"प्रत्यक्षवाद (विधिक)": अवतरणों में अंतर
Content deleted Content added
अनुनाद सिंह (वार्ता | योगदान) No edit summary |
अनुनाद सिंह (वार्ता | योगदान) No edit summary |
||
पंक्ति 1:
विधिक प्रत्यक्षवाद को सार रूप में कहना कठिन है किन्तु प्रायः माना जाता है कि विधिक प्रत्यक्षवाद का केन्द्रीय विचार यह है:
:''किसी विधिक प्रणाली में, कोई विचार (norm) वैध है या नहीं, यह इस बात पर निर्भर करता है कि उसका स्रोत क्या है न कि उसके गुणदोष (merits) क्या हैं?''
: (the validity of a legal norm depends not on the moral value attached thereto, but from the sources determined by a social community's rules and conventions<ref>Curzon, Peter (1998). Jurisprudence Lecture Notes. Cavendish Publishing. p. 82.</ref>)
== परिचय ==
Line 21 ⟶ 22:
== विधिक प्रमाणवाद का विभिन्न अर्थों में प्रयोग ==
विधिक प्रमाणवाद को राज्य सम्प्रभु के रूप में तथा विधि को सम्प्रभु के समादेश के रूप में और विधि के अनुपालन में अनुशास्ति के तत्व की व्याख्या के कारण विधि का आज्ञात्मक (Imperative) सिद्धान्त भी कहा गया है। विधिक प्रमाणवाद का प्रयोग विभिन्न अर्थों में किया गया है। आधुनिक विश्लेषणात्मक प्रमाणवादी विचारक प्रो॰एच0एल0ए0 हार्ट ने स्वयं इसका प्रयोग पाँच अर्थों में स्वीकार किया है। <ref>H. L. A. Hart, "Positivism and the Separation of Law and Morals" (1958) 71 Harvard Law Review 593, 601-2.</ref>
*1. विधियाँ मानवप्राणियों का समादेश हैं।
Line 34 ⟶ 35:
हार्ट ने इन पाँच अर्थों में किए गये प्रयोग की वास्तविक पृष्ठभूमि में व्याख्या करते हुए यह स्पष्ट किया है कि बेन्थम और ऑस्टिन (1) से लेकर (3) तक दिए गये सिद्धान्तों को मानते हैं परन्तु (4) और (5) वाले सिद्धान्तों को नहीं। इसी तरह केल्सन ने (2), (3) और (5) में व्यक्त सिद्धान्तों को माना है परन्तु (1) और (4) में दिये गये सिद्धान्तों को नहीं। हार्ट के अनुसार (4) में वर्णित सिद्धान्त को बेन्थम, ऑस्टिन और केल्सन में से किसी ने नहीं माना है। फिर भी यह सिद्धान्त प्रत्यक्षतः बिना पर्याप्त कारणों के विश्लेषणात्मक विधिशास्त्रियों के साथ अक्सर जोड़ दिया जाता है।
==सन्दर्भ==
{{टिप्पणीसूची}}
==इन्हें भी देखें==
|