"ज़मींदारी प्रथा": अवतरणों में अंतर
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सन् 1707 ई0 में औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात् कृषकों के अधिकारों का लोप धीरे-धीरे आरंभ हुआ जब कि केंद्रीय सत्ता शिथिल पड़ने लगी। इस आराजकता के समय में अर्धसामंतवादी स्वार्थो की मनोभावना का प्रादुर्भाव हुआ। जब राज्य की सत्ता शिथिल पड़ने लगी, राज्य के कर्मचारी प्रजा के जानमाल की रक्षा करने में असमर्थ होने लगे। फलस्वरूप ग्रामनिवासी रक्षा के लिये शक्तिशाली कर्मचारी एवं राजा या मुखिया लोगों का सहारा लेने लगे। इन लोगों ने स्वभावत: शरणार्थी कृषकों के भूम्यधिकारों पर आक्रमण किया। इन परिस्थितियों में जमींदारी प्रथा के अंकुर पाए जाते हैं। परंतु इस संकटकाल में भी कृषकों के भूम्यधिकारों का पूर्ण समर्पण नहीं हुआ था।
भारत में अंग्रेजों के आगमनकाल से ही जमींदारी प्रथा का उदय होने लगा। अंग्रेज शासकों का विश्वास था कि वे भूमि के स्वामी हैं और कृषक उनकी प्रजा हैं इसलिये उन्होंने स्थायी तथा अस्थायी बंदोबस्त बड़े कृषकों तथा राजाओं और जमींदारों से किए। यद्यपि राजनीतिक औचित्य से प्रभावित होकर उसने एक एक परगना हर कर वसूल करनेवाले इजारेदार को पाँच वर्ष के लिये पट्टे पर दे दिया। इस प्रकार जमींदारी प्रथा को अंग्रजों ने मान्यता प्रदान की यद्यपि आरंभ में उनका विचार कृषकों को उनके अधिकारों से वंचित करने का नहीं था सन् 1786 ई0 में लार्ड कार्न वालिस, वारेन हेस्टिगज के बाद, गर्वनर जनरल हुआ। लार्ड कार्नवालिस भी जमींदारी प्रथा के पक्ष में था। उसने सन् 1791 ई0 बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा में दस वर्षीय बंदोबस्त की आज्ञा दी। दो वर्ष पश्चात् बोर्ड
मद्रास में जमींदारी प्रथा का उदय अंग्रेज शासकों की नीलाम नीति द्वारा हुआ। गाँवों की भूमि का विभाजन कर उन्हें नीलाम कर दिया जाता था और अधिकतम मूल्य देनेवाले को विक्रय कर दिया जाता था। प्रारंभ में अवध में बंदोबस्त कृषक से ही किया गया था परंतु तदनंतर राजनीतिक कारणों से यह बंदोबस्त जमींदारों से किया गया। महान इतिहासकार सर विंसेंट ए0 स्मिथ, अलीगढ़ की बंदोबस्त रिपोर्ट में, यह बात स्पष्ट रूप से स्वीकार करता है कि प्रचलित भूम्यधिकारों की उपेक्षा करते हुए केवल उपयोगिता को लक्ष्य में रखकर बंदोबस्त इजारदारों (revenue farmers) से किए गए। अन्यायपूर्ण करराशि इकट्ठा करने का यह सबसे सरल उपाय है तथा यह राजनीति के दृष्टिकोण से भी उपयोगी है क्योंकि इसके फलस्वरूप सरकार का एक शक्तिशाली तथा धनी वर्ग की सहायता मिलती रहेगी।
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इन भूमि सुधार अधिनियमों के बनने पर भी जमींदारी प्रथा की बुराइयाँ विद्यमान रहीं, यद्यपि काफी हद तक जमींदारों को पंगु बना दिया गया था। इन जमींदारों को नेह डिग्री जी ‘ब्रिटिश सरकार की अतिलालित संतान (Spoilt child)’ कहा करते थे। वे भूतकालीन सामंतवादी प्रथा के प्रतीक थे जो कि आधुनिक परिस्थतियों के बिल्कुल प्रतिकूल हो गई थी। इसलिए इंडियन नेशनल कांग्रेस ने कई बार इस बात की घोषणा की कि जमींदारी उन्मूलन को कांग्रेस के कार्यक्रम में प्रमुख स्थान देना चाहिए। एक किसान कांफ्रेंस तारीख 27,28 अप्रैल सन् 1935 ई0 को सरदार पटेल के सभापतित्व में इलाहाबाद में हुई थी। उसने जमींदारी उन्मूलन को प्रस्ताव पास करके इस ओर एक प्रमुख कदम उठाया इस प्रस्ताव में यह घोषणा की गई थी कि ‘ग्रामकल्याण के दृष्टिकोण से वर्तमान जमींदारी प्रथा बिल्कुल विपरीत है। यह प्रथा ब्रिटिश शासन के आगमन में लाई गई और इससे ग्रामीण जीवन पूर्णतया तहस नहस हो गया है’। परंतु सन् 1939 ई0 में द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू हो जाने के कारण भूमि सुधार का सारा कार्यक्रम रूक गया।
युद्ध की समाप्ति के बाद जमींदारी प्रथा के अंत का अंतिम चरण आरंभ हुआ जो सन् 1945 से 1955 तक चला। युद्ध समाप्त होते ही ब्रिटिश सरकार ने 1945 ई0 में [[गवर्नमेंट
=== समाप्ति ===
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