"भाषा दर्शन": अवतरणों में अंतर
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: ''ओंकार पृच्छामः को धातुः, किं प्रातिपदिकम्, किं नामाख्यातम्, किं लिङ्गम्, किं वचनम्, का विभक्तिः, कः प्रत्यय इति।'' <ref>[[गोपथब्राह्मण]], प्रथम प्रपाठक, 1.24 </ref>
ये प्रश्न भाषा की आन्तरिक मीमांसा को सम्बोधिति
निरुक्तकार यास्क ने नाम, आख्यात आदि के विवरण प्रस्तुत करते हुए<ref>देखें, निरुक्त 1.1 </ref> कतिपय पूर्वाचार्यों के मतों का उल्लेख किया है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि इस देश में व्याकरण की दार्शनिक-प्रक्रिया ईसा से कई सौ वर्ष पूर्व विकास के एक ऊँचे स्तर को छू चुकी थी।
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