"सौन्दर्यशास्त्र": अवतरणों में अंतर
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[[नामवर सिंह]] ने दूसरा उदाहरण जॉर्ज लूकाच द्वारा रचित सौंदर्यशास्त्र नामक विशाल ग्रंथ का दिया है। वे इसे लूकाच द्वारा अपने लगभग साठ वर्षों के दीर्घ साहित्य-चिंतन को अंततः एक व्यवस्थित शास्त्र में बाँधने का विराट प्रयास करार देते हैं, ‘हज़ारों पृष्ठों का यह विशाल ग्रंथ अभी तक जर्मन भाषा में ही उपलब्ध है और जो जर्मन अच्छी तरह जानते होंगे, वही इसके बारे में कुछ विश्वासपूर्वक कह सकने में सक्षम होंगे। अंग्रेज़ी में अभी तक उसके बारे में जो कुछ कहा गया है और उसके छिटपुट अंशों से जो आभास मिला है उसके आधार पर इतना तो कहा ही जा सकता है कि इसमें समस्त कलाओं को ‘अनुकरण’ में निश्शेष करने की असफल चेष्टा की गयी है। इस प्रकार मार्क्सवादी लूकाच जब सभी कलाओं को एक शास्त्र में बाँधने चलते हैं तो अंततः अरस्तू की शरण जाने को बाध्य होते हैं। किसी अंग्रेज़ी साप्ताहिक ने इस ग्रंथ की समीक्षा के साथ एक ऐसा कार्टून छापा था, जिसमें लुकाच मार्क्स की दाढ़ी के साथ अरस्तू की शक्ल- सूरत और पोशाक में पेश आते हैं।’ नामवर सिंह की मान्यता है कि लूकाच के दृष्टांत से मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र की इस लम्बी परम्परा का एक कमज़ोर पहलू सामने आता है। वे कहते हैं कि ‘अक्सर वह स्वयं ‘कला’ नामक संस्था को चुनौती देने में चूक गया और कला की क्लासिकी परिभाषा को स्वीकार कर लेने में उसे कोई हानि नहीं दिखाई पड़ी। बुनियादी रूप में एक बार इन परिभाषाओं को स्वीकार कर लेने के बाद तो फिर थोड़े- बहुत हेर-फेर के साथ इस-उस कवि या कृति के मूल्यांकन का कार्य ही शेष रहता है; और कहने की आवश्यकता नहीं कि मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्रियों ने इस क्षेत्र में अपनी प्रतिभा का जौहर बखूबी दिखाया है— ऊँची संस्कृति के बड़े-से- बड़े विचारकों से होड़ लेते हुए। व्याख्या और मूल्यांकन की भाषा निश्चय ही भौतिकवादी भी है और ऐतिहासिक भी, लेकिन कुल मिलाकर वह प्रभुत्वशाली परम्परा से बहुत अलग नहीं है।’
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1. डी.ई. कूपर (1992), अ कम्पैनियन टू एस्थेटिक्स, ब्लैकवेल, ऑक्सफ़र्ड, 1992
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