"भर्तृहरि": अवतरणों में अंतर

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भर्तृहरि और पिंगला की गाथा प्रेमकथा के रूप में बहुत दुविधापूर्ण है, क्योंकि जनमानस में इनको लेकर
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'''भर्तृहरि''' महान संस्कृत कवि थे। [[संस्कृत साहित्य]] के इतिहास में भर्तृहरि एक नीतिकार के रूप में प्रसिद्ध हैं। इनके '''शतकत्रय''' ([[नीतिशतक]], [[शृंगारशतक]], [[वैराग्यशतक]]) की उपदेशात्मक कहानियाँ भारतीय जनमानस को विशेष रूप से प्रभावित करती हैं। प्रत्येक शतक में सौ-सौ श्लोक हैं। बाद में इन्होंने गुरु [[गोरखनाथ]] के शिष्य बनकर वैराग्य धारण कर लिया था इसलिये इनका एक लोकप्रचलित नाम ''बाबा भरथरी'' भी है।
 
== जीवन चरित ==
इनके आविर्भाव काल के सम्बन्ध में मतभेद है। इनकी जीवनी विविधताओं से भरी है। राजा भर्तृहरि ने भी अपने काव्य में अपने समय का निर्देश नहीं किया है। अतएव दन्तकथाओं, लोकगाथाओं तथा अन्य सामग्रियों के आधार पर इनका जो जीवन-परिचय उपलब्ध है वह इस प्रकार है :
 
परम्परानुसार भर्तृहरि विक्रमसंवत् के प्रवर्तक के अग्रज माने जाते हैं। विक्रमसंवत् ईसवी सन् से ५६ वर्ष पूर्व प्रारम्भ होता है जो [[विक्रमादित्य]] के प्रौढ़ावस्था का समय रहा होगा। भर्तृहरि [[विक्रमादित्य]] के अग्रज थे, अत: इनका समय कुछ और पूर्व रहा होगा। विक्रमसंवत् के प्रारम्भ के विषय में भी विद्वानों में मतभेद हैं। कुछ लोग ईसवी सन् ७८ और कुछ लोग ई० सन् ५४४ में इसका प्रारम्भ मानते हैं। ये दोनों मत भी अग्राह्य प्रतीत होते हैं। फारसी ग्रंथ '''कलितौ दिमन:''' में पंचतंत्र का एक पद्य 'शशिदिवाकर योर्ग्रहपीडनम्' का भाव उद्धृत है। [[पंचतंत्र]] में अनेक ग्रंथों के पद्यों का संकलन है। संभवत: [[पंचतंत्र]] में इसे नीतिशतक से ग्रहण किया गया होगा। फारसी ग्रंथ ५७९ ई० से ५८१ ई० के एक फारसी शासक के निमित्त निर्मित हुआ था। इसलिए राजा भर्तृहरि अनुमानत: ५५० ई० से पूर्व हम लोगों के बीच आये थे। भर्तृहरि [[उज्जैन|उज्जयिनी]] के राजा थे। ये 'विक्रमादित्य' उपाधि धारण करने वाले चन्द्रगुप्त द्वितीय के बड़े भाई थे। इनके पिता का नाम चन्द्रसेन था। पत्नी का नाम पिंगला था जिसे वे अत्यन्त प्रेम करते थे।
 
इन्होनें सुन्दर और रसपूर्ण भाषा में नीति, वैराग्य तथा श्रृंगार जैसे गूढ़ विषयों पर शतक-काव्य लिखे हैं। इस शतकत्रय के अतिरिक्त, '''[[वाक्यपदीय]]''' नामक एक उच्च श्रेणी का [[व्याकरण]] ग्रन्थ भी इनके नाम पर प्रसिद्ध है। कुछ लोग [[भट्टिकाव्य]] के रचयिता भट्टि से भी उनका ऐक्य मानते हैं। ऐसा कहा जाता है कि [[नाथपंथ]] के वैराग्य नामक उपपंथ के ये ही प्रवर्तक थे। चीनी यात्री इत्सिंग के अनुसार इन्होंने [[बौद्ध-धर्म]] ग्रहण किया था परंतु अन्य सूत्रों के अनुसार ये [[अद्वैत वेदान्त|अद्वैत वेदान्ताचार्य]] थे। चीनी यात्री इत्सिंग के यात्रा विवरण से यह ज्ञात होता है कि ६५१ ईस्वी में भर्तृहरि नामक एक [[वैयाकरण]] की मृत्यु हुयी थी। इस प्रकार इनका सातवीं शताब्दी का प्रतीत होता है परन्तु भारतीय पुराणों में इनके सम्बन्ध में उल्लेख होने से संकेत मिलता है कि इत्सिंग द्वारा वर्णित भर्तृहरि कोई अन्य रहे होंगे।
 
== किंवदन्तियाँ==
 
भर्तृहरि और पिंगला की गाथा प्रेमकथा के रूप में बहुत दुविधापूर्ण है,
क्योंकि जनमानस में इनको लेकर जो कहानियाँ प्रचलित हैं,
उनमें एक शृंखला तो पिंगला को पति को गहन प्रेम करने वाली व पतिव्रता के रूप में उनके लिए प्राण देने वाली दिखाती है,
जबकि दूसरी कथा शृंखला उन्हें पति के साथ छल कर अन्य से प्रेम व व्यभिचार करने वाली सिद्ध कर देती है।
 
दोनों लगभग समान रूप से प्रसिद्ध हैं,
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पूर्व दो बहुश्रुत कथाओं की तुलना में यह किंचित् अल्पश्रुत भी है.
और विस्तृत भी.
*
 
सबसे पहले पहली कहानी-
एक बार राजा भर्तृहरि आखेट पर गये,
साथ में उनकी प्रिय रानी पिंगला भी थीं.
जंगल में बहुत समय तक भटकते रहने के बाद भी मृगया हेतु कोई मृग न मिला.
दोनों थक कर जब घर लौट रहे थे,
तभी रास्ते में उन्हें हिरनों का एक झुण्ड दिखाई दिया।
जिसके आगे एक मृग चल रहा था।
 
भर्तृहरि ने उस पर प्रहार करना चाहा,
तभी पिंगला ने उन्हें रोकते हुए अनुरोध किया कि 
महाराज, यह मृगराज सात सौ हिरनियों का पति और पालनकर्ता है। इसलिये आप उसका शिकार न करें।
 
भर्तृहरि ने रानी की बात नहीं मानी और हिरन पर बाण चला दिया,
मरणासन्न होकर भूमि पर गिरते हुए मृग ने
जाने परमात्मा से प्रार्थना करते हुए या भर्तृहरि से परिवाद करते हुए कहा- 
प्रभु,
तुमने यह ठीक नहीं किया।
कुछ पलों में प्राण छूट जाएँगे,
देह भर रह जाएगी।
नहीं पता कि
मेरे प्राण जाने के बाद मेरी काया किस काम आयेगी.
राजन्,
संभव है,
तुमने मुझे अपने भोजन नहीं,
बस अपनी क्रीडा या शौर्य प्रदर्शन भर में ही मारा हो,
तुम राजा हो, युद्ध और विलास भर करते आये हो,
जीवन को व्यर्थ ले सकते हो,
पर हम वनचर हैं, ऋषि-मुनियों के आश्रमों तक विचरते रहे हैं,
जीवन को व्यर्थ जाने देने से पीड़ा और गहरी हो जाती है।
 
राजा से आशा व्यर्थ है, क्योंकि वही तो मेरा व्याध है,
प्रभु, हो सके तो मेरी यह साध पूरी कर देना,
मेरी मृत्यु के बाद
मेरे ये सुदीर्घ सींग उस श्रृंगी जोगी को दे देना, जो उसके वाद्य बजाता घूमता है,
मेरे ये सुंदर चंचल नेत्र उस सरल नारी को दे देना, जो प्रीति में निर्मल दृष्टि रखती है।
मेरा ये कोमल चर्म उन साधु-संतों को दे देना, जो जीवन भर त्याग की साधना करते हैं,
मेरे पैर उन धावकों और रक्षक सैनिकों को दे देना, जो अदम्य ऊर्जा लिए दौड़ते हैं
और
इसके उपरांत मांस रही और मिट्टी बनी मेरी देह इस पापी राजा को दे देना,
जो भोग के लिए प्राण लेने में पीड़ा नहीं जानता.
 
हिरण की दर्शनमयी बातें सुनकर भर्तृहरि का हृदय पश्चात्ताप से भर उठा,
उसकी करुणामयी बातें सुनकर भर्तृहरि का हृदय द्रवित हो उठा।
पर अब बहुत देर हो चुकी थी.
 
किसी ने कहा कि
वन में ही कहीं गुरु गोरखनाथ के आश्रम है.
बड़े सिद्ध हैं, संभवतः कुछ निदान बतायें.
 
रानी को राजमहल भेज हिरण की देह घोड़े पर रख कर
वे स्वयं गुरु गोरखनाथ के आश्रम की ओर चल पड़े.
मार्ग में ही उनकी मुलाकात बाबा गोरखनाथ से हो गई.
भर्तृहरि ने सादर नमन किया,
इस घटना से अवगत कराते हुए उनसे हिरण को जीवित करने की प्रार्थना की।
 
गोरखनाथ ने कहा- 
मैं एक शर्त पर इसे जीवनदान दे सकता हूँ कि
इसके जीवित हो जाने पर तुम्हें मेरा शिष्य बनना पड़ेगा। 
कहते हैं, राजा के मन में पहले ही से वैराग्य जाग्रत था,
उसने सहज ही गोरखनाथ की बात मान ली।
 
गोरखनाथ ने मृत हिरन को जीवित कर दिया,
भर्तृहरि उनके शिष्य बन गए.
राज्य का उत्तराधिकार अपने छोटे भाई विक्रम को सौंपा
और स्वयं वन में तपस्या करने चले गये.
 
परंतु जनमानस उनके वैराग्य को भी इतना सहज नहीं कहता.
गोरखनाथ ने अपने शिष्यत्व की एक शर्त बतलाई.
राजा को रानी से पहली भिक्षा लेकर आनी होगी,
महल जाकर, भिक्षु बन कर, पत्नी को माता कहकर.
 
जाने कितने द्वंद्व से गुजर उन्होंने यह स्वीकार कर लिया.
भगवा धारण करके राजमहल के द्वार पहुँचे,
रानी पिंगला कहीं खिड़की या झरोखे से देखती दिख गईं.
रानी पिंगला को इंगित कर राजा भर्तृहरि ने आवाज लगाई-
अलख निरंजन।
माता पिंगला, भिक्षाम् देहि।
 
पिंगला ने पिंगलवेशधारी राजा भर्तृहरि को देखा,
हृदय स्तब्ध रह गया,
आँखों से जलधारा बह निकली.
स्वयं निकल कर आईं,
कुछ टूटे शब्दों में संवाद किया,
रोकना चाहा,
परंतु भर्तृहरि रुके नहीं।
रानी ने भी चलना चाहा,
परंतु भर्तृहरि बोले-
संन्यासी सदा एकाकी होता है, ब्रह्मचारी.
सहचर तो हम गार्हस्थ्य जीवन के थे,
संन्यास आश्रम के नहीं.
काफी आग्रह व वार्तालाप के उपरांत जब रानी ने जाना कि
राजा इतने विरक्त हो चुके कि संन्यस्त होकर ही रहेंगे,
तो उन्होंने भिक्षा पात्र में पहली और अंतिम भिक्षा डाल दी.
 
भर्तृहरि राज छोड़ योगी बन चले गए,
पिंगला ने रानी की बनाम वियोगिनी साध्वी का जीवन अपना लिया,
महल में जोगन ही बनी जीती रहीं.
 
 
इसी से जुड़ी कहानी का एक भिन्न रूपांतर है।
इसमें भी राजा भर्तृहरि वन में शिकार खेलने गए थे,
परंतु रानी पिंगला स्वयं आखेट में न तो राजा के साथ गई,
न ही वहाँ किसी मृग की घटना हुई।
यहाँ मृग के स्थान पर स्वयं रानी पिंगला की मृत्यु हो जाती है
और आगे की कहानी लगभग यथावत् हो जाती है।
 
मृगया के मार्ग में राजा ने देखा कि
किसी श्मशान में एक पुरुष की चिता जलाई जा रही थी,
उसकी पत्नी वहाँ भावविह्वल हुई आई
और उसने अपने मृत पति की चिता में कूद कर अपने प्राण त्याग दिए।
 
राजा भर्तृहरि दृश्य से बहुत व्यथित, चकित व विचलित हो गये.
सोचा कि क्या कोई स्वेच्छा से प्रिय के वियोग में प्राण देगा?
अपने महल में वापस आकर राजा भर्तृहरि ने जब ये घटना और मन की दुविधा अपनी पत्नी पिंगला से कही.
रानी पिंगला पति से बहुत प्रेम करती थी,
बोली कि
वह तो यह समाचार सुनने भर से ही मर जाएगी,
चिता में कूदने के लिए भी वह जीवित नहीं रहेगी।
 
राजा भर्तृहरि ने संदेह किया.
उन्होंने मन ही मन पिंगला की परीक्षा लेने की सोची.
एक बार जब भर्तृहरि शिकार खेलने गए,
वहाँ से समाचार भिजवा दिया कि
राजा भर्तृहरि की मृत्यु हो गई।
 
ये खबर सुनते ही आहत रानी पिंगला मर गईं,
राजा भर्तृहरि ने जैसे ही यह सुना,
वे बिल्कुल टूट गए,
अपने आप को दोषी ठहराते रहे, विलाप करते रहे.
परंतु निदान क्या था.
 
संयोगवश सिद्ध गोरखनाथ वहाँ उपस्थित हुए।
उनकी कृपा से रानी पिंगला जीवित हो गई.
गोरखनाथ की शर्त थी कि
इसके उपरांत राजा को वैराग्य ले लेना होगा।
राजा सहमत हो गए.
इस घटना के बाद राजा भर्तृहरि गोरखनाथ के शिष्य बनकर चले गए।
 
 
दूसरी कहानी बिल्कुल इसके विपरीत है,
और यह संभवतः सर्वाधिक प्रसिद्ध है।
भर्तृहरि के दरबार में एक साधु आया
तथा राजा के प्रति श्रद्धा प्रदर्शित करते हुए उन्हें एक अमर फल प्रदान किया।
इस फल को खाकर व्यक्ति अमर हो सकता था,
चिरयुवा बना रह सकता था।
 
राजा ने इस फल को अपनी प्रिय रानी पिंगला को खाने के लिए दे दिया,
किन्तु रानी ने उसे स्वयं न खाकर अपने एक प्रिय सेनानायक को दे दिया.
उसने भी फल को स्वयं न खाकर उसे उस राजनर्तकी को दे दिया,
जिससे उसका प्रेम सम्बन्ध था।
यह अमर फल जब राजनर्तकी के पास पहुँचा,
उसने इसे राजा को देने का विचार किया।
वह राजदरबार में पहुँची तथा राजा को फल अर्पित कर दिया।
 
रानी पिंगला को दिया हुआ फल राजनर्तकी से पाकर राजा आश्चर्यचकित रह गये
तथा इसे उसके पास पहुँचने का वृत्तान्त पूछा।
राजनर्तकी ने संक्षेप में राजा को सब कुछ बतला दिया।
इस घटना से राजा भर्तृहरि अत्यन्त मर्माहत हुए
और उन्होंने सब कुछ छोड़कर संन्यास लेने का निश्चय कर लिया.
 
 
भर्तृहरि की इन दो कथा शृंखलाओं के अतिरिक्त एक तीसरी कथा भी कहीं मिल जाती है,
जो दोनों कहानियों को कुछ नये किरदार लाकर जोड़ने का यत्न करती है
और उनके विरोधाभासों को अपनी कल्पना से दूर करने का प्रयास करती है।
 
इस कथा के अनुसार भर्तृहरि की दो रानियाँ थीं-
पहली पिंगला, जो पतिव्रता थी और भर्तृहरि से अनन्य प्रेम करती थी।
दूसरी अनंगसेना, जो राजमर्यादा व दाम्पत्य से परे अनेक से प्रणय संबंध चलाती थी.
 
रानी अनंगसेना अपेक्षाकृत युवा व सुंदर थी,
इस कारण राजा उसे बहुत प्यार करते थे।
परंतु अनंगसेना निष्ठावान न थी.
उसका राजा के अश्वपालक व सारथि रहे चंद्रचूड़ से भी प्रणय-सम्बन्ध था
और साथ ही साथ वह राज्य के सेनापति से प्रेम संबध रखे हुए थी।
 
चंद्रचूड़ और सेनापति ये दोनों भी ऐसे ही निष्ठाहीन प्रेमी थे,
दोनों का रानी अनंगसेना और रूपलेखा दोनों से प्रणय-सम्बन्ध था।
 
योगी गोरखनाथ को पहले से ही पता था कि
राजा भर्तृहरि पूर्वजन्म का योगी है और आगे भी उसको योगी ही बनना है,
बस पूर्व जन्मों के कर्मों के कारण कुछ दिनों तक का राज और भोग है.
उन्होंने जब ये सारी बातें जानीं,
तो उन्होंने जानकर ही किसी जयंत नामक ब्राह्मण के साथ अमरफल भेजा।
राजा ने वह अमरफल रानी अनंगसेना को दिया।
रानी ने वह अमरफल अश्वपाल चंद्रचूड़ को दे दिया।
 
चंद्रचूड़ ने भी वह अमरफल स्वयं न खाया,
उसने उसे गणिका रूपलेखा को देने का निर्णय किया,
जिसे वह पाना चाहता था,
किंतु स्तर के कारण पा न सका था।
 
वह उस अमरफल को लेकर रूपलेखा के यहाँ गया।
और यह कहकर दे दिया कि
वो उसको खायेगी, तो अमर हो जायेगी
और उसका चिरकाल तक यौवन बना रहेगा।
दूसरे रूपांतर में राजा भर्तृहरि भी रूपलेखा का नृत्य देखने जाते हैं
और वहीं जब राजा जब मदिरा पीकर मदहोश हो जाते हैं,
तब चंद्रचूड़ ने रूपलेखा के साथ प्यार करते हुए अमरफल उसको दे दिया.
 
रूपलेखा स्वयं के जीवन से घृणा करती थी।
राजा से नेह व आदर का भाव था.
सोचा कि वे जियेंगे, तो जाने कितनों का भला करेंगे।
यह विचार कर वही फल रूपलेखा ने राजा को दे दिया.
 
राजा ने जब उस फल को देखा,
विस्मित व सशंकित हो पूछा कि
उसने वह फल किससे पाया.
 
रूपलेखा ने बता दिया कि
सेनापति चंद्रचूड़ ने उसको अमरफल दिया था।
क्षुब्ध व क्रुद्ध राजा ने सारथी चंद्रचूड़ से सच पूछा,
तो उसने रानी अनंगसेना के साथ न केवल अपने सम्बन्ध स्वीकार किये,
अपितु साथ ही साथ उनके सेनापति से भी प्रेमसंबंध होने का भी भेद बता दिया।
 
उस दिन अमावस्या की रात थी।
राजा राजमहल पहुँचा और अनंगसेना से प्रश्न किया.
राजा के भय से अनंगसेना ने सच स्वीकार कर लिया।
राजा ने रानी को मृत्युदंड तो न दिया,
लेकिन उसी अँधेरी रात में रानी ने आत्मग्लानि में आत्मदाह कर लिया।
चंद्रचूड़ व सेनापति को या तो मृत्युदंड दे दिया गया
या फिर देशनिकाला दे दिया गया.
 
इस घटना के उपरांत भर्तृहरि बहुत खिन्न व उदास रहने लगे.
इस पर उनकी बड़ी रानी पिंगला ने मानसिक व्याकुलता से बाहर निकलने के लिए उनको आखेट के लिए वन में भेजा।
परंतु दुर्योगवश आखेट के समय उनका एक सैनिक सर्पदंश से मारा गया.
जब उसका शव उसके घर पहुंचा,
तो उसकी पत्नी उसकी देह के साथ सती हो गई।
 
तेजी से चले यह सारा घटनाक्रम देख
राजा बहुत द्वंद्व में पड़ गया।
एक स्त्री थी अनंगसेना,
जो राजा की पत्नी व प्रिया होकर भी अनुचरों तक से व्यभिचार करती है
और
एक स्त्री है रूपलेखा,
जो संसार के लिए व्यभिचारिणी वेश्या होकर भी
देश के राजा के प्रति जीवन और यौवन से बढ़कर प्रेम रख रही है।
एक और नारी है,
उस साधारण सैनिक की पत्नी,
जो पति की देह के साथ सती हो गई।
और एक और नारी है पिंगला,
जो पति द्वारा किसी और रानी को अमरफल दिये जाने की बात जानकर भी उसकी चिंता कर रही है,
परंतु क्या पता,
वह भी छल या दिखावा भर ही हो.
 
वे सोचने लगे कि
क्या मेरी पत्नी पिंगला भी मुझसे इतना प्यार करती है।
आगे कहानी यथावत् है.
राजा भर्तृहरि ने परीक्षा के लिए अपनी मृत्यु की मिथ्या सूचना भिजवाई,
जिसे सुनते ही रानी पिंगला मर गई ।
 
कहानी त्रासदी के साथ समाप्त होती है।
एक रानी अपने झूठ से मारी गई,
अपना ही अभेद्य पश्चात्ताप लेकर,
दूसरी रानी राजा के झूठ से मारी गई,
राजा को अभेद्य पश्चात्ताप देकर.
 
अंत में गुरु गोरखनाथ की शरण में शांति मिलती है।
धर्म सदा ही प्रेम के टूटों की श्रेष्ठ शरण बनता रहा है।
भर्तृहरि न प्रेम में आहत पहले राजा हैं, न प्रेम में विरक्त पहले योगी.
परंतु दोनों के जोड़ ने उनकी प्रेमगाथा को अन्य प्रेमगाथाओं में शिखर लोकप्रियता प्रदान कर दी.
 
== काव्य शैली ==
भर्तृहरि संस्कृत [[मुक्तककाव्य]] परम्परा के अग्रणी कवि हैं। इन्हीं तीन शतकों के कारण उन्हें एक सफल और उत्तम कवि माना जाता है। इनकी भाषा सरल, मनोरम, मधुर और प्रवाहमयी है। भावाभिव्यक्ति इतनी सशक्त है कि वह पाठक के हृदय और मन दोनों को प्रभावित करती है। उनके शतकों में छन्दों की विविधता है। भाव और विषय के अनुकूल छन्द का प्रयोग, विषय के अनुरुप उदाहरण आदि से उनकी सूक्तियाँ जन-जन में प्रचलित रही हैं और समय-समय पर जीवन में मार्गदर्शन और प्रेरणा देती रही हैं।
 
== इन्हें भी देखें==
* [[भरथरी]]
 
== बाहरी कड़ियाँ ==
* [http://prayaslt.blogspot.com/2010/04/blog-post_4949.html भर्तृहरि और उनका भाषा-चितंन]
* [http://www.tempweb34.nic.in/xneeti/html/index.php भर्तृहरिविरचित नीतिशतक]
* [http://sa.wikibooks.org/wiki/%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%AA%E0%A4%A6%E0%A5%80%E0%A4%AF वाक्यपदीय] (विकिपुस्तक)
* [http://books.google.co.in/books?id=D5ci3yIxNIkC&printsec=frontcover#v=onepage&q&f=false The Vākyapadīya of Bhartṛhari: Kāṇḍa II., Volume 2] (Google book By K.A. Subramania Iyer, Bhartr̥hari)
* [http://www.hindisahityadarpan.in/2014/05/bhartrihari-neeti-shatak-hindi-complete.html सम्पूर्ण भर्तृहरि नीति शतक हिंदी और अंग्रेजी में|]
 
[[श्रेणी:संस्कृत कवि]]