"रूसो": अवतरणों में अंतर
Content deleted Content added
छोNo edit summary |
Sanjeev bot (वार्ता | योगदान) छो बॉट: वर्तनी एकरूपता। |
||
पंक्ति 20:
आधुनिक सभ्यता के दोषों का वर्णन करते हुए रूसो अपने समय के अन्य विचारकों की भाँति प्राकृतिक और रूढि़गत का अंतर प्रस्तुत करता है। किन्तु प्राकृतिक अवस्था की कल्पना उसके राज्य संबंधी विचारों की पुष्टि के लिए अनावश्यक सी है। रूसो के अनुसार प्राकृतिक अवस्था में जीवन सरल था। बुद्धि तथा भाषा का विकास नहीं हुआ था। मनुष्य अपनी सहज प्रवृत्तियों के अनुसार आचरण करता था। वह नैतिकता अनैतिकता से परे था। उसे न हम सुखी कह सकते हैं, न दु:खी। यह अवस्था रूसो का आदर्श नहीं है। वह बुद्धि तथा भावना का सामंजस्य चाहता है जो प्राकृतिक अवस्था के विकास की दूसरी मंजिल है। यह प्रारम्भिक जीवन की सरल निष्क्रियता तथा वैज्ञानिक सीयता की विषाक्त जटिलता के बीच की स्थिति है। भाषा का विकास, सामाजिक सहयोग, शांति और सौहार्द्र, इसकी विशेषताएँ हैं। धीरे-धीरे बुद्दि भावनाओं को पराभूत कर लेती है और श्रद्धा, विश्वास प्रेम तथा दया का स्थान अविश्वास, वैमनस्य, स्वार्थ ले लेते हैं। व्यक्तिगत संपत्ति का आविर्भाव होता है और मनुष्य दासता की शृंखला में जकड़ जाता है। आर्थिक शोषण तथा सामाजिक अत्याचार के कारण उसका व्यक्ति नष्ट हो जाता है। इस वर्णन में फ्रांस की राज्यक्रांति के पूर्व की अवस्था प्रतिबिम्बित है। इसी स्थिति से मक्ति पाने के लिए सामाजिक प्रसंविदा की आवश्यकता होती है।
रूसो की प्रारंम्भिक कृतियों तथा सामाजिक प्रसंविदा के कुछ अंशों के अवलोकन से प्रतीत होता है कि लेखक समाज व्यवस्था का विरोधी है और व्यक्ति की निरपेक्ष स्वतंत्रता में विश्वास करता है। कितु रूसो स्वयं आलोचकों द्वारा वर्णित '''समानता की उत्पत्ति''' के घोर व्यक्तिवाद और "सामाजिक प्रसंविदा' के घोर समष्टिवाद के परस्पर विरोध को नहीं मानता। अपनी प्रारंभिक कृतियों में उसका उदश्य प्रचलित मान्यताओं का खंडन मात्र था। कितु सामाजिक प्रसंविदा में वह अपना स्वतंत्र दर्शन प्रस्तुत करता है। उसके अनुसार मनुष्य सामाजिक प्राणी है। समाज में ही उसके मानवोचित गुणों का विकास हो सकता है। कितु वर्तमान समाज उसे अनावश्यक तथा अनिष्टकारी बंधनों से जकड़ देता है। प्रसंविदा का उद्देश्य ऐसे समाज की स्थापना करना है जो अपनी संपूर्ण सामूहिक शक्ति के द्वारा प्रत्येक सदस्य की स्वतंत्रता और संपत्ति की रक्षा कर सके और जिसमें प्रत्येक व्यक्ति समष्टि में सम्मिलित होकर भी अपनी ही आज्ञा का पालन करे और पूर्ववत् स्वतंत्र बना रहे। इसके लिए प्रत्येक व्यक्ति अपनी संपूर्ण शक्तियों को सामान्य संकल्प के सर्वोच्च निर्देशन में समाज को सौंप देता है और फिर समष्टि के अविभाज्य अंश के रूप में उन सभी अधिकारों को प्राप्त कर लेता है। प्रसंविदा के परिणामस्वरूप जिस राज्य की उत्पत्ति होती है वह एक नैतिक अवयवी है जिसका अपना स्वतंत्र संकल्प होता है। यह सामान्य संकल्प जो सदैव समष्टि और व्यष्टि दोनों की रक्षा और कल्याण में प्रवृत्त रहता है, समाज में विधान का
रूसो सामान्य संकल्प (जनरल विल) और सबके संकल्प (विल ऑव ऑल) में अंतर बताता है। सबका संकल्प विशेष संकल्पों (पर्टिकुलर विल्स) का योग मात्र है जो व्यक्तिगत हितों के ही स्तर पर रह जाता है। सामान्य संकल्प सदैव स्वार्थरहित तथा सामान्य हित के लिए होता है। कभी कभी रूसो बहुमत को ही सामान्य संकल्प कह देता है। वह यह भी कहता है कि परस्पर विरोधी विचारों के टकराने से जो अवशेष रहता है वही सामान्य संकल्प है। कितु ये बातें उसकी मूल धारणा के विरुद्ध हैं।
पंक्ति 30:
रूसो संसदीय प्रतिनिधित्व को सामान्य संकल्प के प्रतिकूल बताता है। वह प्रत्यक्ष जनतंत्र के पक्ष में है जो केवल उसकी जन्मभूमि जिनीवा जैसे छोटे राज्य में ही संभव है। राष्ट्रसंघ की संभावना मानते हुए भी रूसो राष्ट्रराज्य को ही विशेष महत्व देता है। जब तक सत्ता जनता के हाथ में है, सरकार का स्वरूप गौण है। सरकार केवल जनता के हित का साधन है। अत: उसे किसी भी समय बदला जा सकता है। गायर्के (Gierke) ने इसे "नित्यक्रांति (permanent revolution) का सिद्धांत कहा है। रूसो सरकार के दो अंशों की चर्चा करता है : व्यवस्थापिका तथा कार्यकारिणी। व्यवस्थापिका को वह श्रेष्ठ बताता है, क्योंकि सामान्य संकल्प उसी के द्वारा व्यक्त होता है। राजनीतिक दल सामान्य संकल्प की अभिव्यक्ति में बाधक होते हैं। अत: रूसो उनके विरुद्ध है। एक समिति अर्थ में धर्म को वह राज्य के लिए उपयोगी बताता है। समाज की सुव्यवस्था के लिए राज्य को धर्म के कुछ सिसद्धांतों को निर्दिष्ट कर देना चाहिए और जनता को उन्हें मानने के लिए बाध्य करना चाहिए।
बुद्धिवादी व्यक्तिवाद एवं प्राकृतिक विधान रूसो में कहाँ तक विद्यमान है, यह मतभेद का विषय है। किंतु इसमें संदेह नहीं कि उसने इन सिद्धांतों का अतिक्रमण किया और आधुनिक राजदर्शन में यूनानी दृष्टिकोण को पुन: प्रतिष्ठित किया जिसके अनुसार राज्य की सामूहिक चेतना ही व्यक्ति की नैतिकता और स्वतंत्रता का
== इन्हें भी देखें ==
|