"जय सिंह द्वितीय": अवतरणों में अंतर
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=== सवाई की मौखिक-उपाधि ===
अपने पिता [[महाराजा बिशन सिंह]] के असामयिक देहान्त के बाद २५ जनवरी [[१७००]] को ११ वर्ष की लगभग बाल्य-अवस्था में वे [[आमेर]] की गद्दी बैठे।<ref>'जयपुर-दर्शन' प्रकाशक : प्रधान-सम्पादक : [डॉ॰ प्रभुदयाल शर्मा 'सहृदय'नाट्याचार्य] वर्ष 1978 :[पेज 203] प्रकाशक : जयपुर अढाई शती समारोह समिति, नगर विकास व्यास (अब जयपुर विकास प्राधिकरण) परिसर, भवानी सिंह मार्ग, [[जयपुर]]</ref>
[[यदुनाथ सरकार]] ने अपने जयपुर इतिहास में इस 'उपाधि' के बारे में जो शब्द लिखे हैं- अविकल रूप से ये हैं-" The new Rajah also gained the title of ''Sawai'', which means 'one and a quarter', because Aurangzeb was so pleased with this youthful prince's feats before Khelna that he cried out," You are more than a man, you are ''sawa''- ''i.e.,''a hundred and twenty five per cent hero'<ref>Jadunath Sarkar : 'A History of Jaipur' : Orient BlackSwan : Extracts from chapter ' Sawai Jai Singh's Early Career' Page 149</ref>
कुछ दूसरे स्रोत बतलाते हैं 'सवाई' की उपाधि [[औरंगजेब]] द्वारा नहीं बल्कि बादशाह [[फर्रुख़ सियर]] [https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AB%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%81%E0%A4%96%E0%A4%BC_%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%B01713-19] द्वारा इन्हें दी गयी थी। <ref>'जयपुर-दर्शन' प्रकाशक : प्रधान-सम्पादक : [डॉ॰ प्रभुदयाल शर्मा 'सहृदय'नाट्याचार्य] वर्ष 1978 [पेज 203] प्रकाशक : जयपुर अढाई शती समारोह समिति, नगर विकास व्यास (अब [[जयपुर विकास प्राधिकरण]]) परिसर, [[भवानी सिंह]] मार्ग, जयपुर</ref> पर यह बात (जो शायद [[किंवदंती]] का रूप ले चुकी है) अधिकांश ग्रंथों में औरंगजेब के साथ जुडी मिलती
== जन्म और माता-पिता==
जयसिंह द्वितीय का जन्म [[मार्गशीर्ष]] वदी 7 वि० सं० १७४५ ई० [दिनांक
[[File:Rajputana 1909.jpg|thumb|राजपूताना प्रान्त का एक पुराना मानचित्र]]
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== सवाई जयसिंह के शासन का सम्पूर्ण राजनैतिक इतिहास ==
=== सत्ता का अधिग्रहण और नाम-परिवर्तन ===
राजा विष्णुसिंह की [[काबुल]] में
यदुनाथ सरकार के अनुसार "...जुलाई १६९८
===औरंगजेब और जयसिंह ===
गद्दी पर बैठने के तुरंत बाद, जैसा ऊपर लिखा गया है, इन्हें नवम्बर १७०० में दक्षिण में अपनी सेना के साथ मुग़ल बादशाह की फ़ौज के रूप में लड़ने के लिए बुलाया गया था, पर किसी न किसी तरह जयसिंह बराबर टालमटोल करते रहे।
=== सवाई जयसिंह की आरंभिक सामरिक-सफलताएं और बादशाह औरंगजेब के पूर्वाग्रह ===
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औरंगजेब के पोते शाह बिदरबख्त के नेतृत्व में बादशाही सेना ने ११ मई ई० १७०२ को खिलना के किले पर भारी हमला किया। इसमें आमेर और मुग़ल संयुक्त-सेना की बहुत जनहानि हुई, पर उसकी दीवारों को तोड़ कर सबसे पहले जयसिंह की कछवाहा सेना ही खिलना-दुर्ग में प्रविष्ट हुई। उसकी बुर्ज पर आमेर का 'पंचरंगा झंडा' फहराया गया। (''इस समय जयसिंह की उम्र केवल १४ वर्ष थी)।'' खिलना-युद्ध में इनका वीर और भरोसेमंद दीवान बुद्धसिंह मारा गया। इस खिलना-विजय पर बादशाह औरंगजेब द्वारा इनका मनसब बढ़ा कर पहले एक हज़ार, फिर [[शाह बिदरबख्त]] के अनुरोध के बाद २००० (दो हजार जात) का कर दिया गया। बादशाह की छः साल की 'कठिन सेवा' का महज़ यह प्रतिदान जयसिंह को मिला! इसके बाद जब शाहजादा बिदरबख्त मालवे का सूबेदार हुआ, तब उसने जयसिंह की सेवाओं का सम्मान करते उन को वहाँ का [[नायब सूबेदार]] बना दिया, जिसे औरंगजेब ने तत्काल ही 'नामंजूर' कर दिया तथा एक फरमान लिखा कि ''आइन्दा किसी हिन्दू भी को मामूली फौजदार तक भी नहीं बनाया जाए''।'<ref>'अहकाम-ए- आलमगिरी' : इयानतुल्ला) सन्दर्भदाता : यदुनाथ सरकार : वही: पृष्ठ १५२</ref>
विडम्बना हैरतंगेज़ है कि जिस औरंगजेब ने कभी इन्हें 'सवाई' कह कर सम्मान दिया वही बाद में
इसी बीच ई० १७०४ में दो बादशाही फौजदारों ने स्थानीय मदद ले कर ठाकुर कुशल सिंह राजावत से सवाई माधोपुर में आज स्थित [[झिलाय]] ठिकाने की जागीर छीन कर १३ नवम्बर १७०४ को जयसिंह (आमेर राज्य) को सौंप दी। दूसरे साल ई० १७०५ में शाह बिदरबख्त ने अपनी तरफ से इनके पक्ष में फिर से कोशिश करके जयसिंह को मालवा का भी नायब सूबेदार बनवा दिया।<ref name="यदुनाथ सरकार : पृष्ठ १५३">यदुनाथ सरकार : पृष्ठ १५३</ref> पर जब तक औरंगजेब जीवित रहा, मुग़ल खेमे में इनका प्रभाव मद्धम सा ही रहा।
=== औरंगजेब की मृत्यु के बाद ===
ई० १७०७ में
=== आमेर पर हमले और अपमानित जयसिंह ===
जयसिंह के छोटे भाई विजयसिंह, बादशाह को खुश करने के लिए अपनी बहन का विवाह बादशाह बहादुरशाह (प्रथम) से करवाना चाहते थे। उन्होंने इसकी खबर दिल्ली भेज दी तथा बुद्धसिंह हाडा को छुट्टी जाते समय रास्ते में रोक कर उन से सामोद में यह विवाह करवा दिया। नये बादशाह बहादुरशाह (प्रथम) ने इसके बाद राजस्थान पर चढ़ाई की। जनवरी १७०८ ई० में वह आमेर पहुँचा और उसे [[खालसा]] कर लिया। जयसिंह से आमेर की जागीर जब्त करके बादशाह बहादुरशाह (प्रथम) द्वारा १० जनवरी १७०८ को उनके छोटे भाई विजयसिंह (चीमाजी) को अनेकानेक महंगे उपहारों सहित दे दी गयी। सवाई जयसिंह का राजनैतिक कद घटा कर एक मामूली 'मनसबदार' के रूप में कर दिया गया। <ref>यदुनाथ सरकार : पृष्ठ १५४</ref>
बादशाह इसके बाद अजमेर होकर दक्षिण के लिए अपने भाई [[कामबक्श]] से मुकाबला करने को बढ़ा। [[आमेर]] और [[जोधपुर]] के दोनों राजा [[मंडलेश्वर]] के इलाके तक उसके साथ ही गये। जब उन्हें यह आशा नहीं रही कि बादशाह उनके इलाके उन्हें वापस लौटाएगा तो उन्होंने [[दुर्गादास राठौड़]] की राय से, जब बादशाह नर्बदा नदी पार करने को रवाना हुआ, २० अप्रैल १७०८
यहाँ [[महाराणा प्रताप]] के पुत्र और उत्तराधिकारी[[राणा अमरसिंह]] ने इनका स्वागत किया तथा अपनी पोती जयसिंह को ब्याही। यहाँ से तीन राजाओं की ३० हजार सेना ने संयुक्त-रूप से जोधपुर पर हमला करके ८ जुलाई १७०८ ई० को उसे अपने अधिकार में कर लिया। राजा अतसिंह जोधपुर के जयसिंह ने टीका किया। यहाँ से उन्होंने हिन्दुस्तान के अनेक राजाओं को मुगलों के विरुद्ध एकत्रित होने संबंधी पत्र भी लिखे।<ref name="ignca.nic.in"/>
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[[जोघपुर]] से विजय सिंह शासित आमेर पर अधिकार करने को दो सेनाएँ भेजी गयीं। एक [[दुर्गादास राठौड़]] के नेतृत्व में, जिसका सैयदों से [[काला डेरा]] के पास युद्ध हुआ। दूसरी सेना में, महाराजा जयसिंह का दीवान रामचन्द्र और श्यामसिंह के अधीन २० हजार घुड़सवार थे। इनका [[रतनपुरा]] के पास [[आमेर]] के फौजदार हुसैन खाँ से युद्ध हुआ, जिसमें उन्होंने उसे परास्त करके आमेर पर अपना अधिकार कर लिया।<ref name="ignca.nic.in"/>
इसके बाद इन दोनों राजाओं के विरुद्ध वर...... ???? ने मेवात के फौजदार सैयद हुसेन खां, अहमद खां फौजदार बैराठ सिधाना और गारात खां फौजदार नारनोल को [[सांभर]] भेजा। दोनों राजाओं के इन फौजदारों से [[सांभर]] में ३ अक्टूबर ई० १७०८ को भीषण युद्ध हुआ, जिसमें मुगलों की विजय हुई। युद्ध के बाद विजय की खुशी में मुगलों की महफिल हो रही थी। इसी समय राव संग्रामसिंह (उनियारा) के नेतृत्व में नरुका लड़ाके वहाँ पहुँचे और एक रेत के टीबे पर चढ़े, जिसके नीचे सैयद
फिर जयसिंह ने एक पत्र बादशाह के विरुद्ध दुर्गादास को लिखा कि "उदयपुर महाराणा से बात की जाए ...मराठों को मिला कर मुग़लों के विरुद्ध राजपूतों को वही करना चाहिए जो 'हिन्दुस्तान' के लिए गौरव की बात हो।"<ref name="ignca.nic.in"/>
बादशाह बहादुरशाह जब दक्षिण से वापिस लौटा, तो उसने यह जरुरी समझा कि किसी तरह [[जोधपुर]] और [[आमेर]] (जयपुर) दोनों राजाओं से समझौता किया जाए। इन्हें लाने के लिए उसने [[बुधसिंह हाड़ा]] राजा [[बून्दी]] को भेजा, जिनके मारफत २१ जून ई० १७१० को ये [[अजमेर]] के पास बादशाह के सामने हाजिर हुए। बादशाह ने इनके जब्त किये राज्य वापस लौटा दिए और इन दोनों को ४००० जात ४००० सवार के मनसब भी दिये।
=== जयसिंह द्वारा छलपूर्वक अपने भाई विजयसिंह की गिरफ्तारी ===
जयसिंह के भाई विजयसिंह के साथ भी कुछ ऐसा हुआ कि (जन्म चैत सुदी ६ वि. १७४७) निराश होकर अन्त में मुगल दरबार छोड़ कर [[हिन्डौन]] आ गए। जयसिंह को भाई विजयसिंह की तरफ से सशस्त्र विद्रोह खतरा तो बना हुआ था ही। इन्होंने १७१३ ई० में विजयसिंह से समझौता करने और 'राजमाता से भेंट' करने के नाम पर अपने सशस्त्र सैनिकों एवं सरदारों समेत [[सांगानेर]] जा कर धोखे से उनको कैद करवा दिया<ref>लेफ्टिनेंट कर्नल जेम्स टॉड: 'राजस्थान का इतिहास' खंड-2 : प्रकाशक- 'साहित्यागार', जयपुर; अनुवाद: केशव ठाकुर : संस्करण 2012</ref> और जयगढ़ किले में भेज दिया। (वहीं वे अन्त में मारे भी गये।) विजयसिंह के इस 'हत्याकाण्ड' में श्यामसिंह खंगारोत विशेष सहायक रहा।
[[बहादुर शाह (प्रथम)]] की मृत्यु के बाद उसके उत्तराधिकारी [[जहाँदरशाह]] ने [[आमेर]] और [[मारवाड़]] दोनों राजाओं को फिर अपने पक्ष में करना चाहा। उसने दोनों को ७००० जात व ७००० सवार का मनसब भी दिया, परन्तु इस बार इन्होंने मुग़ल-उत्तराधिकारी के आपसी संघर्ष में औरंगजेब के पुत्रों से दूर ही रहने का
=== मराठे और जयसिंह ===
अक्टूबर १७१३ ई० में इन्हें बादशाह [[फ़र्रुख सियर]] ने [[मालवा]] की सूबेदारी प्रदान की। इन्होंने वहाँ की अनेक बगावतें दबाई व मरहठों के उपद्रव भी कुचले। मरहठों की एक बड़ी सेना जब मालवे में घुसी तब इन्होंने [[पलसूद]] के पास उसे बड़ी करारी हार दी। मराठी सेना के लोग भाग कर पलसूद में ठहरे थे। जयसिंह
=== भरतपुर में विफलता===
दिल्ली से बादशाह ने इनको [[भरतपुर]] के [[चूड़ामन जाट]] पर चढ़ाई करने की आज्ञा दी, जिसने [[आगरा]] के इलाके में लूटमार से बड़ा उपद्रव मचा रखा था। इनके साथ बून्दी के बुद्धसिंह, [[कोटा]] के भीमसिंह, नरवर के गजसिंह, [[दुर्गादास राठौड़]] व कई अन्य मनसबदार भी नियुक्त किये गये। १५ सितम्बर १७१६ को ये अपनी फौज ले कर [[मथुरा]] के लिए रवाना हुए। नवम्बर में [[चूड़ामन]] के प्रसिद्ध किले [[थूण का घेरा]] शुरु किया। वर अब्दुल्ला खां सैयद, जयसिंह के विरुद्ध था तथा चूड़ामन को मदद दे रहा था। इससे इन्हें इस अभियान में सफलता नहीं मिल पाई। वर अब्दुल्ला खां सैयद ने अन्त में बीच में पड़ कर थून का घेरा उठवा लिया। मई १७१८ में जयसिंह
सैयदों और बादशाहों के बीच तलवारें खिंच चुकी थी। जयसिंह ने बादशाह [[फ़र्रुख सियर]] को बहुत समझाया कि सैयदों से
=== सैयद और जयसिंह ===
जयसिंह
=== जोधपुर में विवाह ===
अन्त में अतसिंह जयसिंह
=== निज़ाम और जयसिंह ===
सैयदों की दो सेनाएँ जब दक्षिण में निजाम से परास्त हो गई, तब हुसैन अली खां सैयद, बादशाह मोहम्मद शाह को साथ ले कर, एक बड़ी सेना के साथ निजाम को दबाने के लिए रवाना हुआ। सितम्बर ८, १७२० ई० को [[टोडाभीम]] में उसने हुसैन अली को धोखे से मार डाला। अब बादशाह ने तैयारी करके सैयद अब्दुल्ला खां पर चढ़ाई की जो [[दिल्ली]] में था। इस युद्ध के लिए महाराणा ने जयसिंह
=== मोहम्मद शाह और जयसिंह ===
मोहम्मद शाह ने दिल्ली पहुंचते ही जयसिंह को दिल्ली आने का फरमान भेजा जिसमें लिखा कि उनसे अनेक महत्वपूर्ण समस्याओं पर सलाह लेनी है। उसने दिल्ली पहुंचने पर बादशाह ने अपने नये वर मुहम्मद अमीन खां को उनके डेरे पर लेने भेजा। दरबार में आने पर बादशाह ने उनका बड़ा सत्कार किया और अनेक तोहफे दिए।
=== जयसिंह के महत्त्व में वृद्धि ===
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=== दूसरा जाट युद्ध ===
सितम्बर १७२२ ई० में जयसिंह
महाराजा सवाई जयसिंह के कार्यकाल का संभवतः सबसे बड़ा और कीर्तिवान कार्य था - सन १७२७ में जयपुर नगर बसाना। इसकी नींव पौष वदी १ वि. सं. १७८४, ई० को रखी गई। राजगुरु सम्राट जगन्नाथ ने नए नगर की नींव रखने का मुहूर्त निकाला तथा भूमि पूजा करवाई थी। महाराजा की आज्ञा के अनुसार नए नगर का नक्शा दीवान [[विद्याधर]] ने बनाया जो बहुत प्रतिभाशाली बंगाली ब्राह्मण था और इनके लेखा-विभाग की सेवा में नायब-अंकेक्षक था। सन १७३३ ई० में यह नगर, जिसका नाम सवाई जयसिंह ने ' सवाई जयनगर' रखा बन कर तैयार हुआ।<ref name="ignca.nic.in"/>
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=== कुशत्तल पंचोलास का युद्ध ===
बुद्धसिंह बून्दी और उनकी कछवाही रानी के आपस में गंभीर मतभेद पैदा होने पर जयसिंह के सम्बन्ध भी बूंदी नरेश बुद्धसिंह से बहुत खराब हो गये। अन्त में सम्बन्ध इतने बिगड़े कि जयसिंह
=== तीसरी बार मालवा की सूबेदारी ===
जयसिंह
बाजीराव पेशवा की मृत्यु से महाराजा जयसिंह को बड़ा दु:ख हुआ। नया पेशवा बालाराव बना। १७४१ ई० में जब नए मराठा पेशवा बाला राव उत्तर में चढ़ाई की उस समय जयसिंह आगरा के सूबेदार थे। इनकी और नये पेशवा बाला राव की धौलपुर में भेंट हुई। इनके प्रयास से बादशाह ने पेशवा को मालवा की नायब सूबेदारी दे दी।<ref name="ignca.nic.in"/>
=== नादिरशाह और सवाई जयसिंह ===
जब नादिरशाह भारत में आया तब सभी को बड़ी शंका खड़ी हो गई। पेशवा, महाराणा अन्य राजाओं व बुन्देलों को मिला कर जयसिंह, नादिरशाह का संगठित मुकाबला करना चाह रहा था। हालांकि 24
"नादिरशाह ने जब [[भारत]] पर हमला (फरवरी-मार्च १७३९) किया तब [[दिल्ली]] की सहायतार्थ जयसिंह नहीं गए। इस का कारण यह था- तब निजाम और कमरुद्दीन उस समय साम्राज्य में उच्च पदों पर थे और नादिरशाह के हमले के लिए वे लोग इनके उत्तरदायी होने का शक कर सकते थे, किन्तु सम्राट बराबर इनमें विश्वास रख कर इनसे आवश्यक परामर्श करता रहा।"<ref name="ignca.nic.in"/>
== साहित्य-रचना और यज्ञ-परंपरा==
महाराजा सवाई जयसिंह
पुण्डरीक रत्नाकर (मृत्यु वि. १७७६ में) ने इनसे [[व्रात्यस्तोम यज्ञ]] चैत वदी ३ वि॰सं॰ १७७१ को क्षिप्रा नदी के तट पर उज्जैन में करवाया। इन्होंने और दूसरे यज्ञ-जैसे [[श्रौत यज्ञ]] आदि भी सम्पन्न करवाये थे। इनका रचा हुआ 'जयसिंह कल्पद्रुम' एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। रत्नाकर के पुत्र सुधाकर पौण्डरीक ने जयसिंह से [[पुरुषमेध यज्ञ]] करवाया था तथा 'साहित्यसार संग्रह' की रचना की। इन्होंने [[सम्राट यज्ञ]] भी कराया, जिसके पुरोहित इनके महाराष्ट्रीय ब्राह्मण गुरु, [[जगन्नाथ सम्राट]] थे। ''१७३४ ई० में जयसिंह ने जो पहला [[अश्वमेध यज्ञ]] किया''<ref>http://msmsmuseum.com/pages.php?id=4</ref>, २९ मई १७३४ को सम्पूर्ण हुआ।<ref>सवाई जयसिंह : राजेंद्र शंकर भट्ट: नेशनल बुक ट्रस्ट (अंग्रेज़ी अनुवाद: शैलेश कुमार झा) २००५ संस्करण</ref>
''दूसरा अश्वमेध यज्ञ बड़े पैमाने पर जयसिंह ने वर्ष १७४२ ई० में करवाया''। इन यज्ञों के अलावा जयपुर में [[पुरुषमेध यज्ञ]], [[सर्वमेध यज्ञ]], [[सोम यज्ञ]] आदि भी किये गये। इन यज्ञों के कारण देश के पंडित-जगत
आसपास की राजनैतिक उथल-पुथल के बावजूद जयपुर नगर उस समय विभिन्न विद्याओं, साहित्य और भारतीय-[[संस्कृति]] का आगार बन गया था। इसी कारण इसे '''दूसरी काशी''' भी कहा गया | [[कर्नल]] [[जेम्स टॉड]] ने भी माना है कि "महाराज सवाई जयसिंह ने जयपुर को हिन्दूविद्याओं
== सवाई जयसिंह का स्थापत्य-कला को योगदान ==
=== जयपुर : शिल्पशास्त्र के आधार पर नई राजधानी ===
महाराजा सवाई जयसिह ने एक नया [[राजधानी]]-नगर बसाने का विचार आमेर से [[दक्षिण]] में छ: मील दूर [[पौष]] वदी १ वि. सं. १७८४ तदनुसार नवम्बर २९ ई० १७२७ को पं० [[जगन्नाथ सम्राट]] के माध्यम से शिलान्यास करते हुए क्रियान्वित किया। सम्पूर्ण नगर-योजना दरबार के प्रमुख वास्तुविद [[विद्याधर चक्रवर्ती]] की तकनीकी सलाह से निर्मित हुई। नक्शा पहले कपड़े पर अमिट काली स्याही से तैयार किया गया। सवाई ने तालकटोरा तालाब बनवाया, मानसागर झील में '[[जलमहल]]' निर्मित करवाया, प्राचीन कछावा किले [[जयगढ़]] का पुनरुद्धार किया, आमेर के जो महल-भाग [[मिर्जा राजा जयसिंह|जयसिंह (प्रथम)]] ने बनवाए थे, उन सब का विस्तार किया तथा सुदर्शनगढ़ का महल भी बनवाया जिसको आज नाहरगढ़ का किला भी कहते हैं। विविध कला-कौशल विकास हेतु '६४ कारखाने' अर्थात अलग-अलग विभाग स्थापित किये, नगर के बाहर आगरा रोड पर इनके द्वारा अपनी सिसोदिया रानी के लिए एक ग्रीष्मकालीन बाग़ और महल बनवाया गया। शहर में [[कल्कि]] का मंदिर और यज्ञस्तम्भ के पास भगवान [[विष्णु]] का मंदिर भी इन्होनें
[[File:आमेर महल का दीवाने-आम.JPG|thumb|आमेर महल का दीवाने-आम : छायाकार: हे.शे.]]
=== नगर का वास्तु-कौशल ===
नए नगर को ९ सामान क्षेत्रफल वाले खंडों (चौकड़ियों) में बांटा गया था, जिसके दो खण्ड मुख्य राजमहल 'चन्द्रमहल', विभिन्न राजकीय कारखानों, कुछ खास मंदिरों तथा वेधशाला के लिए आरक्षित रखे गये थे। सूरजपोल दरवाज़े से चांदपोल दरवाज़े तक सड़क की लम्बाई दो मील और चौड़ाई १२० फीट रखी गयी। इसी महामार्ग पर मध्य में तीन सुन्दर चौपड़ों का निर्माण भी प्रस्तावित किया गया जो यहाँ लगे हुए फव्वारों के लिए भूमिगत जलस्रोतों से जुड़े थे। शहर के चौतरफ बनाये गए परकोटे की दीवार २० से २५ फुट ऊंची तथा ९ फीट चौड़ी रखी गयी। इस परकोटे में (शहर में आने - जाने के लिए) सात सुन्दर प्रवेशद्वारों का निर्माण भी किया गया। रात को नगर-सुरक्षा हेतु इन्हें बंद कर दिया जाता था। सुन्दर राजसी राजमहल, भव्य-पाठशालाएं, बड़ी बड़ी, चौड़ी और एक दूसरे को समकोण पर विभाजित करती एकदम सीधी सड़कें, एक सी रूप-रचना के आकर्षक बाज़ार, जगह-जगह कलात्मक मंदिर, (राजा [[राम]] की [[अयोध्या]] के वास्तु से प्रभावित) आम-भवन-संरचनाएं, सड़कों के किनारे लगे घने छायादार पेड़, पीने के पानी का समुचित प्रबंध, व्यर्थ-जल-निकासी की उपयुक्त व्यवस्था, उद्यान, नागरिक-सुरक्षा, आदि इन सब बातों का
=== जयपुर पर केन्द्रित संस्कृत महाकाव्य ===
पंक्ति 159:
किन्तु महाराजा जयसिंह को खगोलविद्या में 'दीक्षित' करने का बड़ा श्रेय पंडित [[जगन्नाथ सम्राट]] को है। राजा को [[वेद]] पढ़ाने के लिए नियुक्त [[मराठी]] सम्मानित विद्वान भारतीय ज्योतिर्विज्ञान को योगदान देते हुए सम्राट जगन्नाथ ने 'सिद्धान्त कौस्तुभ' की रचना की तथा [[यूक्लिड]] के [[रेखागणित]] का [[अरबी]] से [[संस्कृत]] में अनुवाद किया।
सवाई जयसिंह ने अपने गुरु ही के अनुसरण में यह अनुभव किया कि [[न्यूटन]] [Newton] और
फिर इसी तरह इन्होंने जयपुर में १७३४ में और सन १७३२ से १७३४ के बीच [[मथुरा]], [[बनारस]] और [[उज्जैन]] में भी अपने वास्तुविद [[विद्याधर]] के मार्गदर्शन में सम्राट जगन्नाथ द्वारा विकसित उन्नत यंत्रों-
=== जयपुर दरबार में विदेशी विद्वान===
जब इनको मालूम हुआ कि
इनके दरबार में चन्द्रनगर से आया फ्रांसीसी खगोलज्ञ क्लाड बोडियर था। इनके दरबार में जर्मनी से फादर ऐन्टोइन गेवेल्स परगुइर व आद्रें स्टोब्ल भी आये थे। एक और हिन्दुस्तानी विद्वान, इनके यहाँ केवलराम था, जो गुजरात से आया था। उसने खगोल सम्बन्धी आठ ग्रन्थ लिखे थे। उसको सवाई जयसिंह ने 'ज्योतिषराय' की उपाधि भी दी।<ref>A B Umasankar Mitra (1995). "Astronomical Observatories of Maharaja Jai Singh".School Science (NCERT) 23 (4): 45–48</ref>
पंक्ति 170:
महाराजा सवाई जयसिंह ने युद्ध और राजनीति में उलझे रहने के बावजूद, नगर-निर्माण और खगोलशास्त्र में बड़ा काम किया। इन्होंने भारतीय खगोलविद्या के साथ यूनान, मध्य एशिया और योरोप में जो ग्रन्थ लिखे गये थे तथा जो यंत्र बने थे, उनको मंगवा कर उनका परीक्षण व उपयोग किया।
''282 साल पहले लकड़ी, चूने, पत्थर और धातु से निर्मित यंत्रों के माध्यम से आकाशीय घटनाओं के अध्ययन की भारतीय विद्या को 'अद्भुत' मानते हुए इस स्मारक को ''विश्व धरोहर सूची'' में शामिल किया गया है|'' इन्हीं यंत्रों के गणना के आधार पर आज भी जयपुर के स्थानीय पंचांग का प्रकाशन होता है और हर बरस आषाढ़ पूर्णिमा को खगोलशास्त्रियों द्वारा 'पवन धारणा' प्रक्रिया से आने वाली वर्षा की भविष्यवाणी की जाती
भारत में जयसिंह से पूर्व, खगोलशास्त्र में अनेक दशकों यहाँ तक कि सदियों से कोई 'बड़ा' या उल्लेखनीय कार्य नहीं हुआ था, सवाई ने इस सांस्कृतिक-निर्वात की पूर्ति की। <ref>Sharma, Virendra Nath (1995), Sawai Jai Singh and His Astronomy, Motilal Banarsidass Publ., pp. 8–9, ISBN 81-208-1256-5</ref><ref>http://www.uwfox.uwc.edu/users/vsharma/paper.html</ref>
पंक्ति 182:
=== समाज-सुधारक के रूप में सवाई जयसिंह ===
सवाई जयसिंह
=== शासन-व्यवस्था===
दिन प्रतिदिन का शासन राजा की आज्ञा
[[File:जयगढ़ किले में प्रदर्शित तोप जयबाण.JPG|thumb|जयगढ़ किले में
कुंवर [[नटवर सिंह]] ने लिखा है-"यदि जाटों का अभ्युदय न हुआ होता, तो जयपुर का राज्य यमुना-नदी तक फैल गया होता।"<ref>नटवर सिंह : हिन्दी अनुवाद : राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली से 2006 में प्रकाशित चर्चित पुस्तक 'महाराजा सूरजमल'(प्रथम प्रकाशन : इंग्लेंड से मूलतः अंग्रेज़ी में)[http://www.amazon.com/Maharaja-Suraj-Mal-1707-63-Times/dp/0049230727/ref=la_B001ICOTJW_1_7?s=books&ie=UTF8&qid=1403930933&sr=1-7]</ref>
=== जयपुर के सेना के कुछ सेना-अधिकारी ===
जयसिंह
सेना दो प्रकार की होती थी जागीरदारों की सेना, जिसके एकत्रित होने पर सवार और प्यादा आदि के हिसाब से रोजाना का खर्च दिया जाता था। खुद राज्य की ऐसी सेना बहुत छोटी होती थी जिसको मासिक तनख्वाह दी जाती थी। फौज में घुड़सवार सेना भी अपेक्षकृत कम होती थी। मुख्य अंगरक्षक, 'रिसाला' ही होता था जिसमें एक हजार घुड़सवार होते थे। बाकी पैदल सेना अधिक थी। जयसिंह ने अपनी सेना में तोड़ेदार बंदूकें शामिल कर दी थी, जिससे उनकी सेना की मारक-शक्ति बहुत बढ़ गई थी। ''यदुनाथ सरकार'' के शब्दों में-
"<small>Jai Singh's regular army did not exceed 40,000 men, which would have cost about 60 lakhs a year, but his strength lay in the large number of artillery and copious supply of munitions, which he was careful to maintain and his rule of arming his foot with matchlocks instead of the traditional Rajput sword and shield - He had the wisdom to recognize early the change which firearms had introduced in Indian warfare and to prepare for himself for the new war by raising the fire-power of his army to the maximum</small>"
इनका तोपखाना भी बड़ा प्रभावी तथा शक्तिशाली था। जयगढ़ में ही तोपें निर्मित की जाती थीं।
सेना की भर्ती, वेतन, रसद आदि आवश्यक कार्यों के लिए बख्शी का (बहुत महत्वपूर्ण पद) होता था।<ref name="ignca.nic.in"/>
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इनके समकालीन राजदरबार के कवि श्रीकृष्णभट्ट ने लिखा है कि 'यह अन्तिम दिनों में गोविन्ददेव के ध्यान में लीन रहने लग गए थे।'<ref name="ReferenceA">'ईश्वर विलास' महाकाव्य, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर</ref>
सवाई जयसिंह की मृत्यु जयपुर में में आश्विन सुदी १४ वि॰सं॰ १८००, सितम्बर २१, सन १७४३ ई० को वृद्धावस्था और बीमार रहने के बाद हुई। <ref>[[यदुनाथ सरकार]] : वही : पृष्ठ 192</ref> उन्हें गैटोर में अग्नि दी गयी। इनके सत्ताईस रानियां थी, जिनमें से तीन इनकी चिता के साथ सती हुईं | उन रानियों की छतरी जयपुर-आमेर मार्ग पर (जलमहल से पहले)
जेम्स टॉड ने लिखा है- " ''चवालीस साल तक राज्य करके संवत १७९९ (सन १७४३) में सवाई जयसिंह की जयपुर में मृत्यु हो गयी| उसकी तीन विवाहित रानियाँ और अनेक उप पत्नियाँ उसके शव के साथ जल कर सती हुईं| उसने जिस विज्ञान की अपने जीवन भर उन्नति की थी, उसकी मृत्यु के बाद वह (जयपुर से) एकाएक लोप हो गई|...जयसिंह की यज्ञशाला के रजत-पत्तरों को उसके वंशज जगतसिंह ने निकलवा कर, उनके स्थान पर साधारण चांदी के पत्तर लगवा दिए| जयसिंह ने जिन ग्रंथों का संग्रह करने में जीवन भर अत्यधिक परिश्रम और धन व्यय किया था, उसके दो हिस्से कर डाले गए| उनके
== स्मारक और स्मृति-चिन्ह ==
* सवाई जयसिंह का एक बेहद सुन्दर स्मारक इनके पुत्र ईश्वर सिंह ने जयपुर में ब्रह्मपुरी के गैटोर में बनवाया!<ref>सवाई जयसिंह : राजेंद्र शंकर भट्ट: नेशनल बुक ट्रस्ट (अंग्रेज़ी अनुवाद: शैलेश कुमार झा) 2005 संस्करण]</ref>
* जयपुर के [[स्टेचू सर्किल]] पर बंगाली मूर्तिकार ''महेंद्र कुमार दास'' से संगमरमर में बनवा कर इनकी १२ फीट ऊंची एक आकर्षक प्रतिमा राजस्थान शासन ने
* सवाई जयसिंह की स्मृति में नई दिल्ली में एक प्रमुख सड़क है। [http://www.newdelhiymca.in/ymca_map.php]
*इसी तरह जयपुर के बनीपार्क क्षेत्र की एक प्रधान सड़क 'जयसिंह हाइवे' कहलाती
*खगोलशास्त्र के योग्य विद्वानों को 'सवाई जयसिंह सम्मान' जयपुर का भूतपूर्व राजघराना प्रतिवर्ष देता
*भारत सरकार ने इनके निर्माण जंतर-मंतर को [[एशियाई खेलों]] के 'प्रतीक-चिन्ह' के रूप में स्वीकार करते इस पर एक डाक टिकट 1984 में जारी किया था। [http://www.indian-visit.com/monuments-of-india/jantar-mantar-delhi.html] . [http://www.indiavisitinformation.com/indian-culture/indian-monument/Jantar-Mantar-in-india.shtml]
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==== शिवसिंह की मृत्यु====
शिवसिंह की मृत्यु का कारण '[[वंश भास्कर ]]' के ख्यात-लेखक ने यह बताया है कि मंझले पुत्र ईश्वरसिंह के उकसाने पर सवाई जयसिंह ने ज़हर दे कर अपनी रानी के सहयोग से स्वयं अपने टीकाई पुत्र की हत्या कर दी थी, पर [[यदुनाथ सरकार]] जैसे इतिहासकार इसे 'गप्प' मानते हैं और स्वीकार नहीं करते|
सवाई जयसिंह इन तीन पुत्रों के अलावा दो पुत्रियां भी थीं पहली - ''विचित्र कंवर'', जिनका विवाह अभयसिंह (जोधपुर) और
== सन्दर्भ ==
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*'Gazeta de Lisboa occidental' (in short Gazeta) (1) March 10, 1729, p. 80, (2) Jan. 20, 1729, p. 24.
*'Jām-i Bahādur' Khānī' (1835) by Janupuri, G. H., p. 579, Calcutta, as quoted by Khan Gori, S. A.
*Kaye, G. R. (1918). 'The Astronomical Observatories of Jai Singh', Calcutta.
*Khan, Gori, S. A. (1980). 'Impact of Modern European Astronomy on Jai Singh', Indian Journal of History of Science, 15, 50-57.
*'Lettres édifiantes et curieuses' (1843) (in short Lettres) tome deuxieme, Paris.
पंक्ति 258:
*Sharma, R. S. (1967). Ed. 'Samrāta Siddhānta of Jagannath Samrat', 2 1032, Indian Ins. Astro. Sanskrit Research, Reprint 1967, New Delhi.
*Sharma, V. N. (1982). 'Jai Singh, His European astronomers and the Copernican Revolution', Indian Journal of History of Science, 17(2), 345-352.
*Sharma, V. N. (1982). 'The Impact of Eighteenth Century Jesuit Astronomers on the
*Sharma, V. N. (1984). 'Jesuit Astronomers in Eighteenth Century India', Archives Internationales D'Histoire Des Sciences, 34, 199-207.
*Sharma, V. N. (1987). 'The Astronomical Endeavors of Jai Singh', Interaction between Indian and Central Asian Sciences and Technology in Medieval Times, Indian National Science Academy, New Delhi.
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