"भारतीय गणित का इतिहास": अवतरणों में अंतर

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आज पाणिनि के विन्यासों को किसी गणितीय क्रिया की आधुनिक परिभाषाओं की तुलना में भी देखा जा सकता है। जी. जी. जोसेफ ’’दी क्रेस्ट आॅफ दा पीकाॅक’’ में विवेचना करते हैं कि भारतीय गणित की बीजगणितीय प्रकृति संस्कृत भाषा की संरचना की परिणति है। इंगरमेन ने अपने शोध प्रबंध में ’’पाणिनि - बैकस फार्म’’ में पाणिनि के संकेत चिन्हों को उतना ही प्रबल बतलाया है जितना कि बैकस के संकेत चिह्न। [[बैकस नार्मल फार्म]] आधुनिक कम्प्युटर भाषाओं के वाक्यविन्यास का वर्णन करने के लिए व्यवहृत होता है जिसका अविष्कारकत्र्ता बैकस है। इस प्रकार पाणिनि के कार्यों ने वैज्ञानिक संकेत चिन्हों के प्रादर्श का एक उदाहरण प्रस्तुत किया जिसने बीजगणितीय समीकरणों को वर्णित करने और बीजगणितीय प्रमेयों और उनके फलों को एक वैज्ञानिक खाके में प्रस्तुत करने के लिए अमूर्त संकेत चिह्न प्रयोग में लाने के लिए प्रेरित किया होगा।
 
हा== दर्शनशास्त्र और गणित ==
दार्शनिक सिद्धांतों का गणितीय परिकल्पनाओं और सूत्रीय पदों के विकास पर गहरा प्रभाव पड़ा। विश्व के बारे में उपनिषदों के दृष्टिकोण की भांति [[जैन दर्शन]] में भी आकाश और समय असीम माने गये। इससे बहुत बड़ी संख्याओं और अपरिमित संख्ययओं की परिभाषाओं में गहरी रुचि पैदा हुई। [[पुनरावर्तन सूत्र|पुनरावर्तन सूत्रों]] (recursive) सूत्रों के जरिये असीम संख्यायें बनाईं गईं। [[अनुयोगद्वार सूत्र]] में ऐसा ही किया गया। जैन गणितज्ञों ने पांच प्रकार की असीम संख्यायें बतलाईं :
*(१) एक दिशा में असीम,
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*(५) सतत असीम
 
3री सदी ई. पू. में रचित [[भगवती सूत्र|भगवती सूत्रों]] में और 2री सदी ई. पू. में रचित [[साधनांगस्थानांग सूत्र]] में क्रमचय-संचय (permutation combination) को सूचीबद्ध किया गया है।
 
जैन [[समुच्चय सिद्धांत]] संभवतः जैन [[ज्ञान मीमांसा]] के [[स्यादवाद]] के समानान्तर ही उद्भूत हुआ जिसमें वास्तविकता को सत्य की दशा-युगलों और अवस्था-परिवर्तन युगलों के रूप में वर्णित किया गया है। अनुयोगद्वार सूत्र [[घातांक]] नियम के बारे में एक विचार देता है और इसे [[लघुगणक]] की संकल्पना विकसित करने के लिए उपयोग में लाता है। लॉग आधार 2, लाग आधार 3 और लाग आधार 4 के लिए क्रमशः '''अर्ध आछेद''', '''त्रिक आछेद''' और '''चतुराछेद''' जैसे शब्द प्रयुक्त किए गये हैं। [[षट्खण्डागम]] में कई समुच्चयों पर लागरिथमिक फंक्शन्स आधार 2 की क्रिया, उनका वर्ग निकालकर, उनका वर्गमूल निकालकर और सीमित या असीमित घात लगाकर की गई हैं। इन क्रियाओं को बार बार दुहराकर नये समुच्चय बनाये गये हैं। अन्य कृतियों में [[द्विपद प्रसार]] (binomial expansion) में आने वाले गुणकों का संयोजनों की संख्या से संबंध दिखाया गया है। चूंकि जैन ज्ञान मीमांसा में वास्तविकता का वर्णन करते समय कुछ अंश तक अनिश्चयता स्वीकार्य है। अतः [[अनिर्धार्य समीकरण|अनिश्चयात्मक समीकरणों]] से जूझने में और अपरिमेय संख्याओं का निकटतम संख्यात्मक मान निकालने में वह संभवतया सहायक हुई।
 
बौद्ध साहित्य भी अनिश्चयात्मक और असीम संख्याओं के प्रति जागरूकता प्रदर्शित करता है। बौद्ध गणित का वर्गीकरण ''''गणना'''' याने सरल गणित या ''''सांख्यन'''' याने उच्चतर गणित में हुआ। संख्यायें तीन प्रकार की मानी गईं : सांखेय याने गिनने योग्य, असांखेय याने अगण्य और अनन्त याने असीम। अंक [[शून्य]] की परिकल्पना प्रस्तुत करने में, शून्य के संबंध में दार्शनिक विचारों ने मदद की होगी। ऐसा लगता है कि [[स्थानीय मान]] वाली सांख्यिक प्रणाली में सिफर याने बिन्दु का एक खाली स्थान में लिखने का चलन बहुत पहले से चल रहा होगा, पर शून्य की बीजगणितीय परिभाषा और गणितीय क्रिया से इसका संबंध 7 वीं सदी में [[ब्रह्मगुप्त]] के गणितीय ग्रंथों में ही देखने को मिलता है। विद्वानों में इस मसले पर मतभेद है कि शून्य के लिए संकेत चिन्ह भारत में कबसे प्रयुक्त होना शुरू हुआ। इफरा का दृढ़ विश्वास है कि [[शून्य]] का प्रयोग [[आर्यभट्ट]] के समय में भी प्रचलित था। परंतु गुप्तकाल के अंतिम समय में शून्य का उपयोग बहुतायत से होने लगा था। 7 वीं और 11 वीं सदी के बीच में भारतीय अंक अपने आधुनिक रूप में विकसित हो चुके थे और विभिन्न गणितीय क्रियाओं को दर्शाने वाले संकेतों जैसे धन, ऋण, वर्गमूल आदि के साथ आधुनिक गणितीय संकेत चिन्हों के नींव के पत्थर बन गए।
 
== भारतीय अंक प्रणाली ==