"अंग्रेजी हटाओ आंदोलन": अवतरणों में अंतर

छो बॉट: डॉट (.) को लाघव चिह्न (॰) से बदला।
छो बॉट: वर्तनी एकरूपता।
पंक्ति 1:
 
स्वतंत्र [[भारत]] में साठ के दशक में '''अंग्रेजी हटाओं-हिन्दी लाओ''' के आंदोलन का सूत्रपात [[राममनोहर लोहिया]] ने किया था। इस आन्दोलन की गणना अब तक के कुछ इने गिने आंदोलनों में की जा सकती है। समाजवादी राजनीति के पुरोधा डॉ॰ [[राममनोहर लोहिया]] के भाषा संबंधी समस्त चिंतन और आंदोलन का लक्ष्य भारतीय सार्वजनिक जीवन से [[अंगरेजी]] के वर्चस्व को हटाना था। लोहिया को अंगरेजी भाषा मात्र से कोई आपत्ति नहीं थी। अंगरेजी के विपुल साहित्य के भी वह विरोधी नहीं थे, बल्कि विचार और शोध की भाषा के रूप में वह अंगरेजी का सम्मान करते थे। हिन्दी के प्रचार-प्रसार में [[महात्मा गांधी]] के बाद सबसे ज्यादा काम राममनोहर लोहिया ने किया। वे सगुण समाजवाद के पक्षधर थे। उन्होंने लोकसभा में कहा था-
: ''अंग्रेजी को खत्म कर दिया जाए। मैं चाहता हूं कि अंग्रेजी का सार्वजनिक प्रयोग बंद हो, लोकभाषा के बिना लोकराज्य असंभव है। कुछ भी हो अंग्रेजी हटनी ही चाहिये, उसकी जगह कौन सी भाषाएं आती है, यह प्रश्न नहीं है। इस वक्त खाली यह सवाल है, अंग्रजी खत्म हो और उसकी जगह देश की दूसरी भाषाएं आएं। हिन्दी और किसी भाषा के साथ आपके मन में जो आए सो करें, लेकिन अंग्रेजी तो हटना ही चाहिये और वह भी जल्दी। अंग्रेज गये तो अंग्रेजी चली जानी चाहिये।
 
१९५० में जब [[भारतीय संविधान]] लागू हुआ तब उसमें भी यह व्यवस्था दी गई थी कि 1965 तक सुविधा के हिसाब से अंग्रेजी का इस्तेमाल किया जा सकता है लेकिन उसके बाद हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिया जाएगा। इससे पहले कि संवैधानिक समयसीमा पूरी होती, डॉ राममनोहर लोहिया ने 1957 में अंग्रेजी हटाओ मुहिम को सक्रिय आंदोलन में बदल दिया। वे पूरे भारत में इस आंदोलन का प्रचार करने लगे। 1962-63 में जनसंघ भी इस आंदोलन में सक्रिय रूप से शामिल हो गया। लेकिन इस दौरान दक्षिण भारत के राज्यों (विशेषकर तमिलनाडु में) आंदोलन का विरोध होने लगा। तमिलनाडु में अन्नादुरई के नेतृत्व में डीएमके पार्टी ने हिंदी विरोधी आंदोलन को और तेज कर दिया। इसके बाद कुछ शहरों में आंदोलन का हिंसक रूप भी देखने को मिला। कई जगह दुकानों के ऊपर लिखे अंग्रेजी के साइनबोर्ड तोड़े जाने लगे। उधर 1965 की समयसीमा नजदीक होने की वजह से तमिलनाडु में भी हिंदी विरोधी आंदोलन काफी आक्रामक हो गया। यहां दर्जनों छात्रों ने आत्मदाह कर ली। इस आंदोलन को देखते हुए केंद्र सरकार ने 1963 में संसद में राजभाषा कानून पारित करवाया। इसमें प्रावधान किया गया कि 1965 के बाद भी हिंदी के साथ-साथ अंग्रेजी का इस्तेमाल राजकाज में किया जा सकता है।
 
‘अंग्रेजी हटाओ’ आंदोलन को उन दिनों यह कहकर खारिज करने की कोशिश की गई कि अगर अंग्रेजी की जगह हिंदी आयेगी तो हिन्दी का वर्चस्ववाद कायम होगा और तटीय भाषाएँ हाशिए पर चली जायेंगी। सत्ताधारियों ने हिन्दी को साम्राज्यवादी भाषा के के रूप में पेश कर हिन्दी बनाम अन्य भारतीय भाषाओं (बांग्ला, तेलुगू , तमिल, गुजराती, मलयालम) का विवाद छेड़ इसे राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता के लिए खतरा बता दिया। इसे देश जोड़क भाषा नहीं, देश तोड़क भाषा बना दिया। लोहिया ने इस बात का खंडन करते हुए कहा कि स्वाधीनता आंदोलन में हिन्दी ने देश जोड़क भाषा का काम किया है। देश में एकता स्थापित की है, आगे भी इस भाषा में संभावना है। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि यदि हिंदी को राजकाज, प्रशासन, कोर्ट-कचहरी की भाषा नहीं बनाना चाहते तो इसकी जगह अन्य किसी भी भारतीय भाषा को बना दिया जाए। जरूरी हो तो हिन्दी को भी शामिल कर लिया जाए। लेकिन भारत की मातृभाषा की जगह अंग्रेजी का वर्चस्ववाद नहीं चलना चाहिए। <ref>[http://vle.du.ac.in/mod/book/print.php?id=8468#ch10956 राममनोहर लोहिया का भाषा-चिंतन]</ref>
पंक्ति 18:
 
यह यह आंदोलन सफल होता तो आज भाषाई त्रासदी का यह दौर न देखना पडता। लोहिया इस तर्क कि "अंग्रेजी का विरोध न करें, हिन्दी का प्रचार करें" की अंतर्वस्तु को भली भांति समझते थे। वे जानते थे कि यह एक ऐसा भाषाई षडयंत्र है जिसके द्वारा औपनिवेशिक संस्कृति की मृत प्राय अमरबेल को पुन: पल्लवित होने का अवसर प्राप्त हो जायेगा। उनका कहना था,
: ''जिस जबान में सरकार का काम चलता है, इसमें समाजवाद तो छोड़ ही दो, प्रजातंत्र भी छोड़ो, इमानदारी और बेईमानी का सवाल तक इससे जुड़ा हुआ है। यदि सरकारी और सार्वजनिक काम ऐसी भाषा में चलाये जाएँ, जिसे देश के करोड़ों आदमी न समझ सकें, तो यह केवल एक प्रकार का जादू-टोना होगा। जिस किसी देश में जादू-टोना-टोटका चलता है, वहां क्या होता है? जिन लोगों के बारे में मशहूर हो जाता है कि वे जादू वगैरह से बीमारियाँ आदि अच्छी कर सकते है, उनकी बन आती है। ऐसी भाषा में जितना चाहे झूठ बोलिए, धोखा कीजिये, सब चलता रहेगा, क्योंकि लोग समझेंगे ही नहीं। आज शासन में लोगो की दिलचस्पी हो तो कैसे हो'' – डॉ॰ राममनोहर लोहिया.
 
==सन्दर्भ==