"जय सिंह द्वितीय": अवतरणों में अंतर

छो बॉट: वर्तनी एकरूपता।
पंक्ति 1:
{{ज्ञानसन्दूक व्यक्ति
|birth_name = विजय सिंह (मूल जन्म नाम) बाद में जयसिंह
|birth_year = सन १६८८ ईस्वी
|birth_place = आमेर
|death_year = सन १७४३
|death_place = जयपुर
|death_cause = वृद्धावस्था
|residence = [[आमेर]], [[जयपुर]], [[दिल्ली]], [[औरंगाबाद]], [[अहमदनगर]], [[दौलताबाद]], [[उज्जैन]] आदि
|nationality = भारतीय
|ethnicity = कछवाहा राजपूत
|citizenship = भारतीय
|other_names = सवाई जयसिंह (द्वितीय)
|known_for = नगर-नियोजन, कूटनीति, राजनीति, हिंदुत्व, परंपरा-अनुरक्षण, शासन-विस्तार, पुस्तक-प्रेम, विज्ञान-प्रेम
|education = पारम्परिक पद्धति से
|alma_mater = संस्कृत, फ़ारसी, अरबी, मराठी, ज्योतिष, खगोलशास्त्र, धर्मशास्त्र, वैदिक-कर्मकांड आदि
|employer = आमेर के परंपरागत राजा
|occupation = महाराजा आमेर/ जयपुर
|years_active = सन १६२२ से १७४३ ईस्वी
|home_town = आमेर/ सवाई जयनगर उर्फ़ जयपुर
|title = 'सवाई'/ 'सरमदे –राजा-ए- हिन्द'/ 'राजराजेश्वर'/ 'श्रीराजाधिराज'
|religion = [[हिन्दू]]
|spouse = तीन प्रमुख रानियाँ और अनेक रानियाँ
|children = तीन पुत्र- शिवसिंह, ईश्वरसिंह, माधोसिंह (प्रथम) / दो पुत्रियाँ- विचित्र कँवर, किशन कँवर
|father = [[महाराजा विष्णुसिंह]]
}}
 
पंक्ति 32:
 
=== सवाई की मौखिक-उपाधि ===
अपने पिता [[महाराजा बिशन सिंह]] के असामयिक देहान्त के बाद २५ जनवरी [[१७००]] को ११ वर्ष की लगभग बाल्य-अवस्था में वे [[आमेर]] की गद्दी बैठे।<ref>'जयपुर-दर्शन' प्रकाशक : प्रधान-सम्पादक : [डॉ॰ प्रभुदयाल शर्मा 'सहृदय'नाट्याचार्य] वर्ष 1978 :[पेज 203] प्रकाशक : जयपुर अढाई शती समारोह समिति, नगर विकास व्यास (अब जयपुर विकास प्राधिकरण) परिसर, भवानी सिंह मार्ग, [[जयपुर]]</ref> [[औरंगजेब]] ने उन्हें 'सवाई' की [मौखिक] उपाधि दी थी - जिसका प्रतीकात्मक-अर्थ यही है कि वे अपने समकालीनों से 'सवाया' (या सवा-गुना अधिक बुद्धिमान और वीर) थे। सुना जाता है जब [[दिल्ली]] बादशाह [[औरंगजेब]] के दरबार में युवा सवाई जयसिंह पहले-पहल हाजिर हुए, तो पता नहीं क्यों [[औरंगजेब]] ने एकाएक बालक जयसिंह के दोनों हाथ पकड़ लिए और पूछा "अब बताइये, आप क्या करेंगे?" इस पर प्रत्युत्पन्नमति जयसिंह होठों पर मुस्कान लिए निहायत शांत स्वर से बोले, "आलमपनाह ! हमारे यहां हिन्दुओं में विवाह पर एक परम्परा है। वर, वधू का एक हाथ अपने हाथ में लेकर इस बात की प्रतिज्ञा करता है कि वह उसका हाथ जिन्दगी भर नही छोड़ेगा, उम्र भर उसका साथ निबाहेगा! आज बादशाह सलामत खुद मेरा एक हाथ नहीं, मेरे दोनों ही हाथ जब अपने हाथ में ले चुके हैं, फ़िर मुझे किस बात की परवाह?" [[औरंगजेब]] को इस चतुराई भरे जबाब की उम्मीद न थी, लेकिन इस बुद्धिमत्तापूर्ण हाज़िरजवाबी से वह बहुत प्रसन्न हुआ।<ref>डॉ॰ ज्ञान प्रकाश पिलानिया, 'Enlightened Government in Modern India: Heritage of Sawai Jai Singh (हेरिटेज ऑफ़ सवाई जयसिंह)' ISBN 8187359161, ISBN 9788187359166</ref>,<ref>'राजस्थान का इतिहास' : गोपीनाथ शर्मा : शिवलाल अग्रवाल एंड कम्पनी, आगरा</ref>
 
[[यदुनाथ सरकार]] ने अपने जयपुर इतिहास में इस 'उपाधि' के बारे में जो शब्द लिखे हैं- अविकल रूप से ये हैं-" The new Rajah also gained the title of ''Sawai'', which means 'one and a quarter', because Aurangzeb was so pleased with this youthful prince's feats before Khelna that he cried out," You are more than a man, you are ''sawa''- ''i.e.,''a hundred and twenty five per cent hero'<ref>Jadunath Sarkar : 'A History of Jaipur' : Orient BlackSwan : Extracts from chapter ' Sawai Jai Singh's Early Career' Page 149</ref>
 
कुछ दूसरे स्रोत बतलाते हैं 'सवाई' की उपाधि [[औरंगजेब]] द्वारा नहीं बल्कि बादशाह [[फर्रुख़ सियर]] [https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AB%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%81%E0%A4%96%E0%A4%BC_%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%B01713-19] द्वारा इन्हें दी गयी थी। <ref>'जयपुर-दर्शन' प्रकाशक : प्रधान-सम्पादक : [डॉ॰ प्रभुदयाल शर्मा 'सहृदय'नाट्याचार्य] वर्ष 1978 [पेज 203] प्रकाशक : जयपुर अढाई शती समारोह समिति, नगर विकास व्यास (अब [[जयपुर विकास प्राधिकरण]]) परिसर, [[भवानी सिंह]] मार्ग, जयपुर</ref> पर यह बात (जो शायद [[किंवदंती]] का रूप ले चुकी है) अधिकांश ग्रंथों में औरंगजेब के साथ जुडी मिलती है।
 
== जन्म और माता-पिता==
जयसिंह द्वितीय का जन्म [[मार्गशीर्ष]] वदी 7 वि० सं० १७४५ ई० [दिनांक 4 [[नवम्बर]], [[1688]]]<ref>Jadunath Sarkar : ' A History of Jaipur' page 149</ref> को [[राजा विष्णुसिंह]] की राठौड़ रानी, [[अजमेर]] में [[खरवा]] के ठाकुर केशरीसिंह की पुत्री इन्द्रकँवर से 3 नवम्बर [[1688]] को हुआ था।<ref>'जयपुर-दर्शन' प्रकाशक : प्रधान-सम्पादक : [डॉ॰ प्रभुदयाल शर्मा 'सहृदय'नाट्याचार्य] वर्ष 1978 [पृष्ठ 203] प्रकाशक : 'जयपुर अढाई शती समारोह समिति', जयपुर नगर विकास न्यास, (अब जयपुर विकास प्राधिकरण) परिसर, भवानी सिंह मार्ग, जयपुर Page 203</ref>
 
[[File:Rajputana 1909.jpg|thumb|राजपूताना प्रान्त का एक पुराना मानचित्र]]
पंक्ति 45:
== सवाई जयसिंह के शासन का सम्पूर्ण राजनैतिक इतिहास ==
=== सत्ता का अधिग्रहण और नाम-परिवर्तन ===
राजा विष्णुसिंह की [[काबुल]] में रविवार ३१ दिसम्बर [[१६९९]] (रजब १९, जुलुसी वर्ष ४३) को मृत्यु<ref>''Akhabarat'' : Jadunath Sarkar :'A History of Jaipur' : Page 147 :</ref> होने पर [[मार्गशीर्ष]] सुदी ७ वि० सं० १७५६, जनवरी २५, १७०० ई० को ये आमेर की गद्दी पर बैठे। मृत्यु के प्रायः डेढ़ माह बाद १८ फ़रवरी १७०० को महाराष्ट्र के शाही-शिविर में [[राजा विष्णुसिंह|बिशन सिंह]] के [[काबुल]] में हुए निधन की खबर पहुँची, तो दो दिन बाद (अर्थात २० फरवरी,१७०० को) बादशाह औरंगजेब ने उनके सबसे बड़े पुत्र का नाम ''विजय सिंह'' से बदल कर ''जयसिंह'' करते हुए, उन्हें आमेर की गद्दी का वारिस स्वीकार किया। बादशाह ने जयसिंह के छोटे भाई ''चीमा जी'' का नाम ''विजयसिंह'' रखा। <ref>Jadunath Sarkar : Page 149</ref>
 
यदुनाथ सरकार के अनुसार "...जुलाई १६९८ में दक्षिण से लौटने के बाद से जयसिंह आमेर में ही बने रहे, जब कि बादशाह ने इन्हें हाजिरी देने के लिए कई 'कड़े बुलावे' भी भेजे| इनके पिता के समय से ही दिल्ली-बादशाह इनको अपनी सैनिक 'सेवा' में लेने के लिए हेतु दक्षिण में बुलाना चाहते थे। परन्तु राजा विष्णुसिंह अपने पुत्र को दक्षिण में नहीं भेजना चाहते थे। लेकिन बादशाह के ज्यादा दबाव देने पर ई० १६९८ में ये महाराष्ट्र (दक्षिण) गये। (''वहां पहली भेंट में बादशाह ने इनकी तीव्र बुद्धि देख कर इन को 'सवाई' कहा था। तभी से इनके नाम के पहले सवाई की उपाधि लग गई, जो अभी तक जयपुर के भूतपूर्व राजाओं के नाम के साथ जुड़ी हुई है''।) आठ महीने मुग़ल शिविर में रह कर ये वापिस अपनी राजधानी [[आमेर]] लौट आये।
 
===औरंगजेब और जयसिंह ===
गद्दी पर बैठने के तुरंत बाद, जैसा ऊपर लिखा गया है, इन्हें नवम्बर १७०० में दक्षिण में अपनी सेना के साथ मुग़ल बादशाह की फ़ौज के रूप में लड़ने के लिए बुलाया गया था, पर किसी न किसी तरह जयसिंह बराबर टालमटोल करते रहे। वह जब कई शाही-आदेशों की अवहेलना कर चुके, तो अंततः इन्हें 'जबरन' ले आने को बादशाह ने कुछ हरकारे आमेर तक भी भेजे| इनकी अनुपस्थिति से नाराज़ बादशाह औरंगजेब ने इन से आमेर [[राजा]] का खिताब तो नहीं छीना, पर १३ सितम्बर १७०१ को इन्हें 'पदावनत' करते हुए मात्र ५०० जात, १०० सवार का मामूली [[मनसबदार]] बना दिया। कठिन मार्ग और वर्षा से अवरुद्ध रास्तों से जूझते बुरहानपुर में पड़ाव डाल कर अक्टूबर १७०१ में इनके दक्षिण में पहुँचने पर इन्हें औरंगजेब के पोते (सेना-अधिकारी और पुत्र आलम शाह के पुत्र) शाह बिदरबख्त के पास पन्हाला की सुरक्षा के लिए उनका सैन्य-सहयोगी नियुक्त किया गया।<ref>Jadunath Sarkar : IBID : Page 150</ref>
 
=== सवाई जयसिंह की आरंभिक सामरिक-सफलताएं और बादशाह औरंगजेब के पूर्वाग्रह ===
पंक्ति 56:
औरंगजेब के पोते शाह बिदरबख्त के नेतृत्व में बादशाही सेना ने ११ मई ई० १७०२ को खिलना के किले पर भारी हमला किया। इसमें आमेर और मुग़ल संयुक्त-सेना की बहुत जनहानि हुई, पर उसकी दीवारों को तोड़ कर सबसे पहले जयसिंह की कछवाहा सेना ही खिलना-दुर्ग में प्रविष्ट हुई। उसकी बुर्ज पर आमेर का 'पंचरंगा झंडा' फहराया गया। (''इस समय जयसिंह की उम्र केवल १४ वर्ष थी)।'' खिलना-युद्ध में इनका वीर और भरोसेमंद दीवान बुद्धसिंह मारा गया। इस खिलना-विजय पर बादशाह औरंगजेब द्वारा इनका मनसब बढ़ा कर पहले एक हज़ार, फिर [[शाह बिदरबख्त]] के अनुरोध के बाद २००० (दो हजार जात) का कर दिया गया। बादशाह की छः साल की 'कठिन सेवा' का महज़ यह प्रतिदान जयसिंह को मिला! इसके बाद जब शाहजादा बिदरबख्त मालवे का सूबेदार हुआ, तब उसने जयसिंह की सेवाओं का सम्मान करते उन को वहाँ का [[नायब सूबेदार]] बना दिया, जिसे औरंगजेब ने तत्काल ही 'नामंजूर' कर दिया तथा एक फरमान लिखा कि ''आइन्दा किसी हिन्दू भी को मामूली फौजदार तक भी नहीं बनाया जाए''।'<ref>'अहकाम-ए- आलमगिरी' : इयानतुल्ला) सन्दर्भदाता : यदुनाथ सरकार : वही: पृष्ठ १५२</ref>
 
विडम्बना हैरतंगेज़ है कि जिस औरंगजेब ने कभी इन्हें 'सवाई' कह कर सम्मान दिया वही बाद में वस्तुतः इनसे इस कदर नाराज़ और पूर्वाग्रहग्रस्त था कि उसने ये अपमानजनक आज्ञा जारी की- "''जयसिंह को मसनद पर आसन न दे कर, नीचे ज़मीन पर बिछी 'सुजनी' पर बैठने को कहा जाय!''"<ref>यदुनाथ सरकार : ''वही'' पृष्ठ १५२</ref>
 
इसी बीच ई० १७०४ में दो बादशाही फौजदारों ने स्थानीय मदद ले कर ठाकुर कुशल सिंह राजावत से सवाई माधोपुर में आज स्थित [[झिलाय]] ठिकाने की जागीर छीन कर १३ नवम्बर १७०४ को जयसिंह (आमेर राज्य) को सौंप दी। दूसरे साल ई० १७०५ में शाह बिदरबख्त ने अपनी तरफ से इनके पक्ष में फिर से कोशिश करके जयसिंह को मालवा का भी नायब सूबेदार बनवा दिया।<ref name="यदुनाथ सरकार : पृष्ठ १५३">यदुनाथ सरकार : पृष्ठ १५३</ref> पर जब तक औरंगजेब जीवित रहा, मुग़ल खेमे में इनका प्रभाव मद्धम सा ही रहा।
 
=== औरंगजेब की मृत्यु के बाद ===
ई० १७०७ में २१ फ़रवरी को [[औरंगजेब]] के देहांत के बाद मुग़ल-गद्दी के लिए उसके बेटों में विकट-संघर्ष शुरू हो गया। शाह आजम ने आगरा व दिल्ली पर चढ़ाई की। उस समय तक उसने इनका मनसब ५००० जात ५०० सवार का कर दिया था। जून १८, १७०७ ई० को मौजम (मुअज्जिम) और आज़म की सेनाओं के बीच आगरा के २० मील दक्षिण में [[जाजू का युद्ध]] हुआ। जयसिंह मौजम (मुअज्जिम) के साथ थे तथा इनके सगे छोटे भाई चीमाँ जी (विजयसिंह) आज़म की सेना की तरफ। इस युद्ध में मौजम और उनके पुत्र मारे गये। जाजू की लड़ाई में आज़म की विजय हुई। इसी युद्ध में जयसिंह तथा अखेसिंह टोरड़ी भी घायल हुए | इनके कई सरदार- बिहारीदास (दांतरी), केशरीसिंह (हरसोली), सूरसिंह (हरमाड़ा) आदि मारे गये। युद्ध के आखरी समय में जयसिंह बूंदी के राजा अपने बहनोई [[बुधसिंह हाडा]] के मारफत युद्ध में विजयी आज़म से जा मिले, परन्तु उसने इनका खास स्वागत नहीं किया।<ref name="यदुनाथ सरकार : पृष्ठ १५३"/>,<ref name="ignca.nic.in">[http://www.ignca.nic.in/coilnet/rj089.htm]</ref>
 
=== आमेर पर हमले और अपमानित जयसिंह ===
जयसिंह के छोटे भाई विजयसिंह, बादशाह को खुश करने के लिए अपनी बहन का विवाह बादशाह बहादुरशाह (प्रथम) से करवाना चाहते थे। उन्होंने इसकी खबर दिल्ली भेज दी तथा बुद्धसिंह हाडा को छुट्टी जाते समय रास्ते में रोक कर उन से सामोद में यह विवाह करवा दिया। नये बादशाह बहादुरशाह (प्रथम) ने इसके बाद राजस्थान पर चढ़ाई की। जनवरी १७०८ ई० में वह आमेर पहुँचा और उसे [[खालसा]] कर लिया। जयसिंह से आमेर की जागीर जब्त करके बादशाह बहादुरशाह (प्रथम) द्वारा १० जनवरी १७०८ को उनके छोटे भाई विजयसिंह (चीमाजी) को अनेकानेक महंगे उपहारों सहित दे दी गयी। सवाई जयसिंह का राजनैतिक कद घटा कर एक मामूली 'मनसबदार' के रूप में कर दिया गया। <ref>यदुनाथ सरकार : पृष्ठ १५४</ref>
बादशाह इसके बाद अजमेर होकर दक्षिण के लिए अपने भाई [[कामबक्श]] से मुकाबला करने को बढ़ा। [[आमेर]] और [[जोधपुर]] के दोनों राजा [[मंडलेश्वर]] के इलाके तक उसके साथ ही गये। जब उन्हें यह आशा नहीं रही कि बादशाह उनके इलाके उन्हें वापस लौटाएगा तो उन्होंने [[दुर्गादास राठौड़]] की राय से, जब बादशाह नर्बदा नदी पार करने को रवाना हुआ, २० अप्रैल १७०८ वैशाख सुदी १३ को बादशाही-शिविर छोड़ दिया और वे राजपूताना की ओर वापस रवाना होकर [[मेवाड़]] [[उदयपुर]] पहुँचे।
 
यहाँ [[महाराणा प्रताप]] के पुत्र और उत्तराधिकारी[[राणा अमरसिंह]] ने इनका स्वागत किया तथा अपनी पोती जयसिंह को ब्याही। यहाँ से तीन राजाओं की ३० हजार सेना ने संयुक्त-रूप से जोधपुर पर हमला करके ८ जुलाई १७०८ ई० को उसे अपने अधिकार में कर लिया। राजा अतसिंह जोधपुर के जयसिंह ने टीका किया। यहाँ से उन्होंने हिन्दुस्तान के अनेक राजाओं को मुगलों के विरुद्ध एकत्रित होने संबंधी पत्र भी लिखे।<ref name="ignca.nic.in"/>
पंक्ति 72:
[[जोघपुर]] से विजय सिंह शासित आमेर पर अधिकार करने को दो सेनाएँ भेजी गयीं। एक [[दुर्गादास राठौड़]] के नेतृत्व में, जिसका सैयदों से [[काला डेरा]] के पास युद्ध हुआ। दूसरी सेना में, महाराजा जयसिंह का दीवान रामचन्द्र और श्यामसिंह के अधीन २० हजार घुड़सवार थे। इनका [[रतनपुरा]] के पास [[आमेर]] के फौजदार हुसैन खाँ से युद्ध हुआ, जिसमें उन्होंने उसे परास्त करके आमेर पर अपना अधिकार कर लिया।<ref name="ignca.nic.in"/>
 
इसके बाद इन दोनों राजाओं के विरुद्ध वर...... ???? ने मेवात के फौजदार सैयद हुसेन खां, अहमद खां फौजदार बैराठ सिधाना और गारात खां फौजदार नारनोल को [[सांभर]] भेजा। दोनों राजाओं के इन फौजदारों से [[सांभर]] में ३ अक्टूबर ई० १७०८ को भीषण युद्ध हुआ, जिसमें मुगलों की विजय हुई। युद्ध के बाद विजय की खुशी में मुगलों की महफिल हो रही थी। इसी समय राव संग्रामसिंह (उनियारा) के नेतृत्व में नरुका लड़ाके वहाँ पहुँचे और एक रेत के टीबे पर चढ़े, जिसके नीचे सैयद आदि महफिल कर रहे थे। नरुकों ने उन पर एकाएक बन्दूकों और तीरों से भयानक हमला किया। उसमें सब मुग़ल फौजदार मारे गये तथा मुगलों की जीती हुई बाजी हाथ से निकल गई।
 
फिर जयसिंह ने एक पत्र बादशाह के विरुद्ध दुर्गादास को लिखा कि "उदयपुर महाराणा से बात की जाए ...मराठों को मिला कर मुग़लों के विरुद्ध राजपूतों को वही करना चाहिए जो 'हिन्दुस्तान' के लिए गौरव की बात हो।"<ref name="ignca.nic.in"/>
 
बादशाह बहादुरशाह जब दक्षिण से वापिस लौटा, तो उसने यह जरुरी समझा कि किसी तरह [[जोधपुर]] और [[आमेर]] (जयपुर) दोनों राजाओं से समझौता किया जाए। इन्हें लाने के लिए उसने [[बुधसिंह हाड़ा]] राजा [[बून्दी]] को भेजा, जिनके मारफत २१ जून ई० १७१० को ये [[अजमेर]] के पास बादशाह के सामने हाजिर हुए। बादशाह ने इनके जब्त किये राज्य वापस लौटा दिए और इन दोनों को ४००० जात ४००० सवार के मनसब भी दिये। उस समय तक भी राजपूतों का मुगलों पर बिल्कुल विश्वास नहीं था, इसलिए जब सवाई जयसिंह अजमेर में बादशाह के शिविर में गये तब अजमेर के तमाम पहाड़ तथा घाटियाँ राजपूत-सैनिकों से भरी हुई थीं। मनसब बढ़ने और इलाके वापस आने पर भी उन्हें बहादुरशाह की नीयत पर कभी भी पूर्ण विश्वास नहीं हुआ।<ref name="ignca.nic.in"/>
 
=== जयसिंह द्वारा छलपूर्वक अपने भाई विजयसिंह की गिरफ्तारी ===
जयसिंह के भाई विजयसिंह के साथ भी कुछ ऐसा हुआ कि (जन्म चैत सुदी ६ वि. १७४७) निराश होकर अन्त में मुगल दरबार छोड़ कर [[हिन्डौन]] आ गए। जयसिंह को भाई विजयसिंह की तरफ से सशस्त्र विद्रोह खतरा तो बना हुआ था ही। इन्होंने १७१३ ई० में विजयसिंह से समझौता करने और 'राजमाता से भेंट' करने के नाम पर अपने सशस्त्र सैनिकों एवं सरदारों समेत [[सांगानेर]] जा कर धोखे से उनको कैद करवा दिया<ref>लेफ्टिनेंट कर्नल जेम्स टॉड: 'राजस्थान का इतिहास' खंड-2 : प्रकाशक- 'साहित्यागार', जयपुर; अनुवाद: केशव ठाकुर : संस्करण 2012</ref> और जयगढ़ किले में भेज दिया। (वहीं वे अन्त में मारे भी गये।) विजयसिंह के इस 'हत्याकाण्ड' में श्यामसिंह खंगारोत विशेष सहायक रहा।
 
[[बहादुर शाह (प्रथम)]] की मृत्यु के बाद उसके उत्तराधिकारी [[जहाँदरशाह]] ने [[आमेर]] और [[मारवाड़]] दोनों राजाओं को फिर अपने पक्ष में करना चाहा। उसने दोनों को ७००० जात व ७००० सवार का मनसब भी दिया, परन्तु इस बार इन्होंने मुग़ल-उत्तराधिकारी के आपसी संघर्ष में औरंगजेब के पुत्रों से दूर ही रहने का फैसला किया। [[फ़र्रुख सियर]] के मुग़ल बादशाह बनने के बाद हुसैन अली सैयद ने श्यामसिंह खंगारोत को बुलवाया तथा उनसे बात करके जयसिंह को बादशाह से ५००० जात ४५०० सवार का मनसब दिलवाया। जब अतसिंह का बादशाह के साथ मतभेद हो गया, तब बादशाह ने सैयद हुसैन अली को सेना लेकर [[अजमेर]] भेजा जहाँ अतसिंह ने कब्जा कर लिया था। उस समय जयसिंह भी हुसैन अली सैयद के साथ थे। अन्त में अतसिंह से सन्धि हुई।<ref name="ignca.nic.in"/>
 
=== मराठे और जयसिंह ===
अक्टूबर १७१३ ई० में इन्हें बादशाह [[फ़र्रुख सियर]] ने [[मालवा]] की सूबेदारी प्रदान की। इन्होंने वहाँ की अनेक बगावतें दबाई व मरहठों के उपद्रव भी कुचले। मरहठों की एक बड़ी सेना जब मालवे में घुसी तब इन्होंने [[पलसूद]] के पास उसे बड़ी करारी हार दी। मराठी सेना के लोग भाग कर पलसूद में ठहरे थे। जयसिंह ने रात में ही उन पर हमला कर दिया। इनकी सेना को देखते ही वे भाग निकले व [[नर्वदा]] नदी पार कर गये। उनकी लूट का सब माल वहीं रह गया। मालवा में [[छत्रसाल बुन्देला]] भी इनके साथ थे। १७१५ ई० में इनको दिल्ली बुला लिया गया। तब इनकी अनुपस्थिति में इनके धाभाई रुपाराम को इन्होंने वहां नायब बना कर रखा। १७१७ तक ये मालवा के सूबेदार रहे। बादशाह [[फ़र्रुख सियर]] ने [[भीमसिंह हाडा]] राजा [[कोटा]] को [[बून्दी]] की रियासत दे दी थी और उसने बून्दी पर कब्जा भी कर लिया था। जयसिंह ने प्रयास करके बादशाह से बून्दी वापस राजा बुधसिंह हाडा को दिलवायी।<ref name="ignca.nic.in"/>
 
=== भरतपुर में विफलता===
दिल्ली से बादशाह ने इनको [[भरतपुर]] के [[चूड़ामन जाट]] पर चढ़ाई करने की आज्ञा दी, जिसने [[आगरा]] के इलाके में लूटमार से बड़ा उपद्रव मचा रखा था। इनके साथ बून्दी के बुद्धसिंह, [[कोटा]] के भीमसिंह, नरवर के गजसिंह, [[दुर्गादास राठौड़]] व कई अन्य मनसबदार भी नियुक्त किये गये। १५ सितम्बर १७१६ को ये अपनी फौज ले कर [[मथुरा]] के लिए रवाना हुए। नवम्बर में [[चूड़ामन]] के प्रसिद्ध किले [[थूण का घेरा]] शुरु किया। वर अब्दुल्ला खां सैयद, जयसिंह के विरुद्ध था तथा चूड़ामन को मदद दे रहा था। इससे इन्हें इस अभियान में सफलता नहीं मिल पाई। वर अब्दुल्ला खां सैयद ने अन्त में बीच में पड़ कर थून का घेरा उठवा लिया। मई १७१८ में जयसिंह की वापसी [[दिल्ली]] हुई। चूडामन के इलाके में इस असफलता के बावजूद बादशाह ने इनका बड़ा सम्मान किया।<ref name="ignca.nic.in"/>
 
सैयदों और बादशाहों के बीच तलवारें खिंच चुकी थी। जयसिंह ने बादशाह [[फ़र्रुख सियर]] को बहुत समझाया कि सैयदों से युद्ध करके उन्हें हमेशा के लिए साफ कर देना चाहिए। उस समय उनके पास २० हजार राजपूत सवार दिल्ली में मौजूद थे तथा बून्दी के बुद्धसिंह हाडा भी उन्हीं के साथ थे। परन्तु बादशाह की यह सैन्य कार्यवाई करने की हिम्मत नहीं हुई। वह सैयदों को किसी तरह खुश करने में लगा रहा। अन्त में सैयदों ने बादशाह से जयसिंह को दिल्ली से जाने को कहलवा दिया। जयसिंह ने बादशाह को सचेत किया कि उनके जाने से बादशाह की जान को खतरा हो जाएगा लेकिन यह सलाह बादशाह की समझ में नहीं आई। १३ फ़रवरी १७१९ ई० को जयसिंह दिल्ली से रवाना हुए। उसके कुछ ही घंटों बाद भींमसिंह कोटा राजा ने बुधसिंह बूंदी पर आक्रमण कर दिया। उनके स्वामीभक्त सरदार जैतसिंह ने बड़ी वीरता से कोटा की सेना को रोका तथा बुधसिंह को सुरक्षित वहाँ से निकाल दिया। वे भाग कर सवाई जयसिंह के पास पहुँचे। १७- १८ अप्रैल को सैयद भाइयों, अतसिंह जोधपुर और भीमसिंह कोटा ने मिल कर दिल्ली में बादशाह फर्रूखशियर को मार डाला।<ref name="ignca.nic.in"/>
 
=== सैयद और जयसिंह ===
जयसिंह ने [[इलाहाबाद]] के सूबेदार छबीला राम और निजाम से सैयदों के विरुद्ध भी पत्र-व्यवहार किया। वे चाहते थे कि सब मिल कर सैयदों को अपदस्थ कर दें। इन्होंने [[छत्रसाल]] बुन्देला को भी युद्ध के लिए बुलाया। सैयदों ने कई सेनाएँ इनके विरुद्ध कई तरफ से घेरने के लिए भेजीं| वर अब्दुल्ला खां ने ५ जुलाई को नाममात्र के बादशाह रफीउदुल्ला को साथ लेकर जयसिंह पर चढ़ाई की और मथुरा होता हुआ वह आगरा पहुँचा, जहाँ सैयदों के विरुद्ध बगावत हो रही थी। जयसिंह ने भी सैयदों से पूरे तौर से मुकाबला करने की तैयारी कर ली थी पर युद्ध में रवाना होने के पहले उन्होंने ब्राह्मणों को बुलाकर आमेर राज्य दान में दे दिया और केसरिया बाना धारण करके वे सैयदों से लड़ाई के लिए रवाना हुए। ये आमेर से आगे बढ़ कर [[टोडा रायसिंह]] तक पहुँच गये थे। पर निजाम और छबीलाराम दोनों ही वायदे के अनुसार इनके पक्ष में कायम नहीं रहे।<ref name="ignca.nic.in"/> जयसिंह को निराशा हाथ लगी।
 
=== जोधपुर में विवाह ===
अन्त में अतसिंह जयसिंह को अपने साथ जोधपुर ले गये जहाँ उन्होंने अपनी पुत्री का जयसिंह से विवाह किया। सैयदों ने जयसिंह को २० लाख रुपये दिये, जिससे वे आमेर वापिस ब्राह्मणों से वापस खरीदें। उस समय भी जयसिंह को अतसिंह जोधपुर पर विश्वास नहीं था इसलिए वे अपने विवाह में भी जिरहबख्तर पहन कर गये थे।<ref name="ignca.nic.in"/>
 
=== निज़ाम और जयसिंह ===
सैयदों की दो सेनाएँ जब दक्षिण में निजाम से परास्त हो गई, तब हुसैन अली खां सैयद, बादशाह मोहम्मद शाह को साथ ले कर, एक बड़ी सेना के साथ निजाम को दबाने के लिए रवाना हुआ। सितम्बर ८, १७२० ई० को [[टोडाभीम]] में उसने हुसैन अली को धोखे से मार डाला। अब बादशाह ने तैयारी करके सैयद अब्दुल्ला खां पर चढ़ाई की जो [[दिल्ली]] में था। इस युद्ध के लिए महाराणा ने जयसिंह से पूछा कि 'उसे क्या करना चाहिए?' जयसिंह ने उदैपुर के महाराणा को बादशाह की मदद करने के लिए पत्र लिखा तथा साथ में ही महाराणा के अलावा बीकानेर, कोटा और राव इन्द्रसिंह नागौर को भी बादशाह की मदद करने के लिए पत्र भेजे। सवाई जयसिंह ने खुद बादशाह मोहम्मद शाह की मदद के लिए राव जगराम के साथ एक अच्छी सेना भेजी। इस सेना में सवाई राम (नरुका), गढ़ी गजसिंह, नरुका जावली, जसवन्तसिंह, सवाईराम के पुत्र, प्रतापसिंह कल्यणोत, बुद्धसिंह कल्यणोत, गुलाब सिंह कल्यणोत, छीतरसिंह कल्यणोत, अमरसिंह राजावत, बहादुर सिंह खंगोरात और सरदारसिंह नरुका आदि सरदार थे। ३ और ४ नवम्बर १७२० को युद्ध हुआ जिसमें सैयद अब्दुल्ला खां पकड़ा गया। विजय के बाद बादशाह ने जयपुर के सरदारों को अपने हाथ से खिलअतें दीं।<ref name="ignca.nic.in"/>
 
=== मोहम्मद शाह और जयसिंह ===
मोहम्मद शाह ने दिल्ली पहुंचते ही जयसिंह को दिल्ली आने का फरमान भेजा जिसमें लिखा कि उनसे अनेक महत्वपूर्ण समस्याओं पर सलाह लेनी है। उसने दिल्ली पहुंचने पर बादशाह ने अपने नये वर मुहम्मद अमीन खां को उनके डेरे पर लेने भेजा। दरबार में आने पर बादशाह ने उनका बड़ा सत्कार किया और अनेक तोहफे दिए। उनके मनसब में ४००० सवार और बढ़ा दिए गए। इसी मौके पर इन्हें दो करोड़ रुपये इन्हें इनाम/ बख्शीश में दिये जिनको इन्होंने नम्रतापूर्वक लेने से मना कर दिया। पर बादशाह ने सवाई जयसिंह और राजा गिरधर बहादुर के अनुरोध पर हिदुओं पर लगाया जाने वाला कठिन [[जजिया कर]] माफ कर दिया। महाराणा मेवाड़ ने जजिया हटवा देने की सफलता पर सवाई जयसिंह को अपनी और से प्रसन्न हो कर लिखित बधाई भेजी।<ref name="ignca.nic.in"/>
 
=== जयसिंह के महत्त्व में वृद्धि ===
पंक्ति 109:
 
=== दूसरा जाट युद्ध ===
सितम्बर १७२२ ई० में जयसिंह को [[आगरा]] का सूबेदार बना कर जाटों को दबाने को भेजा गया। इनके साथ ५० हजार सैनिकों की बड़ी फौज थी तथा अनेक मनसबदार भी इनके साथ थे। शाही तोपखाना भी इनके साथ था। [[चूड़ामन]] [[जाट]] का पुत्र [[मोहकमसिंह]] इस समय जाटों का नेता था। परन्तु चूड़ामन का भतीजा [[बदनसिंह]] जो उससे नाराज था, जयसिंह से आ कर मिला। इन्होंने उसका बड़ा स्वागत-सत्कार किया। एक बार फिर इन्होंने [[थूण]] के किले पर घेरा डाला। अतसिंह जोघपुर ने एक सेना मोहकमसिंह की मदद के लिए भेजी, परन्तु वह [[जोबनेर]] से आगे नहीं बढ़ी। विभीषण की तरह बदनसिंह की सलाह से थूण के किले का विजय होना निश्चित दिख रहा था। तब मोहकमसिंह निराश होकर गुप्त मार्ग से किला छोड़ कर अतर सिंह के पास [[जोधपुर]] पहुँचा। किन्तु जाटों के थून स्थित किले पर सवाई जयसिंह का अधिकार हो गया। इन्होंने [[सूरजमल]] के पिता बदनसिंह को भरतपुर की जागीर दी तथा राजा के रूप में उनके पगड़ी बाँधी। जून १९, १७२३ ई० को ठाकुर बदनसिंह जाट ने 'जयपुर दरबार की सेवा करने' व ८३ हजार रुपये बतौर सालाना पेशकश देना स्वीकार करके इस आशय की लिखावट पर दस्तखत किये। बदनसिंह जयपुर के दशहरा दरबार में हर साल आया करते थे। जयपुर में जहाँ जाट सेना सहित डीग के राजा का पड़ाव लगता था, वह स्थान अब भी ''बास बदनपुरा'' कहलाता है।<ref name="ignca.nic.in"/>
 
महाराजा सवाई जयसिंह के कार्यकाल का संभवतः सबसे बड़ा और कीर्तिवान कार्य था - सन १७२७ में जयपुर नगर बसाना। इसकी नींव पौष वदी १ वि. सं. १७८४, ई० को रखी गई। राजगुरु सम्राट जगन्नाथ ने नए नगर की नींव रखने का मुहूर्त निकाला तथा भूमि पूजा करवाई थी। महाराजा की आज्ञा के अनुसार नए नगर का नक्शा दीवान [[विद्याधर]] ने बनाया जो बहुत प्रतिभाशाली बंगाली ब्राह्मण था और इनके लेखा-विभाग की सेवा में नायब-अंकेक्षक था। सन १७३३ ई० में यह नगर, जिसका नाम सवाई जयसिंह ने ' सवाई जयनगर' रखा बन कर तैयार हुआ।<ref name="ignca.nic.in"/>
पंक्ति 117:
 
=== कुशत्तल पंचोलास का युद्ध ===
बुद्धसिंह बून्दी और उनकी कछवाही रानी के आपस में गंभीर मतभेद पैदा होने पर जयसिंह के सम्बन्ध भी बूंदी नरेश बुद्धसिंह से बहुत खराब हो गये। अन्त में सम्बन्ध इतने बिगड़े कि जयसिंह ने बादशाह को कह कर बुद्धसिंह के स्थान पर करवाड़ के सालिम सिंह हाडा के पुत्र दलेलसिंह को बून्दी का राजा बनवा दिया और बाद में अपनी पुत्री भी उसे ब्याह दी। इससे राजस्थान में जयपुर और बूंदी के बीच लम्बे समय तक बड़ा दु:खद संघर्ष चला। इस आपसी मनमुटाव से मरहठों को फिर राजस्थान में हस्तक्षेप करने का अवसर मिल गया। जयसिंह को १७३० ई० में मालवा में इत्तला मिली कि बुद्धसिंह फिर से बून्दी पर अधिकार करने जा रहे हैं। इन्होंने एक सेना दलेलसिंह की मदद को भेजी| ६ अप्रैल १७३० को ''कुशत्तल पंचोलास'' में बुधसिंह से जयपुर सेना का युद्ध हुआ जिसमें जयपुर के पांच राजावत सरदार फतहसिंह सारसोप (बरवाड़ा) खोजूराम (ईसरदा), सांवलदास (शिवाड), अचलसिंह (नानतोड़ी) और घासीराम अचरे मारे गए।। इस युद्ध में बुद्धसिंह को विजय नहीं मिली। मालवा से लौटते समय महाराजा सवाई जयसिंह कुशत्तल पांचोलास गये। उन्होंने वहाँ मारे गये सरदारों की मातमी करके उनके पुत्रों को सिरोपाव आदि दिये।<ref name="ignca.nic.in"/>
 
=== तीसरी बार मालवा की सूबेदारी ===
जयसिंह दिसम्बर १७३२ में तीसरी बार मालवा प्रान्त के सूबेदार बनकर उज्जैन गये। इस बार मालवा में भी मरहठों का उत्पात इतना बढ़ गया था कि मालवा से मरहठों को निकालने के इनके तमाम प्रयास विफल रहे। १७३४ ई० में खानदौरा एक बड़ी सेना लेकर राजपूताना होता हुआ मालवा में मैराथन के विरुद्ध आगे आया। जयसिंह, अभयसिंह (जोधपुर) आदि अनेक राजा उनके साथ थे। जब यह विशाल सेना रामपुरा पहुँची तो उसे मरहठा मिले। पर वे छुटपुट लड़ाइयों के बाद इन्हें छका कर पीछे से राजस्थान में घुस गये। वहाँ उनको रोकने वाला कोई नहीं था और वे मराठे जयपुर राज्य में साँभर तक लूटपाट करते चले गये। १७३५ ई० में पेशवा बाजीराव की माँ उत्तर में तीर्थ करने आई। महाराजा जयसिंह ने उसका बड़ा आदर-सत्कार किया तथा महाराणा से भी उसका सत्कार करवाया। आगरा में इनके नायब सूबेदार ने अपने दीवान आयामल के भाई नारायणदास को उसका स्वागत करने व पूना तक साथ जाने की आज्ञा भेजी। जनवरी १७३७ ई० को पेशवा उत्तर भारत में आया उसके साथ होलकर, सिन्धिया, पँवार आदि सभी थे। उदयपुर से आते समय पेशवा से २५ फ़रवरी को महाराजा जयसिंह मालपुरा क्षेत्र के झाड़ली गाँव में मिले। उन्होंने उनको अनेक वस्तुएँ भेंट दी। बाजीराव दिल्ली तक जाकर वापस लौट गया।
बाजीराव पेशवा की मृत्यु से महाराजा जयसिंह को बड़ा दु:ख हुआ। नया पेशवा बालाराव बना। १७४१ ई० में जब नए मराठा पेशवा बाला राव उत्तर में चढ़ाई की उस समय जयसिंह आगरा के सूबेदार थे। इनकी और नये पेशवा बाला राव की धौलपुर में भेंट हुई। इनके प्रयास से बादशाह ने पेशवा को मालवा की नायब सूबेदारी दे दी।<ref name="ignca.nic.in"/>
 
=== नादिरशाह और सवाई जयसिंह ===
जब नादिरशाह भारत में आया तब सभी को बड़ी शंका खड़ी हो गई। पेशवा, महाराणा अन्य राजाओं व बुन्देलों को मिला कर जयसिंह, नादिरशाह का संगठित मुकाबला करना चाह रहा था। हालांकि 24 फरवरी 1739 को [[करनाल]] में वह (नादिरशाह) मुग़ल सेना को बुरी तरह पराजित कर चुका था। यह भी अफवाह थी कि नादिरशाह जयपुर होता हुआ अजमेर जाएगा। यह जयसिंह के लिए भी बड़ा खतरा था। सब चौकन्ने थे, लेकिन अन्त में वह [[मथुरा]] से ही वापस अपने देश लौट गया।
 
"नादिरशाह ने जब [[भारत]] पर हमला (फरवरी-मार्च १७३९) किया तब [[दिल्ली]] की सहायतार्थ जयसिंह नहीं गए। इस का कारण यह था- तब निजाम और कमरुद्दीन उस समय साम्राज्य में उच्च पदों पर थे और नादिरशाह के हमले के लिए वे लोग इनके उत्तरदायी होने का शक कर सकते थे, किन्तु सम्राट बराबर इनमें विश्वास रख कर इनसे आवश्यक परामर्श करता रहा।"<ref name="ignca.nic.in"/>
 
== साहित्य-रचना और यज्ञ-परंपरा==
महाराजा सवाई जयसिंह के दरबार में संस्कृत और [[ब्रजभाषा]] [[साहित्य]], [[स्थापत्य]], [[धर्मशास्त्र]], [[ज्योतिष]], [[खगोल]], [[इतिहास]]-लेखन, आदि क्षेत्रों में अनेक मौलिक रचनाएं की गयीं और सम्पूर्ण भारतीय मनीषा की इस अकादमिक-योगदान से बड़ी उन्नति हुई। अनेक नए धर्मशास्त्र भी रचे गये क्यों कि इनकी [[कर्मकांड]] और [[धर्मशास्त्र]] में बड़ी रुचि व निष्ठा थी। इनके समय के सबसे प्रसिद्ध विद्वान पंडित [[जगन्नाथ सम्राट]], पंडित [[रत्नाकर पौण्डरीक|पुण्डरीक रत्नाकर]], [[विद्याधर चक्रवर्ती]], [[शिवानन्द गोस्वामी]], [[श्रीकृष्ण भट्ट कविकलानिधि]] आदि थे।<ref>कविशिरोमणि [[भट्ट मथुरानाथ शास्त्री]]: '[[जयपुर-वैभवम]]</ref> मूलतः आन्ध्र से आये तैलंग पूर्वजों के वंशज ब्रजनाथ भट्ट भी इनके समय के प्रसिद्ध कवि विद्वानों में से थे। इन्होंने 'ब्रह्मसूत्राणभाण्यवृत्ति' और 'पद्मतरंगिणी' की रचना की। [[श्रीकृष्ण भट्ट कविकलानिधि]] ने इनके समय में अनेक ग्रन्थ लिखे जिनमें मुख्य '[[ईश्वर विलास]]<ref>कविशिरोमणि भट्ट मथुरानाथ शास्त्री: 'जयपुर-वैभवम</ref>- महाकाव्य भी है, जिसमें सवाई जयसिंह द्वारा '[[अश्वमेध यज्ञ]]' करवाने का 'आँखों देखा हाल' वर्णित है।<ref>संस्कृत के युग-पुरुष: मंजुनाथ': पृष्ठ 1 प्रकाशक: 'मंजुनाथ स्मृति संस्थान, सी-8, पृथ्वीराज रोड, जयपुर-302001</ref> जेम्स टॉड ने लिखा है " सवाई जयसिंह ने बहुत-सा धन खर्च कर के यज्ञशाला बनवाई थी और उसके स्तंभों और छत को चांदी के पत्तरों से मंडवाया था|<ref>'राजस्थान का इतिहास' भाग-२ : लेफ्टिनेंट कर्नल जेम्स टॉड, पृष्ठ ११९ 'साहित्यागार' प्रकाशन, जयपुर</ref>
 
पुण्डरीक रत्नाकर (मृत्यु वि. १७७६ में) ने इनसे [[व्रात्यस्तोम यज्ञ]] चैत वदी ३ वि॰सं॰ १७७१ को क्षिप्रा नदी के तट पर उज्जैन में करवाया। इन्होंने और दूसरे यज्ञ-जैसे [[श्रौत यज्ञ]] आदि भी सम्पन्न करवाये थे। इनका रचा हुआ 'जयसिंह कल्पद्रुम' एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। रत्नाकर के पुत्र सुधाकर पौण्डरीक ने जयसिंह से [[पुरुषमेध यज्ञ]] करवाया था तथा 'साहित्यसार संग्रह' की रचना की। इन्होंने [[सम्राट यज्ञ]] भी कराया, जिसके पुरोहित इनके महाराष्ट्रीय ब्राह्मण गुरु, [[जगन्नाथ सम्राट]] थे। ''१७३४ ई० में जयसिंह ने जो पहला [[अश्वमेध यज्ञ]] किया''<ref>http://msmsmuseum.com/pages.php?id=4</ref>, २९ मई १७३४ को सम्पूर्ण हुआ।<ref>सवाई जयसिंह : राजेंद्र शंकर भट्ट: नेशनल बुक ट्रस्ट (अंग्रेज़ी अनुवाद: शैलेश कुमार झा) २००५ संस्करण</ref> इस अश्वमेध यज्ञ के समय, जो राजसी-घोड़ा छोड़ा गया था, उसे कुछ कुम्मणियों ने जलमहल से आगे, जयपुर के एक और प्रवेशद्वार (जिसका नाम बाद में जोरावर सिंह गेट रखा गया) के पास ही पकड़ लिया और अन्त में जयसिंह के अश्व के साथ जा रहे सरदार जोरावर सिंह घोड़ा पकड़ने वालों से युद्ध करके मारे गये।<ref>डॉ॰ ज्ञान प्रकाश पिलानिया, 'Enlightened Government in Modern India: Heritage of Sawai Jai Singh' ('हेरिटेज ऑफ़ सवाई जयसिंह') ISBN 8187359161, ISBN 9788187359166</ref>
 
''दूसरा अश्वमेध यज्ञ बड़े पैमाने पर जयसिंह ने वर्ष १७४२ ई० में करवाया''। इन यज्ञों के अलावा जयपुर में [[पुरुषमेध यज्ञ]], [[सर्वमेध यज्ञ]], [[सोम यज्ञ]] आदि भी किये गये। इन यज्ञों के कारण देश के पंडित-जगत में इनकी बड़ी ख्याति हुई तथा सम्पूर्ण हिन्दू-समाज ने इनकी इस सांस्कृतिक-पहल की प्रशंसा की।<ref>संस्कृत के युग-पुरुष: मंजुनाथ': प्रकाशक: 'मंजुनाथ स्मृति संस्थान, जयपुर-302001</ref>
 
आसपास की राजनैतिक उथल-पुथल के बावजूद जयपुर नगर उस समय विभिन्न विद्याओं, साहित्य और भारतीय-[[संस्कृति]] का आगार बन गया था। इसी कारण इसे '''दूसरी काशी''' भी कहा गया | [[कर्नल]] [[जेम्स टॉड]] ने भी माना है कि "महाराज सवाई जयसिंह ने जयपुर को हिन्दूविद्याओं का शरणस्थल बना दिया था। इस तरह भारत में सदियों से यज्ञादि की जो परम्परा लगभग बन्द हो चुकी थी, उन्हें महाराजा सवाई जयसिंह ने जयपुर राज्य में फिर से प्रारम्भ किया।"<ref>'राजस्थान का इतिहास' : लेफ्टिनेंट कर्नल जेम्स टॉड, 'साहित्यागार' प्रकाशन, जयपुर</ref>
 
== सवाई जयसिंह का स्थापत्य-कला को योगदान ==
 
=== जयपुर : शिल्पशास्त्र के आधार पर नई राजधानी ===
महाराजा सवाई जयसिह ने एक नया [[राजधानी]]-नगर बसाने का विचार आमेर से [[दक्षिण]] में छ: मील दूर [[पौष]] वदी १ वि. सं. १७८४ तदनुसार नवम्बर २९ ई० १७२७ को पं० [[जगन्नाथ सम्राट]] के माध्यम से शिलान्यास करते हुए क्रियान्वित किया। सम्पूर्ण नगर-योजना दरबार के प्रमुख वास्तुविद [[विद्याधर चक्रवर्ती]] की तकनीकी सलाह से निर्मित हुई। नक्शा पहले कपड़े पर अमिट काली स्याही से तैयार किया गया। सवाई ने तालकटोरा तालाब बनवाया, मानसागर झील में '[[जलमहल]]' निर्मित करवाया, प्राचीन कछावा किले [[जयगढ़]] का पुनरुद्धार किया, आमेर के जो महल-भाग [[मिर्जा राजा जयसिंह|जयसिंह (प्रथम)]] ने बनवाए थे, उन सब का विस्तार किया तथा सुदर्शनगढ़ का महल भी बनवाया जिसको आज नाहरगढ़ का किला भी कहते हैं। विविध कला-कौशल विकास हेतु '६४ कारखाने' अर्थात अलग-अलग विभाग स्थापित किये, नगर के बाहर आगरा रोड पर इनके द्वारा अपनी सिसोदिया रानी के लिए एक ग्रीष्मकालीन बाग़ और महल बनवाया गया। शहर में [[कल्कि]] का मंदिर और यज्ञस्तम्भ के पास भगवान [[विष्णु]] का मंदिर भी इन्होनें बनवाया। [[मथुरा]] में [[सीता]][[राम]]जी का और [[गोवर्धन]] में गोवर्धनधारी के मंदिर भी इन्होनें ही बनवाये।<ref>सवाई जयसिंह : राजेंद्र शंकर भट्ट: [[नेशनल बुक ट्रस्ट]] (अंग्रेज़ी अनुवाद: शैलेश कुमार झा) २००५ संस्करण</ref>
[[File:आमेर महल का दीवाने-आम.JPG|thumb|आमेर महल का दीवाने-आम : छायाकार: हे.शे.]]
 
=== नगर का वास्तु-कौशल ===
नए नगर को ९ सामान क्षेत्रफल वाले खंडों (चौकड़ियों) में बांटा गया था, जिसके दो खण्ड मुख्य राजमहल 'चन्द्रमहल', विभिन्न राजकीय कारखानों, कुछ खास मंदिरों तथा वेधशाला के लिए आरक्षित रखे गये थे। सूरजपोल दरवाज़े से चांदपोल दरवाज़े तक सड़क की लम्बाई दो मील और चौड़ाई १२० फीट रखी गयी। इसी महामार्ग पर मध्य में तीन सुन्दर चौपड़ों का निर्माण भी प्रस्तावित किया गया जो यहाँ लगे हुए फव्वारों के लिए भूमिगत जलस्रोतों से जुड़े थे। शहर के चौतरफ बनाये गए परकोटे की दीवार २० से २५ फुट ऊंची तथा ९ फीट चौड़ी रखी गयी। इस परकोटे में (शहर में आने - जाने के लिए) सात सुन्दर प्रवेशद्वारों का निर्माण भी किया गया। रात को नगर-सुरक्षा हेतु इन्हें बंद कर दिया जाता था। सुन्दर राजसी राजमहल, भव्य-पाठशालाएं, बड़ी बड़ी, चौड़ी और एक दूसरे को समकोण पर विभाजित करती एकदम सीधी सड़कें, एक सी रूप-रचना के आकर्षक बाज़ार, जगह-जगह कलात्मक मंदिर, (राजा [[राम]] की [[अयोध्या]] के वास्तु से प्रभावित) आम-भवन-संरचनाएं, सड़कों के किनारे लगे घने छायादार पेड़, पीने के पानी का समुचित प्रबंध, व्यर्थ-जल-निकासी की उपयुक्त व्यवस्था, उद्यान, नागरिक-सुरक्षा, आदि इन सब बातों का पूर्व-नियोजन सवाई जयसिंह ने अपने नगर-कौशल में सफलतापूर्वक किया।
 
=== जयपुर पर केन्द्रित संस्कृत महाकाव्य ===
पंक्ति 159:
किन्तु महाराजा जयसिंह को खगोलविद्या में 'दीक्षित' करने का बड़ा श्रेय पंडित [[जगन्नाथ सम्राट]] को है। राजा को [[वेद]] पढ़ाने के लिए नियुक्त [[मराठी]] सम्मानित विद्वान भारतीय ज्योतिर्विज्ञान को योगदान देते हुए सम्राट जगन्नाथ ने 'सिद्धान्त कौस्तुभ' की रचना की तथा [[यूक्लिड]] के [[रेखागणित]] का [[अरबी]] से [[संस्कृत]] में अनुवाद किया।
 
सवाई जयसिंह ने अपने गुरु ही के अनुसरण में यह अनुभव किया कि [[न्यूटन]] [Newton] और [[फ्लेमस्टीड]] [Flamsteed] आदि द्वारा उल्लेखित यूरोपीय वैज्ञानिकों के पीतल या धातु के खगोल-यंत्रों से मौसम, तापमान, घिसाई, आदि कई कारणों से गणना फलावट में अक्सर अन्तर आ जाया करता है, इसलिए इन्होंने सबसे पहले १७२४ ईस्वी में दिल्ली की वेधशाला में धातु को छोड़ कर चूने और तराशे गए पत्थर से बड़े-बड़े गणना यंत्र बनवाये।
 
फिर इसी तरह इन्होंने जयपुर में १७३४ में और सन १७३२ से १७३४ के बीच [[मथुरा]], [[बनारस]] और [[उज्जैन]] में भी अपने वास्तुविद [[विद्याधर]] के मार्गदर्शन में सम्राट जगन्नाथ द्वारा विकसित उन्नत यंत्रों- सम्राट-यन्त्र (लघु), नाडी-वलय-यन्त्र, कांति-वृक्ष-यन्त्र, यंत्रराज, दक्षिनोदक-भित्ति-यन्त्र, उन्नतांश-यन्त्र, जयप्रकाश-यन्त्र, सम्राट-यन्त्र (दीर्घ), शषतांश यंत्र, कपालीवलय यन्त्र, राशिवलय यन्त्र, चक्र यंत्र, राम यन्त्र, त्रिगंश यन्त्र आदि से युक्त नई वेधशालाएँ बनवाई।<ref>http://www.google.co.in/search?tbo=p&tbm=bks&q=inauthor:%22Jai+Singh+II+(Maharaja+of+Jaipur)%22</ref>,<ref>http://www.indiavisitinformation.com/indian-culture/indian-monument/Jantar-Mantar-in-india.shtml</ref> मथुरा की वेधशाला नष्ट हो चुकी, काशी और उज्जैन की वेधशालाएं नष्ट होने के कगार पर हैं; अब केवल जयपुर और थोड़ी बहुत दिल्ल्ली की वेधशाला इनके वैज्ञानिक-व्यक्तित्व का स्मरण कराती हैं।
 
=== जयपुर दरबार में विदेशी विद्वान===
जब इनको मालूम हुआ कि पश्चिम के ज्योतिषीगण द्वारा खासतौर पर पुर्तगाल में पिछले कुछ वर्षों में खगोलविद्या पर काफी काम हुआ है, इन्होंने गोवा के पुर्तगाली-गवर्नर के मार्फत पुर्तगाल के बादशाह को अनेक तोहफे भेजे तथा गवर्नर के मार्फत पुर्तगाल से खगोल विद्वान Padre Manoel Figueiredo को जयपुर बुलवाया।<ref>Sharma, Virendra Nath (1995), Sawai Jai Singh and His Astronomy, Motilal Banarsidass Publications</ref> जयसिंह ने १७२७ में उसे (Manoel Figueiredo को) योरोप में इस विषय की सारी उपलब्ध नवीनतम पुस्तकें / रचनाएँ तथा दूर्वीक्षण यंत्र (टेलीस्कोप) लाने भेजा। वह जब नवम्बर १७३० में वापिस आया तो अपने साथ खगोलज्ञ जेवियर डीसिल्वा को और कुछ दूरबीनें साथ लाया। जेवियर डीसिल्वा Pere de la Hire (1640-1718) की सारणी 'Tabulae Astronomicae' लिस्बन से अपने साथ लाया था। इन्होंने अपने विद्वानों की सहायता से उन सारणियों का अध्ययन किया और व्यावहारिक उपयोग के बाद उनमें त्रुटियाँ पाईं| अंततः इन्होंने ''अपने यंत्रों की गणना से पुनः नई सारिणी'' बनाई, जिसका बादशाह के नाम पर नाम '''जिज़-ए-मुहम्मदशाही''' रखा गया।<ref>A B Umasankar Mitra (1995) "Astronomical Observatories of Maharaja Jai Singh". School Science (NCERT) 23 (4): 45–48</ref>
 
इनके दरबार में चन्द्रनगर से आया फ्रांसीसी खगोलज्ञ क्लाड बोडियर था। इनके दरबार में जर्मनी से फादर ऐन्टोइन गेवेल्स परगुइर व आद्रें स्टोब्ल भी आये थे। एक और हिन्दुस्तानी विद्वान, इनके यहाँ केवलराम था, जो गुजरात से आया था। उसने खगोल सम्बन्धी आठ ग्रन्थ लिखे थे। उसको सवाई जयसिंह ने 'ज्योतिषराय' की उपाधि भी दी।<ref>A B Umasankar Mitra (1995). "Astronomical Observatories of Maharaja Jai Singh".School Science (NCERT) 23 (4): 45–48</ref>
पंक्ति 170:
महाराजा सवाई जयसिंह ने युद्ध और राजनीति में उलझे रहने के बावजूद, नगर-निर्माण और खगोलशास्त्र में बड़ा काम किया। इन्होंने भारतीय खगोलविद्या के साथ यूनान, मध्य एशिया और योरोप में जो ग्रन्थ लिखे गये थे तथा जो यंत्र बने थे, उनको मंगवा कर उनका परीक्षण व उपयोग किया।
 
''282 साल पहले लकड़ी, चूने, पत्थर और धातु से निर्मित यंत्रों के माध्यम से आकाशीय घटनाओं के अध्ययन की भारतीय विद्या को 'अद्भुत' मानते हुए इस स्मारक को ''विश्व धरोहर सूची'' में शामिल किया गया है|'' इन्हीं यंत्रों के गणना के आधार पर आज भी जयपुर के स्थानीय पंचांग का प्रकाशन होता है और हर बरस आषाढ़ पूर्णिमा को खगोलशास्त्रियों द्वारा 'पवन धारणा' प्रक्रिया से आने वाली वर्षा की भविष्यवाणी की जाती है।
 
भारत में जयसिंह से पूर्व, खगोलशास्त्र में अनेक दशकों यहाँ तक कि सदियों से कोई 'बड़ा' या उल्लेखनीय कार्य नहीं हुआ था, सवाई ने इस सांस्कृतिक-निर्वात की पूर्ति की। <ref>Sharma, Virendra Nath (1995), Sawai Jai Singh and His Astronomy, Motilal Banarsidass Publ., pp. 8–9, ISBN 81-208-1256-5</ref><ref>http://www.uwfox.uwc.edu/users/vsharma/paper.html</ref>
पंक्ति 182:
 
=== समाज-सुधारक के रूप में सवाई जयसिंह ===
सवाई जयसिंह ने सभी समाजों के लिए परंपरा संबंधी सुधार-कार्य किये। ब्राह्मण समाज में कई सुधार करते हुए वैरागी साधुओं में व्याप्त व्यभिचार मिटाने के लिए इन्होंने उनको पुनर्विवाह कर अपनी पत्नी साथ रखने (गृहस्थ आश्रम में प्रवेश) का विधान किया। बादशाह से फकीरों व सन्यासियों की मृत्यु के बाद, उनकी सम्पत्ति राज्य के पक्ष में जब्त नहीं करने की आज्ञा जारी करवाई, किन्तु सन्यासियों को 'निजी सम्पत्ति' रखने से रोका। बादशाह से अनुरोध के बाद हिन्दुओं पर लगाया गया पुराना भयंकर टैक्स [[जजिया कर]] समाप्त करवाया, ब्राह्मणों और राजपूतों के शादीब्याह आदि में हैसियत से बाहर जा कर दहेज़ देने और मृत्युभोज आदि सामाजिक अवसरों पर धन की बर्बादी रोकने की कोशिश भी की। जगह-जगह धर्मशालाएं, कई संस्कृत पाठशालाएं और विद्यालय खोले, विधवा-विवाह का पक्ष लिया, स्त्री-हत्या, कन्या-वध रोका, 'सर्वधर्म समभाव' की भावना को बढ़ावा दिया, विशेषतः जयपुर में [[जैन]] संप्रदाय को प्रोत्साहित किया, दिल्ली, आगरा, अन्य स्थानों से बड़े २ व्यापारियों को ला कर जयपुर में बसाया, देश में घूम-घूम कर विद्वानों की खोज की, उन्हें राज-सम्मान बक्शा, बड़ी २ जागीरें दीं और उत्तर भारत के समूचे हिन्दू-समाज को ऐसे कठिन वक़्त बाहरी आक्रान्ताओं से मुक्त रखा, जब राजनैतिक उठापटक, केंद्र में प्रशासनिक अराजकता और अनेक राजपूताना राज्यों के बीच सर-फुट्टवल अपने चरम पर थी। <ref>'जयपुर-दर्शन' सम्पादक : [डॉ॰ प्रभुदयाल शर्मा 'सहृदय'नाट्याचार्य] वर्ष 1978 [पेज 203] प्रकाशक : जयपुर अढाई शती समारोह समिति, नगर विकास व्यास (अब जयपुर विकास प्राधिकरण) परिसर, भवानी सिंह मार्ग, जयपुर</ref>
 
=== शासन-व्यवस्था===
दिन प्रतिदिन का शासन राजा की आज्ञा से उनके दीवान चलाते थे। दीवानों या मंत्रियों की संख्या राजा की मर्जी के मुताबिक परिवर्तनशील थी। सेना संबंधी सारा काम बख्शी के अधिकार-क्षेत्र में था। जब सवाई जयसिंह गद्दी पर बैठे तब उनके तीन दीवान रामचन्द्र, किशनदास और बिहारीदास थे। वि. सं. १७५७ में इन्होने एक दीवान और बढ़ा कर चार कर दिये थे। वि. सं. १७७३-७४ में आठ दीवान थे।<ref name="ignca.nic.in"/> पहले आमेर-दरबार के लेखा-विभाग में 'जूनियर ऑडिटर' का काम कर चुके महान वास्तुविद [[विद्याधर चक्रवर्ती]] इनके राजस्व मंत्री (या देश-दीवान) थे। [https://hi.wikipedia.org/s/7fp7]
[[File:जयगढ़ किले में प्रदर्शित तोप जयबाण.JPG|thumb|जयगढ़ किले में ढाली गयी तोप जयबाण जिसका परीक्षण केवल एक बार हुआ और जिससे छोड़ा गया लोहे का गोला लगभग २२ किलोमीटर दूर [[चाकसू]] के आसपास जा कर गिरा था! : छायाकार: हे.शे. ]]
 
कुंवर [[नटवर सिंह]] ने लिखा है-"यदि जाटों का अभ्युदय न हुआ होता, तो जयपुर का राज्य यमुना-नदी तक फैल गया होता।"<ref>नटवर सिंह : हिन्दी अनुवाद : राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली से 2006 में प्रकाशित चर्चित पुस्तक 'महाराजा सूरजमल'(प्रथम प्रकाशन : इंग्लेंड से मूलतः अंग्रेज़ी में)[http://www.amazon.com/Maharaja-Suraj-Mal-1707-63-Times/dp/0049230727/ref=la_B001ICOTJW_1_7?s=books&ie=UTF8&qid=1403930933&sr=1-7]</ref>
 
=== जयपुर के सेना के कुछ सेना-अधिकारी ===
जयसिंह के प्रमुख सेनापतियों में कुशलसिंह राजावत (झिलाय), कोजूरामती राजावत (ईसरदा), दलेलसिंह राजावत (धूला), रावल शेरसिंह नाथावत (सामोद), मोहनसिंह नाथावत (चौमू), बखतसिंह नाथावत (मोरीजा), पदमसिंह चतुरभुजोत (बगरु), श्यामसिंह खंगारोत (डिग्गी), केशरीसिंह नरुका (लदाणा), जोरावरसिंह नरुका (मानपुर-मांचेडी), संग्रामसिंह नरुका (उनियारा), गजसिंह नरुका (जावली), दीपसिंह शेखावत (कासली), शार्दूलसिंह शेखावत (झुंझुनूं), शिवसिंह शेखावत (सीकर), दीपसिंह कुम्भाणी (भांडारेज) जोरावरसिंह, श्योब्रह्मा (पोता) आदि थे। [http://www.ignca.nic.in/coilnet/rj089.htm]
 
सेना दो प्रकार की होती थी जागीरदारों की सेना, जिसके एकत्रित होने पर सवार और प्यादा आदि के हिसाब से रोजाना का खर्च दिया जाता था। खुद राज्य की ऐसी सेना बहुत छोटी होती थी जिसको मासिक तनख्वाह दी जाती थी। फौज में घुड़सवार सेना भी अपेक्षकृत कम होती थी। मुख्य अंगरक्षक, 'रिसाला' ही होता था जिसमें एक हजार घुड़सवार होते थे। बाकी पैदल सेना अधिक थी। जयसिंह ने अपनी सेना में तोड़ेदार बंदूकें शामिल कर दी थी, जिससे उनकी सेना की मारक-शक्ति बहुत बढ़ गई थी। ''यदुनाथ सरकार'' के शब्दों में-
"<small>Jai Singh's regular army did not exceed 40,000 men, which would have cost about 60 lakhs a year, but his strength lay in the large number of artillery and copious supply of munitions, which he was careful to maintain and his rule of arming his foot with matchlocks instead of the traditional Rajput sword and shield - He had the wisdom to recognize early the change which firearms had introduced in Indian warfare and to prepare for himself for the new war by raising the fire-power of his army to the maximum</small>"
 
इनका तोपखाना भी बड़ा प्रभावी तथा शक्तिशाली था। जयगढ़ में ही तोपें निर्मित की जाती थीं। तोपें ढालने का वह 'यंत्र' और सांचे अभी भी जयगढ़ किले की फाउंड्री में मौजूद है। जयगढ़ में रखी जो बड़ी तोप 'जैबाण' है, उसके मुकाबले की देशज तोपें देश में बहुत कम है। (चित्र)
 
सेना की भर्ती, वेतन, रसद आदि आवश्यक कार्यों के लिए बख्शी का (बहुत महत्वपूर्ण पद) होता था।<ref name="ignca.nic.in"/>
पंक्ति 205:
इनके समकालीन राजदरबार के कवि श्रीकृष्णभट्ट ने लिखा है कि 'यह अन्तिम दिनों में गोविन्ददेव के ध्यान में लीन रहने लग गए थे।'<ref name="ReferenceA">'ईश्वर विलास' महाकाव्य, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर</ref>
 
सवाई जयसिंह की मृत्यु जयपुर में में आश्विन सुदी १४ वि॰सं॰ १८००, सितम्बर २१, सन १७४३ ई० को वृद्धावस्था और बीमार रहने के बाद हुई। <ref>[[यदुनाथ सरकार]] : वही : पृष्ठ 192</ref> उन्हें गैटोर में अग्नि दी गयी। इनके सत्ताईस रानियां थी, जिनमें से तीन इनकी चिता के साथ सती हुईं | उन रानियों की छतरी जयपुर-आमेर मार्ग पर (जलमहल से पहले) है। <ref>http://www.pinkcity.com/hi/places-to-visit/queens-canopies/</ref>
 
जेम्स टॉड ने लिखा है- " ''चवालीस साल तक राज्य करके संवत १७९९ (सन १७४३) में सवाई जयसिंह की जयपुर में मृत्यु हो गयी| उसकी तीन विवाहित रानियाँ और अनेक उप पत्नियाँ उसके शव के साथ जल कर सती हुईं| उसने जिस विज्ञान की अपने जीवन भर उन्नति की थी, उसकी मृत्यु के बाद वह (जयपुर से) एकाएक लोप हो गई|...जयसिंह की यज्ञशाला के रजत-पत्तरों को उसके वंशज जगतसिंह ने निकलवा कर, उनके स्थान पर साधारण चांदी के पत्तर लगवा दिए| जयसिंह ने जिन ग्रंथों का संग्रह करने में जीवन भर अत्यधिक परिश्रम और धन व्यय किया था, उसके दो हिस्से कर डाले गए| उनके पुस्तकालय का एक भाग किसी प्रकार जयपुर की एक साधारण वेश्या ''(रसकपूर)'' के अधिकार में पहुँच गया!'' "<ref>'राजस्थान का इतिहास' भाग-2 : लेफ्टिनेंट कर्नल जेम्स टॉड, पृष्ठ 119 'साहित्यागार' प्रकाशन, जयपुर</ref>
 
== स्मारक और स्मृति-चिन्ह ==
* सवाई जयसिंह का एक बेहद सुन्दर स्मारक इनके पुत्र ईश्वर सिंह ने जयपुर में ब्रह्मपुरी के गैटोर में बनवाया!<ref>सवाई जयसिंह : राजेंद्र शंकर भट्ट: नेशनल बुक ट्रस्ट (अंग्रेज़ी अनुवाद: शैलेश कुमार झा) 2005 संस्करण]</ref>
* जयपुर के [[स्टेचू सर्किल]] पर बंगाली मूर्तिकार ''महेंद्र कुमार दास'' से संगमरमर में बनवा कर इनकी १२ फीट ऊंची एक आकर्षक प्रतिमा राजस्थान शासन ने जयपुर शहर की २५० वीं सालगिरह के अवसर पर 1978 में स्थापित की। <ref>https://hi.wikipedia.org/s/nrh</ref>. [http://www.jaipur.org.uk/forts-monuments/statue-circle.html]
* सवाई जयसिंह की स्मृति में नई दिल्ली में एक प्रमुख सड़क है। [http://www.newdelhiymca.in/ymca_map.php]
*इसी तरह जयपुर के बनीपार्क क्षेत्र की एक प्रधान सड़क 'जयसिंह हाइवे' कहलाती है। [http://timescity.com/jaipur/event/sawai-jai-singh-road-location/]
*खगोलशास्त्र के योग्य विद्वानों को 'सवाई जयसिंह सम्मान' जयपुर का भूतपूर्व राजघराना प्रतिवर्ष देता है। [http://msmsmuseum.com/pages.php?id=27]
*भारत सरकार ने इनके निर्माण जंतर-मंतर को [[एशियाई खेलों]] के 'प्रतीक-चिन्ह' के रूप में स्वीकार करते इस पर एक डाक टिकट 1984 में जारी किया था। [http://www.indian-visit.com/monuments-of-india/jantar-mantar-delhi.html] . [http://www.indiavisitinformation.com/indian-culture/indian-monument/Jantar-Mantar-in-india.shtml]
 
पंक्ति 221:
 
==== शिवसिंह की मृत्यु====
शिवसिंह की मृत्यु का कारण '[[वंश भास्कर ]]' के ख्यात-लेखक ने यह बताया है कि मंझले पुत्र ईश्वरसिंह के उकसाने पर सवाई जयसिंह ने ज़हर दे कर अपनी रानी के सहयोग से स्वयं अपने टीकाई पुत्र की हत्या कर दी थी, पर [[यदुनाथ सरकार]] जैसे इतिहासकार इसे 'गप्प' मानते हैं और स्वीकार नहीं करते| उनके अनुसार " (अपने पिता की अनुपस्थिति में बादशाह द्वारा बनाये गए आगरा के सूबेदार) शिवसिंह की हैजे (कॉलेरा) से मथुरा में अकाल-मृत्यु १७२४ ईस्वी में हुई थी, जहाँ वह फौजदार पद पर थे|"<ref name="ReferenceB">Jadunath Sarkar : 'A History of Jaipur' : Orient BlackSwan, Page 193</ref> जब कि १९ वीं सदी के अंत में लिखे ग्रन्थ [[वीर विनोद]] (जिसे उदयपुर राज्य के शासक महाराणा सज्जन सिंह ने मेवाड़ के प्रामाणिक इतिहास लेखन का उत्तरदायित्व [[कविराज श्यामलदास]] को सौंपा था) में यह लिखा गया है "माधोसिंह ने अपने बड़े भाई शिवसिंह को विष दे कर मार डाला था|"<ref name="ReferenceB"/>
 
सवाई जयसिंह इन तीन पुत्रों के अलावा दो पुत्रियां भी थीं पहली - ''विचित्र कंवर'', जिनका विवाह अभयसिंह (जोधपुर) और छोटी ''किशन कंवर'', जिनका विवाह बून्दी के राजा दलेलसिंह के साथ हुआ।<ref name="ReferenceA"/>
 
== सन्दर्भ ==
पंक्ति 251:
*'Gazeta de Lisboa occidental' (in short Gazeta) (1) March 10, 1729, p.&nbsp;80, (2) Jan. 20, 1729, p.&nbsp;24.
*'Jām-i Bahādur' Khānī' (1835) by Janupuri, G. H., p.&nbsp;579, Calcutta, as quoted by Khan Gori, S. A.
*Kaye, G. R. (1918). 'The Astronomical Observatories of Jai Singh', Calcutta. Reprint 1973, Indological Book House, Delhi.
*Khan, Gori, S. A. (1980). 'Impact of Modern European Astronomy on Jai Singh', Indian Journal of History of Science, 15, 50-57.
*'Lettres édifiantes et curieuses' (1843) (in short Lettres) tome deuxieme, Paris.
पंक्ति 258:
*Sharma, R. S. (1967). Ed. 'Samrāta Siddhānta of Jagannath Samrat', 2 1032, Indian Ins. Astro. Sanskrit Research, Reprint 1967, New Delhi.
*Sharma, V. N. (1982). 'Jai Singh, His European astronomers and the Copernican Revolution', Indian Journal of History of Science, 17(2), 345-352.
*Sharma, V. N. (1982). 'The Impact of Eighteenth Century Jesuit Astronomers on the astronomy of India and China'. Indian Journal of History of Science, 17 (2)345-352.
*Sharma, V. N. (1984). 'Jesuit Astronomers in Eighteenth Century India', Archives Internationales D'Histoire Des Sciences, 34, 199-207.
*Sharma, V. N. (1987). 'The Astronomical Endeavors of Jai Singh', Interaction between Indian and Central Asian Sciences and Technology in Medieval Times, Indian National Science Academy, New Delhi.