज्ञ है।
पारंपरिक विधि में यज्ञ की इस विधि को प्रतीकों से समझाया जाता रहा है। कुछ लोग उस अग्नि क्रिया को गलती से यज्ञ मान लेते हैं।
 
अग्नि में दूध के छींटे पडने से अग्नि बुझने लगती है। अग्नि और दूध के जल का यह प्रतीकात्मक प्रयोग सिर्फ यह ज्ञान देता है कि मनुष्य के अनियंत्रित विचार या अनुभव, संसार में अर्थहीन हैं और वह प्राकृतिक सिद्धांतों द्वारा नहीं फैल सकता। कोई भी अनुभव सर्व व्यापी नहीं होता। कोई व्यक्ति जो दुखी है वह अपने दुख के अनुभव को कैसे व्यक्त कर सकता है? और यदि वह अपनी बात कहता भी है या रोता बिलखता है, तो भी कोई दूसरा व्यक्ति उस दुख को नहीं समझ सकता।
 
दूध को मथने से उसका जल और घी अलग अलग हो जाते हैं। अब उसी अग्नि में घी डाला जाता है, जिस से अग्नि उसे प्रकाश में परिवर्तित कर देती है।। अग्नि और घी का यह प्रतीकात्मक प्रयोग सिर्फ यह ज्ञान देता है कि जब ज्ञान को उसी अग्नि रूपी सत्य में डाल दिया जाता है तब इस कर्म का प्रभाव अलग हो जाता है और अग्नि उस ज्ञान को संसार में प्रकाशित हो अंधकार को दूर करती है।
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यदि यज्ञ भावना के साथ मनुष्य ने अपने को जोड़ा न होता, तो अपनी शारीरिक असमर्थता और दुर्बलता के कारण अन्य पशुओं की प्रतियोगिता में यह कब का अपना अस्तित्व खो बैठा होता। यह जितना भी अब तक बढ़ा है, उसमें उसकी यज्ञ भावना ही एक मात्र माध्यम है। आगे भी यदि प्रगति करनी हो, तो उसका आधार यही भावना होगी।
 
प्रकृति का स्वभाव यज्ञ परंपरा के अनुरूप है। समुद्र बादलों को उदारतापूर्वक जल देता है, बादल एक स्थान से दूसरे स्थान तक उसे ढोकर ले जाने और बरसाने का श्रम वहन करते हैं। नदी, नाले प्रवाहित होकर भूमि को सींचते और प्राणियों की प्यास बुझाते हैं। वृक्ष एवं वनस्पतियाँ अपने अस्तित्व का लाभ दूसरों को ही देते हैं। पुष्प और फल दूसरे के लिए ही जीते हैं। सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, वायु आदि की क्रियाशीलता उनके अपने लाभ के लिए नहीं, वरन् दूसरों के लिए ही है। शरीर का प्रत्येक अवयव अपने निज के लिए नहीं, वरन् समस्त शरीर के लाभ के लिए ही अनवरत गति से कार्यरत रहता है। इस प्रकार जिधर भी दृष्टिपात किया जाए, यही प्रकट होता है कि इस संसार में जो कुछ स्थिर व्यवस्था है, वह यज्ञ वृत्ति पर ही अवलम्बित है। यदि इसे हटा दिया जाए, तो सारी सुन्दरता, कुरूपता में और सारी प्रगति, विनाश में परिणत हो जायेगी। ऋषियों ने कहा है- यज्ञ ही इस संसार चक्र का धुरा है। धुरा टूट जाने पर गाड़ी का आगे बढ़ सकना कठिन है।
 
 
== यज्ञीय विज्ञान ==
"https://hi.wikipedia.org/wiki/यज्ञ" से प्राप्त