"हिन्दी नाटक": अवतरणों में अंतर

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== बीसवीं शताब्दी ==
20 वीं शताब्दी के तीसरे दशक में सिनेमा के आगमन ने [[पारसी रंगमंच]] को सर्वथा समाप्त कर दिया। पर अव्यावसायिक रंगमंच इधर-उधर नए रूपों में जीवित रहा। अब हिन्दी का रंगमंच केवल स्कूलों और कॉलेजों में ही है। यह रंगमंच बड़े नाटकों की अपेक्षा एकांकियों को अधिक अपनाकर चला। इसके दो मुख्य कारण हैं- एक तो आज का दर्शक कम-से-कम समय में अपने मनोरंजन की पूर्ति करना चाहता है, दूसरे, आयोजकों के लिए भी बड़े नाटक का प्रदर्शन यहां बहुत कठिनाई उत्पन्न करता है वहाँ एकांकी का प्रदर्शन सरल है-रंगमंच, दृश्य-विधान आदि एकांकी में सरल होते हैं, पात्र भी बहुत कम रहते हैं। अत: सभी शिक्षालयों, सांस्कृतिक आयोजनों आदि में आजकल एकांकियों का ही प्रदर्शन होता है। डॉ॰ [[राजकुमारराम कुमार वर्मा]], [[उपेन्द्रनाथ अश्क]], [[सेठ गोविन्द दास]], [[जगदीशचन्द्र माथुर]] आदि हमारे अनेक नाटककारों ने सुन्दर अभिनय-उपयोगी [[एकांकी नाटक|एकांकी नाटकों]] तथा दीर्घ नाटकों की रचना की है।
 
[[जयशंकर प्रसाद|प्रसाद जी]] ने उच्चकोटि के साहित्यिक नाटक रच कर हिन्दी नाटक साहित्य को समृद्ध किया था, पर अनेक नाटक रंगमंच पर कुछ कठिनाई उत्पन्न करते थे। फिर भी कुछ काट-छाँट के साथ प्रसाद जी के प्राय: सभी नाटकों का अभिनय हिन्दी के अव्यावसायिक रंगमंच पर हुआ। [[जार्ज बर्नार्ड शॉ]], इब्सन आदि पाश्चात्य नाटककारों के प्रभाव से उपर्युक्त प्रसादोत्तर आधुनिक नाटककारों ने कुछ बहुत सुन्दर रंगमंचीय नाटकों की सृष्टि की। इन नाटककारों के अनेक पूरे नाटक भी रंगमंचों से प्रदर्शित हुए।
 
== स्वतंत्रता के पश्चात ==