"सुबन्धु": अवतरणों में अंतर

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सुबन्धु छठी शताब्दी ईस्वी में हुए ऐसा कहा जाता है। सुबन्धु ने अपने ग्रन्थ में ''''श्रीपर्वतः इव सन्निहितः मल्लिकार्जुनः'''' ऐसा [[श्रीशैल]] के विषय में कहा है, इससे वे [[दाक्षिणात्य]] थे ऐसा विद्वानों का मत है। उनके काव्य में वर्णनात्मक भाग अधिक है। यद्यपि सुबन्धु ने अपने काव्य में [[उपमा]], [[रूपक]], [[विरोधाभास अलंकार|विरोधाभास]], [[उत्प्रेक्षा]], [[परिसंख्या]] आदि अलंकारों का भी उपयोग किया है, तथापि [[श्लेष अलंकार]] इनका प्रिय रहा है। सुबन्धु की भाषा सुलभ और सरल है। केवल ''वासवदत्ता'' ही इनकी एक कृति है।
 
== संदर्भसन्दर्भ ==
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