सूक्त संख्या - 11, ऋषि - गृत्समद एवं हिरण्यस्तूप, निवास - द्युस्थानीय
पवित्र गायत्री मंत्र का सम्बन्ध [[सवितृ]] से ही माना जाता हैं सविता शब्द की निष्पत्ति सु धातु से हुई है जिसका अर्थ है - उत्पन्न करना, गति देना तथा प्रेरणा देनादेना। । सवितृ देव का सूर्य देवता से बहुत साम्य है। सविता का स्वरूप आलोकमय तथा स्वर्णिम है। इसीलिए इसे स्वर्णनेत्र, स्वर्णहस्त, स्वर्णपाद, एवं स्वर्ण जिव्य की संज्ञा दी गई है। उसका रथ स्वर्ण की आभा से युक्त है जिसे दोया अधिक लाल घोड़े खींचते है, इस रथ पर बैठकर वह सम्पूर्ण विश्व में भ्रमण करता है। इसे असुर नाम सेभी सम्बोधित किया जाता है। प्रदोष तथा प्रत्यूष दोनों से इसका सम्बन्ध है। हरिकेश, अयोहनु, अंपानपात्, कर्मक्रतु, सत्यसूनु, सुमृलीक, सुनीथ आदि इसके विशेषण हैं।
==विष्णु सूक्त==
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ऋषि - दीर्घतमा, निवास स्थान - द्युस्थानीय, सूक्त संख्या - 5
विष्णु शब्द विष धातु से बनता है जिसका अर्थ है 'व्यापनशील होना'। अर्थात तीनों लोकों में अपनी किरणों को फैलाने वालावाला। । विष्णु शब्द का एक अन्य अर्थ क्रियाशील होना भी हैहै। । यह सभी देवताओं में अधिक क्रियाशील है तथा उनकी सहायता भी करता हैहै। । ‘वृत्र’ वध के समय विष्णु ने इन्द्र की सहायता की थीथी। । ऋग्वेद में विष्णु द्वारा तीन पगों में ब्रह्माण्ड को नापने का महत्वपूर्ण कार्य का वर्णन मिलता हैहै। । विष्णु के लिए ‘त्रिविक्रम’ शब्द का प्रयोग भी मिलता है जिसका अर्थ है सूर्य रूप विष्णु पृथ्वीलोक, द्युलोक और अंतरिक्ष में अपनी किरणों का प्रसार करते हैं तथा उनके प्रकाश से जरायुज, अण्डज और उद्भिज सभी प्रकार की सृष्टि होती हैहै। । विष्णु शरीर का अधिष्ठातृ देवता हैहै। । उनका उच्चलोक परमपद है जहाँ मधु उत्सव हैहै। । पक्षियों में ‘गरुड’ इनका वाहन हैहै। । विष्णु को उरुक्रम, उरगाय भीम गिरिष्ठा, वृष्ण, गिरिजा, गिरिक्षत, सहीयान् नामों से सम्बोधित किया गया हैहै। ।