"सिंहासन बत्तीसी": अवतरणों में अंतर

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== इतिहास व रचना काल ==
'''सिंहासन बत्तीसी''' मूलतः संस्कृत की रचना '''सिंहासनद्वात्रिंशति''' का हिन्दी रूपांतर है, जिसे '''द्वात्रिंशत्पुत्तलिका''' के नाम से भी जाना जाता है। संस्कृत में भी इसके मुख्यतः दो संस्करण हैं. उत्तरी संस्करण में "सिंहासनद्वात्रिंशति" के नाम से तथा दक्षिणी संस्करण में "विक्रमचरित" के नाम से उपलब्ध है। पहले के संस्कर्ता क्षेमेन्द्र मुनि कहे जाते हैं। बंगाल में वररुचि के द्वारा प्रस्तुत संस्करण भी इसी के समरूप माना जाता है। इसका दक्षिणी रूप अधिक लोकप्रिय हुआ. सिंहासन बत्तीसी भी '''वेताल पच्चीसी''' या '''वेतालपञ्चविंशति''' की भांति बहुत लोकप्रिय हुआ। लोकभाषाओं में इसके अनुवाद होते रहे और पौराणिक कथाओं की तरह भारतीय समाज में मौखिक परम्परा के रूप में रच-बस गए। इन कथाओं की रचना "वेतालपञ्चविंशति" या "वेताल पच्चीसी" के बाद हुई. पर निश्चित रूप से इनके रचनाकाल के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता है। इतना लगभग तय है कि इनकी रचना धारा के राजा भोज के समय में नहीं हुई। चूंकि प्रत्येक कथा राजा भोज का उल्लेख करती है, अत: इसका रचना काल ११वीं शताब्दी के बाद होगा।
 
== कथा की भूमिका ==