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[[चित्र:love poems of ghananand.jpg | thumb|right|150px|घनानंद की काव्य रचनाओं का अंग्रेज़ी अनुवाद]]
'''घनानंद''' (१६७३- १७६०) [[रीतिकाल]] की तीन प्रमुख काव्यधाराओं- रीतिबद्ध, रीतिसिद्ध और रीतिमुक्त के अंतिम काव्यधारा के अग्रणी कवि हैं।
==जीवन परिचय==
अनुमान से इनका जन्मकाल संवत १७३० के आसपास है। इनके जन्मस्थान और जनक के नाम अज्ञात हैं। आरंभिक जीवन [[दिल्ली]] तथा उत्तर जीवन
कहा जाता है कि ये शाहंशाह मुहम्मदशाह रँगीले के दरबार में मीरमुंशी थे और 'सुजान' नामक नर्तकी पर आसक्त थे। एक दिन दरबारियों ने बादशाह से कह दिया कि मुंशी जी गाते बहुत अच्छा हैं। उसने इनका गाना सनने की हठ पकड़ ली। पर ये गाना सुनाने में अपनी अशक्ति का ही निवेदन करते रहे। अंत में बादशाह से कहा गया था कि यदि सुजान बुलाई जाय तो ये गाना सुनाएँगे। वह बुलाई गई और इन्होंने उसकी ओर उन्मुख होकर सचमुच गाया और ऐसा गाया कि सारा दरबार मंत्रमुग्ध हो गया। बादशाह ने आज्ञा की अवहेलना के अपराध में इन्हें दिल्ली से निष्कासित कर दिया। सुजान ने इनका साथ नहीं दिया। वहाँ से वे वृंदावन चले गए और निंबार्क संप्रदायाचार्य श्रीवृंदावनदेव से दीक्षा ग्रहण की। इनका सखीभावसूचक नाम 'बहुगुनी' था।
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इनका 'व्रजवर्णन' यदि 'व्रजस्वरूप' ही है तो इनकी सभी ज्ञात कृतियाँ उपलब्ध हो गई हैं। छंदाष्टक, त्रिभंगी छंद, कबित्तसंग्रह-स्फुट वस्तुत: कोई स्वतंत्र कृतियाँ नहीं हैं, फुटकल रचनाओं के छोटे छोटे संग्रह है। इनके समसामयिक [[व्रजनाथ]] ने इनके ५०० कवित्त सवैयों का संग्रह किया था। इनके कबित्त का यह सबसे प्राचीन संग्रह है। इसके आरंभ में दो तथा अंत में छह कुल आठ छंद व्रजनाथ ने इनकी प्रशस्ति में स्वयं लिखे। पूरी 'दानघटा' 'घनआनंद कबित्त' में संख्या ४०२ से ४१४ तक संगृहीत है। परमहंसवंशावली में इन्होंने गुरुपरंपरा का उल्लेख किया है। इनकी लिखी एक फारसी मसनवी भी बतलाई जाती है पर वह अभी तक उपलब्ध नहीं है।
घनानंद ग्रंथावली में उनकी १६ रचनाएँ संकलित हैं। घनानंद के नाम से लगभग चार हजार की संख्या में [[कवित्त]] और [[सवैया|सवैये]] मिलतें हैं।
== काव्यगत विशेषताएँ ==
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=== कलापक्ष ===
घनानंद भाषा के धनी थे। उन्होंने अपने काव्य में ब्रजभाषा का प्रयोग किया है। रीतिकाल की यही प्रमुख भाषा थी।
घनानंद ने अपने काव्य में अलंकारो का प्रयोग अत्यंत सहज ढंग से किया है। उन्होंने काव्य में [[अनुप्रास]], [[यमक]], [[उपमा]], [[रूपक]], [[उत्प्रेक्षा]] एवं विरोधाभास आदि अलंकारो का प्रयोग बहुलता के साथ हुआ है। 'विरोधाभास ' घनानंद का प्रिय अलंकर है।
: ''विरोधाभास के अधिक प्रयोग से उनकी कविता भरी पड़ी है। जहाँ इस प्रकार की कृति दिखाई दे, उसे निःसंकोच इनकी कृति घोषित किया जा सकता है। ''
पंक्ति 41:
:''इते पैर एक सी बाट चहों। ''
घनानंद नायिका सुजान का वर्णन अत्यंत रूचिपूर्वक करतें हैं।
:''रावरे रूप की रीति अनूप नयो नयो लागत ज्यों ज्यों निहारिये। '' <br />
पंक्ति 58:
:''जान अजान लौं टूक कियौ पर बाँचि न देख्यो। ''
रूप सौंदर्य का वर्णन करने में कवि घनानंद का कोई सानी नहीं है।
:''स्याम घटा लिपटी थिर बीज की सौहैं अमावस-अंक उजयारी। ''
पंक्ति 65:
:''कैसी फबी घनानन्द चोपनि सों पहिरी चुनी सावँरी सारी ॥''
घनानंद के काव्य की एक प्रमुख विशेषता है- भाव प्रवणता के अनुरूप अभिव्यक्ति की स्वाभाविक वक्रता।
:''नेही सिरमौर एक तुम ही लौं मेरी दौर'' <br />
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<poem>
बहुत दिनान को अवधि आसपास परे,
कहि कहि आवन छबीले मनभावन को,
झूटी बतियानि की पतियानि तें उदास हैव कै,
अधर लगे हैं आनि करि कै पयान प्रान,
</poem>
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== बाहरी कड़ियाँ ==
* [http://www.kavitakosh.org/kk/index.php?title=%E0%A4%98%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%82%E0%A4%A6 घनानंद की रचनाएँ कविता कोश में]
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{{रीति काल के कवि}}
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