"चिंपैंजी": अवतरणों में अंतर

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''[[बोनोबो|पैन पैनिस्कस]]'' (बोनोबो)<br />
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| range_map_caption = ''पैन ट्रोग्लोडाइट्स'' (आम चिंपैंजी) और ''पैन पैनिस्कस'' (लाल बोनोबो) का वितरण
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=== सामाजिक संरचना ===
चिम्पांजी, अनेक नर और मादा वाले सामाजिक समूहों में रहते हैं जिन्हें समुदाय कहा जाता है। समुदाय के भीतर एक निश्चित सामाजिक पदानुक्रम होता है जो एक सदस्य की सामाजिक स्थिति और दूसरों पर उसके प्रभाव से निर्धारित होता है। चिम्पांजी एक निम्न (लीनर) पदानुक्रम में रहते हैं जिसमें एक से अधिक सदस्य इतने प्रभावी हो सकते हैं कि वे कम रैंक वाले अन्य सदस्यों पर अपना दबदबा कायम कर सकें. आम तौर पर इसमें एक प्रभावशाली नर सदस्य होता है जिसे अल्फा मेल के रूप में जाना जाता है। अल्फा मेल सर्वोच्च-रैंकिंग वाला नर सदस्य होता है जो समूह पर नियंत्रण रखता है और किसी भी विवाद के दौरान व्यवस्था को बनाए रखता है। चिम्पांजी समाज में 'प्रमुख नर' हमेशा सबसे बड़ा या सबसे ताकतवर नर नहीं होता है बल्कि यह सदस्य सबसे अधिक जोड़-तोड़ करने वाला और राजनीतिक नर होता है जो एक समूह के भीतर चल रही गतिविधियों को प्रभावित कर सके। नर चिम्पांजी आम तौर पर अपना वर्चस्व ऐसे मित्र बनाकर हासिल करता है जो शक्ति के लिए उस सदस्य की भविष्य की महत्वाकांक्षाओं के मामले में सहायता प्रदान करेगा। ताकत दिखाने और दूसरों से मान्यता प्राप्त करने की कोशिश का प्रदर्शन करना एक नर चिम्पांजी के चरित्र में होता है जो अपनी सामाजिक स्थिति को कायम रखने के लिए बुनियादी तौर पर जरूरी हो सकता है। अल्फा नर अपनी शक्ति पर पकड़ और अधिकार को बनाए रखने के प्रयास में अन्य सदस्यों को धमकाने के लिए अपने आकार को बड़ा और डरावना दिखाने और जितना अधिक संभव हो अपनी शक्ति का प्रदर्शन करने के लिए अक्सर अपनी सामान्य रूप से पतली खालों को फुला कर मोटा कर लेते हैं। निचली-श्रेणी के चिम्पांजी शारीरिक भाषा में आज्ञाकारी हाव-भाव बनाकर या घुरघुराते हुए अपने हाथ को बाहर निकालकर सम्मान का प्रदर्शन करते हैं। मादा चिम्पांजी अपने पुट्ठों (हाइंड-क्वार्टर्स) को पेश कर अल्फा नर के प्रति अपनी अधीनता का प्रदर्शन करती हैं।
 
मादा चिम्पांजी भी एक पदानुक्रम रखती हैं जो किसी समूह के भीतर एक मादा की व्यक्तिगत स्थिति से प्रभावित होता है। कुछ चिम्पांजी समुदायों में युवा मादाएं एक उच्च-श्रेणी की माँ से विरासत के तौर पर अपनी उच्च सामाजिक स्थिति हासिल कर सकती है। मादाएं भी निचले-क्रम की मादाओं पर अपना वर्चस्व कायम करने के लिए नए मित्र बनाती हैं। नरों के विपरीत जिनका वर्चस्व का दर्जा हासिल करने का मुख्य प्रयोजन यौन संबंधों में विशेषाधिकार प्राप्त करना और कभी-कभी अपने अधीनस्थों पर हिंसक प्रभाव दिखाना होता है, मादाएं भोजन जैसे संसाधनों को प्राप्त करने के लिए वर्चस्व का दर्जा हासिल करती हैं। उच्च-श्रेणी की मादाओं को अक्सर संसाधनों तक पहली पहुँच हासिल होती है। आम तौर पर नर और मादाएं दोनों एक समूह के भीतर सामाजिक स्थिति में सुधार के लिए प्रभावशाली दर्जा हासिल करते हैं।
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वैज्ञानिक लंबे समय से भाषा के अध्ययन के प्रति इस विश्वास के साथ आकर्षित होते हैं कि यह एक अद्वितीय मानव संज्ञानात्मक क्षमता है। इस परिकल्पना का परीक्षण करने के लिए वैज्ञानिकों ने विशालकाय वानरों की कई प्रजातियों को मानवीय भाषा सिखाने का प्रयास किया है। 1960 के दशक में एलन और बीट्रिस गार्डनर द्वारा की गयी एक शुरुआती कोशिश में वाशू नामक एक चिम्पांजी को अमेरिकी सांकेतिक भाषा सिखाने के लिए 51 महीने का समय बिताना शामिल था। गार्डनर ने बताया कि वाशू ने 151 संकेतों को सीख लिया था और यह कि उसने तत्काल इन्हें अन्य चिम्पान्जियों को सिखा दिया था।<ref>{{Cite journal| author = Gardner, R. A., Gardner, B. T. | year = 1969 | title = Teaching Sign Language to a Chimpanzee | journal = Science | volume = 165 | pages = 664–672 | doi = 10.1126/science.165.3894.664 | pmid = 5793972 | issue = 894}}</ref> एक लंबी अवधि के बाद वाशू ने 800 से अधिक संकेतों को सीख लिया था।<ref>{{Cite book| author = Allen, G. R., Gardner, B. T. | year = 1980 | chapter = Comparative psychology and language acquisition | editor = Thomas A. Sebok and Jean-Umiker-Sebok (eds.) | title = Speaking of Apes: A Critical Anthology of Two-Way Communication with Man | location = New York | publisher = Plenum Press | pages = 287–329}}</ref>
 
कुछ वैज्ञानिकों, विशेषकर [[नोआम चाम्सकी|नोम चोमस्की]] और डेविड प्रिमैक के बीच गैर-मानव विशालकाय वानरों की भाषा सीखने की क्षमता के बारे में लगातार बहस चल रही है। वाशू पर शुरुआती रिपोर्ट के बाद कई अन्य अध्ययनों को विभिन्न स्तरों की सफलता प्राप्त हुई है,<ref>http://www.greatapetrust.org/bonobo/language/</ref> जिसमें [[कोलंबिया विश्वविद्यालय]] के हर्बर्ट टेरेस द्वारा प्रशिक्षित पैरोडी के रूप में रखे गए निम चिम्प्स्की नाम के एक चिम्पांजी पर किया गया अध्ययन शामिल है। हालांकि उनके प्रारंभिक रिपोर्ट काफी सकारात्मक थे, नवंबर 1979 में टेरेस और उनकी टीम ने निम के वीडियोटेपों का उसके प्रशिक्षकों के साथ पुनः मूल्यांकन किया जिसमें उन्होंने संकेतों और सही संदर्भ (निम के संकेतों के पहले और उसके बाद दोनों ही स्थितियों में क्या हो रहा था) मूल्यांकन दोनों से पहले और नीम के संकेत के बाद) के लिए फ्रेम दर फ्रेम इसका विश्लेषण किया। फिर से विश्लेषण में टेरेस ने यह निष्कर्ष निकाला कि निम के जवाबों की व्याख्या केवल प्रयोगकर्ताओं की ओर से प्रोत्साहन और आंकड़ों की जानकारी देने में त्रुटियों के रूप में की जा सकती है। उन्होंने कहा, "वानरों का अधिकांश व्यवहार, अभ्यास मात्र होता है।" "भाषा अभी भी मानव प्रजाति की एक महत्वपूर्ण परिभाषा के रूप में मौजूद है।" इस विपरीत प्रतिक्रिया में टेरेस अब यह तर्क देते हैं कि निम द्वारा एएसएल का इस्तेमाल एक मानवीय भाषा को अपनाना नहीं था। निम ने कभी स्वयं बातचीत की शुरुआत नहीं की, नये शब्दों का इस्तेमाल शायद ही कभी किया और लोगों ने जो किया उसने सिर्फ़ उसकी नकल की। निम के वाक्य इंसानी बच्चों के विपरीत ज्यादा लंबे नहीं होते थे जिनकी शब्दावली और वाक्य की लंबाई एक मजबूत आपसी संबंध को प्रदर्शित करते हैं।<ref>http://www.skeptic.com/eskeptic/07-10-31</ref>
 
==== स्मरण शक्ति ====
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हालांकि “चिम्पांजी” नाम का पहला प्रयोग 1738 तक नहीं देखा गया था। यह नाम शिलूबा भाषा के शब्द "किविली-चिम्पेन्जे" से लिया गया है जो इस जानवर का स्थानीय नाम है और इसका साधारण अनुवाद "मॉकमैन" या सम्भवतः सिर्फ़ "वानर" है। भाषा विज्ञान में "''चिम्प'' " को काफ़ी हद तक 1870 के दशक के अंत में किसी समय शामिल किया गया था।<ref>{{Cite web|url=http://dictionary.reference.com/browse/chimp |title=chimp definition &#124; Dictionary.com |publisher=Dictionary.reference.com |date= |accessdate=2009-06-06}}</ref> जीव विज्ञानियों ने ''पैन'' को इस जानवर के जीनस नाम रूप में रखा है। चिम्पांजियों तथा अन्य वानरों के बारे में कथित रूप से प्राचीन काल के पश्चिमी लेखकों को ज्ञात था; लेकिन उनकी यह जानकारी मुख्यतः यूरोपीय यात्रियों के खंडित वर्णनों से उपजे यूरोपीय और अरब समाज के मिथकों या किंवदंतियों पर ही आधारित थी। वानरों का उल्लेख [[अरस्तु|अरस्तू]] और अंग्रेजी [[बाइबिल|बाइबल]] में भी कई जगह किया गया है जहाँ इन्हें सोलोमन द्वारा एकत्र किये जाने के रूप में वर्णित किया गया है। (1 किंग्स 10:22. हालांकि हिब्रू शब्द ''qőf'' का मतलब वानर हो सकता है). [[कुर॑आन|कुरान]] में भी वानरों का उल्लेख किया गया है (7:166), जहाँ ''शब्बत'' का उल्लंघन करने वाले इजरायलियों से अल्लाह कहते हैं "बी ये एप्स".
 
इन प्रारम्भिक अंतरमहाद्वीपीय चिम्पांजियों में से पहला अंगोला से आया था और उसे 1640 में ओरेंज के राजकुमार फ़्रेडरिक हेनरी को उपहार स्वरूप भेंट किया गया था और अगले कई सालों तक इसके भाई-बंधुओं द्वारा इस सिलसिले का अनुसरण किया गया था। वैज्ञानिकों ने इन पहले चिम्पांजियों का वर्णन "[[पिग्मी|पिग्मीज]]" के रूप में किया और मनुष्य के साथ इनकी गहरी समानता पर ध्यान दिया। अगले दो दशकों में यूरोप में अनेकों जीवों का आयात किया गया जिन्हें मुख्यतः विभिन्न प्राणी उद्यानों में दर्शकों के मनोरंजन हेतु मंगाया गया था।
 
[[चित्र:HugoRheinholdApeWithSkull.DarwinMonkey.2.jpg|thumb|left|100px|ह्यूगो रीन्होल्ड की 'एफे मिट शाडेल ("दिमाग वाला वानर"), 19 वीं सदी के अंत में चिम्पांजियों को किस प्रकार देखा जाता था उसका एक उदाहरण है।]]
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[[चित्र:Lightmatter chimp.jpg|thumb|right|लॉस एंजिल्स चिड़ियाघर में चिम्पांजी]]
20वीं सदी में चिम्पांजी व्यवहार में वैज्ञानिक शोध के एक नए अध्याय का शुभारंभ हुआ। 1960 से पहले चिम्पांजी के अपने प्राकृतिक आवास में उसके व्यवहार के बारे में लगभग कोई भी जानकारी नहीं थी। उसी साल जुलाई में जेन गुडऑल [[तंज़ानिया|तंजानिया]] के गोम्बे वन में चिम्पांजियों के बीच रहने के लिये चली गयीं जहाँ उन्होंने प्राथमिक रूप से कासाकेला चिम्पांजी समुदाय के सदस्यों पर अध्ययन किया। उनकी यह खोज धमाकेदार थी कि चिम्पांजी अपने औजार स्वयं बनाते थे और उनका उपयोग करते थे, क्योंकि पहले यह माना जाता था कि ऐसा करने वाली एकमात्र प्रजाति मानव है। चिम्पांजियों पर सबसे अधिक प्रगतिशील प्रारंभिक अध्ययन वोल्फ़गैंग कोहलर और राबर्ट यर्केस द्वारा किये गये थे, दोनों ही प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक थे। दोनों वैज्ञानिकों और उनके साथियों ने चिम्पांजियों की सीखने, विशेषकर समस्या को सुलझाने की बौद्धिक क्षमता के बारे में अध्ययन पर खास तौर से ध्यान केंद्रित करने वाले चिम्पांजियों के प्रयोगशाला अध्ययनों को निर्धारित किया। इसमें प्रयोगशाला के चिम्पांजियों पर विशेष रूप से बुनियादी, व्यावहारिक परीक्षणों को शामिल किया गया था जिसके लिये साफ़ तौर पर एक उच्च स्तरीय बौद्धिक क्षमता (जैसे कि पहुँच से दूर मौजूद केले को हासिल करने की समस्या का समाधान कैसे करें) की आवश्यकता थी। उल्लेखनीय रूप से यर्केस ने जंगलों में चिम्पांजियों पर विस्तारित परीक्षण किये जिससे चिम्पांजियों और उनके व्यवहार की वैज्ञानिक समझ को विकसित करने में काफ़ी मदद मिली। यर्केस ने [[द्वितीय विश्वयुद्ध|द्वितीय विश्व युद्ध]] के समय तक चिम्पांजियों पर अध्ययन किया जबकि कोहलर ने पाँच वर्ष के अध्ययन के नतीजे को अपनी प्रसिद्ध रचना 1925 में (जो संयोगवश वही समय था जब यर्केस ने अपना विश्लेषण ''शुरु'' किया था) ''मेंटालिटी आफ़ एप्स'' में प्रकाशित किया, उन्होंने अंततः यह निष्कर्ष दिया कि "चिम्पांजी मनुष्यों में देखे जाने वाले सामान्य तरह के बौद्धिक व्यवहार को विकसित कर लेते हैं।.. एक ऐसा व्यवहार जिसे विशेष तौर पर मनुष्यों में देखा जाता है" (1925).<ref name="goodall">{{Cite book| last = Goodall | first = Jane | authorlink = Jane Goodall | year = 1986 | title = The Chimpanzees of Gombe: Patterns of Behavior | isbn = 0-674-11649-6 | publisher = Belknap Press of Harvard University Press | location = Cambridge, Mass.}}</ref>
 
''अमेरिकन जर्नल आफ़ प्राइमेटोलोजी'' के अगस्त 2008 के अंक में तंजानिया के महाले माउंटेन्स नेशनल पार्क में चिम्पांजियों पर एक साल तक चले एक अध्ययन के परिणामों के बारे में बताया गया था जिसमें यह साक्ष्य प्रस्तुत किये गये थे कि चिम्पांजी वायरस के संक्रमण से होने वाली बीमारियों के शिकार होते हैं जो संभवतः उन्हें मनुष्यों के सम्पर्क से हुआ होगा। आणविक, सूक्ष्मदर्शीय और महामारी संबंधी जाँचों ने यह दिखाया कि महाले माउंटेन नेशनल पार्क में रहने वाले चिम्पांजी एक सांस की बीमारी से ग्रस्त थे जिसका कारण सम्भवतः मानव पारामाइक्सोवायरस का एक प्रकार था।<ref>[http://newswise.com/articles/view/541407/ न्यूज़वाइज़: रिसर्चर्स फाइंड ह्यूमन वायरस इन चिम्पांजी] 5 जून 2008 को प्राप्त किया गया।</ref>
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चिम्पांजी जीनोम के प्रकाशन के साथ प्रयोगशालाओं में चिम्पांजियों के इस्तेमाल को बढ़ाने की कथित तौर पर योजनाएं तैयार की गयी हैं जिसके बारे में कुछ वैज्ञानिकों का तर्क है कि शोध के लिये चिम्पांजियों के प्रजनन पर संघीय प्रतिबंध (फ़ेडरल मोरेटोरियम) को हटा लिया जाना चाहिये। <ref name="Lovgren"/><ref name="Langley15">लैंगली, गिल. [http://www.eceae.org/english/documents/NoKReport.pdf नेक्सट टू किन: ए रिपोर्ट ऑन दी यूज़ ऑफ प्रिमेट्स इन एक्सपेरिमेंट्स], विभाजन के उन्मूलन के लिए ब्रिटिश संघ, पी. 15, सिटिंग वंडेबर्ग, जेएल, एट ऑल. "ए यूनिक बायोमेडिकल रिसोर्स एट रिस्क", नेचुरल 437:30-32.</ref> यू.एस. नेशनल इन्स्टिट्यूट्स आफ़ हेल्थ (एनआईएच) द्वारा 1996 में पाँच साल का एक प्रतिबंध लगाया गया था क्योंकि एचआईवी संबंधी शोध के लिये बड़ी संख्या में चिम्पांजियों को पैदा किया जा रहा था और इसे 2001 के बाद से वार्षिक रूप से आगे बढ़ाया जा रहा था।<ref name="Lovgren"/>
 
अन्य शोधकर्ताओं का तर्क है कि चिम्पांजी विशिष्ट प्रकार के जानवर हैं और इनका इस्तेमाल या तो प्रयोगशालाओं में नहीं किया जाना चाहिये या फ़िर इनके साथ अलग तरह से व्यवहार किया जाना चाहिये। एक विकासवादी जीव विज्ञानी और सैन डियेगो में कैलिफ़ोर्निया विश्वविद्यालय के प्राइमेट विशेषज्ञ, पास्कल गैग्नियक्स यह तर्क देते हैं कि चिम्पांजियों की अपने बारे में समझ, औजारों का इस्तेमाल और मनुष्यों से आनुवंशिक समानता को देखते हुए चिम्पांजियों के इस्तेमाल से किये जाने वाले अध्ययनों में उन नैतिक दिशानिर्देशों का पालन किया जाना चाहिये जिन्हें आम-सहमति देने में अक्षम मानवीय विषयों के लिये इस्तेमाल किया जाता है।<ref name="Lovgren"/> इसके अलावा हाल के एक अध्ययन में यह बताया गया है कि प्रयोगशालाओं से मुक्त किये गये चिम्पांजियों में यातना के बाद होने वाली एक तनाव संबंधी समस्या देखी जाती है।<ref>{{Cite journal|url=http://www.releasechimps.org/pdfs/ExecSumTraumaFINAL.pdf|title=Building an Inner Sanctuary: Complex PTSD in Chimpanzees|publisher=Journal of Trauma and Dissociation|author=Bradshaw, G.A. et al|volume=9|issue=1|pages=9–34}}</ref> यर्केस नेशनल प्राइमेट रिसर्च लैबोरेटरी के निदेशक, स्टुअर्ट ज़ोला इस बात से सहमत नहीं हैं। उन्होंने ''नेशनल ज्योग्राफ़िक'' को बताया: "मुझे नहीं लगता है कि हमें किसी प्रजाति के साथ मानवीय रूप से व्यवहार करने के लिये अपने दायित्व के बीच किसी तरह का अंतर रखना चाहिये, चाहे यह कोई चूहा हो या बंदर हो या फ़िर चिम्पांजी. इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता है कि हम इसका कितना भला चाह सकते हैं, आखिरकार चिम्पांजी इंसान नहीं हैं।"<ref name="Lovgren"/>
 
सरकारों द्वारा विशाल वानरों के शोध पर प्रतिबंध लगाने की संख्या बढ़ती जा रही है जो शोध या जहरीले परीक्षणों में चिम्पांजियों और अन्य विशाल वानरों के इस्तेमाल पर रोक लगाती है।<ref>गुल्डबर्ग, हेलेन. [http://www.spiked-online.com/Articles/000000005549.htm दी ग्रेट ऐप डिबेट], ''स्पिक्ड ऑनलाइन'' 29 मार्च 2001. 12 अगस्त 2007 को प्राप्त किया गया।</ref> वर्ष 2006 तक [[ऑस्ट्रिया]], [[न्यूज़ीलैण्ड|न्यूजीलैंड]], [[नीदरलैण्ड|नीदरर्लैंड]], [[स्वीडन]] और ब्रिटेन ने इस तरह के प्रतिबंधों की शुरुआत की है।<ref name="Langley12">लैंगली, गिल. [http://www.eceae.org/english/documents/NoKReport.pdf नेक्सट टू किन: ए रिपोर्ट ऑन दी यूज़ ऑफ प्रिमेट्स इन एक्सपेरिमेंट्स], विभाजन के उन्मूलन के लिए ब्रिटिश संघ, पी. 12.</ref>