"इस्पात निर्माण": अवतरणों में अंतर

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आधुनिक काल में इस्पात का व्यवसायिक निर्माण [[बेसमेर विधि]] की खोज के बाद शुरु हुआ। बेसमेर विधि से इस्पात का उत्पादन काफी सस्ता हो गया। बाद में [[गिलक्रिस्ट-थोमस विधि]] के आने से बेसमेर विधि में और ज्यादा सुधार हुआ। बाद में [[सीमन-मार्टिन विधि]] की खोज से इस्पात निर्माण और भी सुगम हो गया।
 
[[लोहा]] धरती के गर्भ में स्वतंत्र अवस्था में नहीं पाया जाता है, बल्कि यह ऑक्सीजन और सल्फर के साथ यौगिक अवस्था में पाया जाता है। मूल रुपरूप से लौहे के दो अयस्क होते हैं- हेमाटाइट (एफ2ओ3) और पाइराइट (एफएस2)। हेमाटाइट से लौहे को [[निष्कर्षण]] किया जाता है, जिससे ऑक्सीजन अलग हो जाता है। लौह अयस्क से लोहे को अलग करना लौह निष्कर्षण कहलाता है। लौहे के निष्कर्षण में कार्बन की उपस्थिति में लोहे को गलाया जाता है। इस क्रिया को प्रगलन कहते हैं। शुरु-शुरु में कम गलनांक वाले धातुओं का प्रगलन किया जाता था। तांबे का गलनांक 1000 डिग्री सेल्सिसियस है, जबकि टीन 250 डिग्री सेल्सियस पर पिघल जाता है। कास्ट आयरन का गलनांक 1370 डिग्री सेल्सियस है। 800 डिग्री सेल्सियस के बाद ऑक्सीकरण दर तेजी से बढ़ जाता है। यही कारण है कि प्रगलन की क्रिया निम्न-ऑक्सीजन वाले वातावरण में करायी जाती है। तांबे और टीन के विपरीत, कार्बन तरह लोहे में आसानी से घुल जाता है। इस तरह से लोहे में कार्बन के मिश्रण से इस्पात बनाया जाता है।
 
[[अयस्क]] (ore) से अधिक से अधिक धातु प्राप्त करने के लिए अवकारक वस्तु, कार्बन, बहुतायत से मिलाई जाती है। कार्बन बाद में इच्छित मात्रा तक आक्सीकरण की क्रिया द्वारा निकाल दिया जाता है। इससे साथ के दूसरे तत्वों का भी, जिनका अवकरण हुआ रहता है और जो आक्सीकरणीय होते हैं, आक्सीकरण हो जाता है।