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'''जातक''' या '''जातक पालि''' या '''जातक कथाएं''' [[बौद्ध ग्रंथ]] [[त्रिपिटक]] का [[सुत्तपिटक]] अंतर्गत [[खुद्दकनिकाय]] का १०वां भाग है। इन कथाओं में [[महात्मा बुद्ध]] के पूर्व जन्मों की कथायें हैं। विश्व की प्राचीनतम लिखित कहानियाँ जातक कथाएँ हैं जिसमें लगभग 600 कहानियाँ संग्रह की गयी है। यह ईसवी संवत से 300 वर्ष पूर्व की घटना है। इन कथाओं मे मनोरंजन के माध्यम से [[नीति]] और [[धर्म]] को समझाने का प्रयास किया गया है।<br />
 
जातक [[खुद्दक निकाय]] का दसवाँ प्रसिद्ध ग्रन्थ है। जातक को वस्तुतः ग्रन्थ न कहकर ग्रन्थ समूह ही कहना अधिक उपयुक्त होगा। उसका कोई-कोई कथानक पूरे ग्रन्थ के रूप में है और कहीं-कहीं उसकी कहानियों का रूप संक्षिप्त महाकाव्य-सा है। जातक शब्द जन धातु से बना है। इसका अर्थ है भूत अथवा भाव। ‘जन्’ धातु में ‘क्त’ प्रत्यय जोड़कर यह शब्द निर्मित होता है। धातु को भूत अर्थ में प्रयुक्त करते हुए जब अर्थ किया जाता है तो जातभूत कथा एवं रूप बनता है। भाव अर्थ में प्रयुक्त करने पर जात-जनि-जनन-जन्म अर्थ बनता है। इस तरह ‘जातक’ शब्द का अ र्थ है, ‘जात’ अर्थात् जन्म-सम्बन्धीं। ‘जातक’ भगवान बुद्ध के पूर्व जन्म सम्बन्धी कथाएँ है। बुद्धत्व प्राप्त कर लेने की अवस्था से पूर्व भगवान् बुद्ध बोधिसत्व कहलाते हैं। वे उस समय बुद्धत्व के लिए उम्मीदवार होते हैं और दान, शील, मैत्री, सत्य आदि दस पारमिताओं अथवा परिपूर्णताओं का अभ्यास करते हैं। भूत-दया के लिए वे अपने प्राणों का अनेक बार बलिदान करते हैं। इस प्रकार वे बुद्धत्व की योग्यता का सम्पादन करते हैं। बोधिसत्व शब्द का अर्थ ही है बोधि के लिए उद्योगशील प्राणी। बोधि के लिए है सत्व (सार) जिसका ऐसा अर्थ भी कुछ विद्वानों ने किया है। पालि सुत्तों में हम अनेक बार पढ़ते हैं, ‘‘सम्बोधि प्राप्त होने से पहले, बुद्ध न होने के समय, जब मैं बोधिसत्व ही था‘‘ आदि। अतः बोधिसत्व से स्पष्ट तात्पर्य ज्ञान, सत्य दया आदि का अभ्यास करने वाले उस साधक से है जिसका आगे चलकर बुद्ध होना निश्चित है। भगवान बुद्ध भी न केवल अपने अन्तिम जन्म में बुद्धत्व-प्राप्ति की अवस्था से पूर्व बोधिसत्व रहे थे, बल्कि अपने अनेक पूर्व जन्मों में भी बोधिसत्व की चर्या का उन्होंने पालन किया था। जातक की कथाएँ भगवान् बुद्ध के इन विभिन्न पूर्वजन्मों से जबकि वे बोधिसत्व रहे थे , सम्बन्धित हैं। अधिकतर कहानियों में वे प्रधान पात्र के रूप में चित्रित है। कहानी के वे स्वयं नायक है। कहीं-कहीं उनका स्थान एक साधारण पात्र के रूप में गौण है और कहीं-कहीं वे एक दर्शक के रूप में भी चित्रित किये गये है। प्रायः प्रत्येक कहानी का आरम्भ इस प्रकार होता है-‘‘एक समय राजा ब्रह्मदत्त के वाराणसी में राज्य करते समय (अतीते वाराणसिंय बह्मदत्ते रज्ज कारेन्ते) बोधिसत्व कुरंग मृग की योनि से उत्पन्न हुए अथवा ... सिन्धु पार के घोड़ों के कुल में उत्पन्न हुए अथवा ..... बोधिसत्व ब्रह्मदत्त के अमात्य थे अथवा ..बोधिसत्व गोह की योनि सें उत्पन्न हुए आदि, आदि।
 
जातक की कहानियों में से कुछ का नामकरण तो जातक में आई हुई गाथा के पहले शब्दों से हुआ है, यथा-अपष्णक जातक; किसी का प्रधान पात्र के अनुसार, यथा वण्णुपथ जातक; किसी का उन जन्मों के अनुसार जो बोधिसत्व ने ग्रहण किये यथा, निग्रेध मिग जातक, मच्छ जातक, आदि।
 
==जातकों की संख्या एवं रचनाकाल==
जातकों की निश्चित संख्या कितनी है, इसका निर्णय करना बड़ा कठिन है। लंका, बर्मा और सिआम में प्रचलित परम्परा के अनुसार जातक 550 हैं। समन्तपासादिका की निदान कथा में भी जातकों की संख्या इतनी ही बताई गई है। ‘‘पण्णासा धकनि पञ्चसतानि जातकंति वेदितब्बं।‘‘ अट्ठसालिनी की निदान कथा में भी -पण्णासाधिकानि पञ्चजातकसतानि‘‘ है। संख्या मोटे तौर पर ही निश्चित की गई है। जातक के वर्तमान रूप में 547 जातक कहनियाँ पाई जाती हैं। पर यह संख्या भी केवल ऊपरी है। जातकट्ठवण्णनाकार ने विषयवस्तु की दृष्टि से इन्हें पाँच वर्गों में विभाजित किया है-
 
*1. '''पच्चुपन्नवत्थु''' - बुद्ध की वर्तमान कथाओं का संग्रह है।
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सालित्तक जातक और कुरूधम्म जातक से हमें पता चलता है कि अचिरवती नदी श्रावस्ती में होकर बहती थी। सरभंग जातक में गोदावरी नदी का भी उल्लेख है और उसे कविट्ठ वन के समीप बताया ग या है। गन्धार जातक में कश्मीर गन्धार का उल्लेख है। कण्ह जातक में संकस्स (संकाश्य) का उल्लेख है। चम्पेय्य जातक से हमें सूचना मिलती है कि चम्पा नदी अंग और मगध जनपदों की सीमा पर होकर बहती थी। गंगमाल जातक में गन्धमादन पर्वत का उल्लेख है। बिम्बिसार सम्बन्धी महत् वपूर्ण सूचना जातकों में भरी पड़ी है। महाकोसल की राजकुमारी कोसलादेवी के साथ उसके विवाह का वर्णन और काशी गाँव की प्राप्ति का उल्लेख हरितमात जातक (239) और बड्ढकि सूकर जातक(283) में है। मगध और कोसल के संघर्षों का और अन्त में उनकी एकता का उल्लेख बड्ढकिसूकर जातक, कुम्मासपिंड जातक, तच्छसूकर जातक और भद्दसाल जातक आदि अनेक जातकों में है। इस प्रकार बुद्धकालीन राजाओं राज्यों, प्रदेशों, जातियों, ग्रामों, नगरों, नदियों, पर्वतों आदि का पूरा विवरण हमें जातकों में मिलता है। तिलमुट्ठि जातक (252) में ह में तक्षशिला विश्वविद्यालय का एक उत्तम चित्र मिलता है। संखपाल जातक (524) और दरीमुख जातक (378) में मगध के राजकुमारों के तक्षशिला में शिक्षार्थ जाने का उल्लेख है। तक्षशिला में शिक्षा के विधान, पाठ्यक्रम, अध्ययन विषय, उनके व्यावहारिक और सैद्धान्तिक पक्ष, निवास भोजन, नियन्त्रण आदि के विषय में पूरी जानकारी हमें जातकों में मिलती है। वाराणसी राजगृह, मिथिला, उज्जयिनी श्रावस्ती, कौशाम्बी तक्षशिला आदि प्रसिद्ध नगरों को मिलाने वाले मार्गों का तथा स्थानीय व्यापार का पूरा विवरण हमें जातकों में मिलता है। काशी से चेदि जाने वाली सड़क का उल्लेख वेदब्भ जातक (48)में है। क्या-क्या पेशे उस समय लोगों में प्रचलित थे, कला और दस्तकारी की क्या अवस्था थी तथा व्यवसाय किस प्रकार होता था, इसके अनेक चित्र हमें जातकों में मिलते हैं। बावेरू जातक (339) और सुसन्धि जातक (360) से हमें पता लगता है कि भारतीय व्यापार विदेशों से भी होता था और भारतीय व्यापारी सुवर्णभूमि (बरमा से मलाया तक का प्रदेश) तक व्यापार के लिए जाते थे। भरूकच्छ उस समय एक प्रसिद्ध बन्दरगाह था। सुसन्धि जातक में हमें इसका उल्लेख मिलता है।
 
जल के मार्गों का भी जातकों में स्पष्ट उल्लेख है। लौकिक विश्वासों आदि के बारे में देवधम्म जातक (6) और नलपान जातक (20) आदि में समाज में स्त्रियों के स्थान के सम्बन्ध में अण्डभूत जातक (62) आदि में दासों आदि की अवस्था के सम्बन्ध में कटाहक जातक (125) आदि में, सुरापान आि द के सम्बन्ध में सुरापान जातक (81) आदि में, यज्ञ में जीव हिंसा के सम्बन्ध में दुम्मेध जातक (50) आदि में, व्यापारिक संघों और डाकुओं के भय आदि के सम्बन्ध में खुरप्प जातक (265) और तत्कालीन शिल्पकला आदि के विषय में महाउम्मग्ग जातक (546) आदि में प्रभूत सामग्री भरी पड़ी है, जिसका यहाँ विवरण देना अत्यन्त कठिन है। जिस समय का जातक में चित्रण है, उसमें वर्ण व्यवस्था प्र्रचलित थी। ब्राह्मणों का समाज में उच्च स्थान था। ब्राह्मण और क्षत्रिय ये दो वर्ण उच्च माने जाते थे। दासों की प्रथा प्रचलित थी, उनके साथ दुर्व्यवहार के भी उदाहरण मिलते हैं, दास क्रीत भी होते थे, और पितृक्रमागत भी होते थे। विशेष अवस्थाओं में दास मुक्त भी कर दिये जाते थे। बुद्ध काल में जाति पेशे की सूचक नहीं थी। जातक कहानियों से पता चलता है कि किसी भी समय एक पेशे को छोड़कर कोई व्यक्ति दूसरा पेशा कर सकता था और इसमें उसकी जाति बाधक नहीं होती थी। विवाह-सम्बन्ध प्रायः समान जातियों और कुलों (सामाजिक कुल) में अच्छे माने जाते थे। उत्सवों में पुरुषों के साथ स्त्रियाँ भी सम्मिलित होती थीं अनेक प्रकार के उत्सव बुद्ध काल में होते रहते थे और उ नमें मांस मछली के भोजन के साथ-साथ सुरापान भी चलता था। स्त्रियों के सदाचार को अक्सर जातक की कहानियों में संशय की दृष्टि से देखा गया है। कहा गया है कि सत्य का होना उनमें सुदुर्लभ ही है। ‘‘सच्च तेसं सुदुल्लभं‘‘ परन्तु भार्या के रूप में स्त्री की प्रशंसा की गइ र् है और उसे परम सखा बताया गया है, ‘‘भरिया नाम परमा सखा‘‘।
 
शिल्पों का समाज में आदर था। वेश्याओं के प्रभूत वर्णन जातक में मिलते है, इस समय यह प्रथा विद्यमान थी। इसी प्रकार द्यूत का व्यसन भी प्रचलित था। विधुर पंडित जातक में हम धनंजय कोरव्य को जुआ खेलते देखते है। शासन में रिश्वत चलती थी। कणवेर जातक में हम एक कोतवाल को रिश्वत लेते देखते हैं। शकुनों में और फलित ज्योतिष में लोगों का विश्वास था। छींक आने को अपशकुन मानते थे और जब कोई छींकता था तो उससे लोग कहते थे ‘जियो’ या ‘चिंरजीव होओ’। सत्य क्रिया (सच्च किरिया) में लोगों का विश्वास था। मूगपक्ख जातक में हम देखते है कि काशिराज की रानी ने सत्य क्रिया के बल से सन्तान प्राप्त की। इसी प्रकार बट्टक जातक में कहा है कि एक बटेर के बच्चे ने अपने सत्य क्रिया बल से वृक्ष में लगी आग को बुझा दि या। वयः प्राप्त कुमारिकाओं को अपना वर खोजने की स्वतन्त्रता थी, ऐसा अम्ब जातक से पता चलता है। संकिच्च जातक में पत्नी को धनक्कीता कहा गया है। इससे पता चलता है कि कुछ विशेष अवस्थाओं में पति को कन्या के पिता को धन भी देना पड़ता था। उदय जातक से भी ऐसा ही मालूम पड़ता है।
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कालक्रम की दृष्टि से वैदिक साहित्य की [[शुनःशेप]] की कथा यम-यमी संवाद, पुरूरवा उर्वशी संवाद आदि कथानक ही बुद्ध पूर्व काल के हो सकते है। छान्दोग्य और बृहदारण्यक आदि कुछ उपनिष्दों की आख्यायिकाएँ भी बुद्ध पूर्व काल की मानी जा सकती है, और इसी प्रकार ऐतरेय और शतपथ ब्राह्मण के कुछ आख्यान भी बुद्ध पूर्व काल की माने जा सकते हैं। इनका भी जातकों से और सामान्यतः पालि सहित्य से घनिष्ठ सम्बन्ध है। तेविज्ज सुत्त में अट्टक, वामक, वामदेव, विश्वामित्र, यमदग्नि, अिं र्घैंरा, भारद्वाज, वशिष्ठ, काश्यप और भृगु इन दस मन्त्रकर्ता ऋषियों के नामों के साथ-साथ ऐतरेय ब्राह्मण, तैति्तरीय ब्राह्मण, छान्दोग्य ब्राह्मण और छन्दावा ब्राह्मण का भी उल्लेख हुआ है। मज्झिम निकाय के अस्सलायन सुत्तन्त के आश्वालायन ब्राह्मण को प्रश्न उपनिषद के आश्वलायन से मिलाया गया है। मज्झिम निकाय के आश्वालायन श्रावस्ती निवासी है और वेद-वेदा र्घैं में पार र्घैं त है। इसी प्रकार प्रश्न उपनिषद के आश्वालयन भी वेद वेदा र्घैं के महापंडित है और कौसल्य (कोसल निवासी) है। जातकों में भी वैदिक साहित्य के साथ निकट सम्पर्क के अनेक लक्षण पाये जाते है। उद्दालक जातक (487)में उद्दालक के तक्षशिला जाने और वहाँ एक लोक विश्रुत आचार्य की सूचना पाने का उल्लेख है। इसी प्रकार सेतुकेतु जातक में उद्दालक के पुत्र श्वेतुकेतु का कलाओं की शिक्षा प्राप्त करने के लिए तक्षशिला जाने का उल्लेख है। शतपथ ब्राह्मण के उद्दालक को हम उत्तरापथ में भ्रमण करते हुए देखते है। अतः इससे यह निष्कर्ष निकालना असंगत नहीं है कि जातकों के उद्दालक और श्वेतुकेतु ब्राह्मण ग्रन्थों और उपनिषदों के इन नामों के व्यक्तियों से भिन्न नहीं है। जर्मन विद्वान लूडर्स ने सेतुकेतु जातक(377) में आने वाली गाथाओं को वैदिक आख्यान और महाकाव्य युगीन काव्य को मिलाने वाली कड़ी कहा है, जो समुचित ही है। इसी प्रकार सिंहली विद्वान मललसेकर का कहना है कि जातक का सम्बन्ध भारतीय साहित्य की उस आख्यान-विधा से है, जिससे उत्तरकालीन महाकाव्यों का विकास हुआ है। रामायण और महाभारत के साथ जातक की तुलना करते समय हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि इन दोनों ग्रन्थों के सभी अंश बुद्ध पूर्व युग के नहीं है। रामायण के वर्तमान रूप में 2400 श्लोक पाये जाते हैं। रामायण में कहा भी गया है ‘चतुर्विंश सहस्राणि श्लोकानाम उक्त वान् ऋषिः। किन्तु बौद्ध महाविभाषा-शास्त्र (कात्यायनी पुत्र के ज्ञान प्रस्थान शास्त्र की व्याख्या) से सिद्ध है कि द्वितीय शताब्दी ईसवी में भी रामायण में केवल 12,000 श्लोक थे। रामायण 2-109-34 में बुद्ध तथागत का उल्लेख मिलता है। इसी प्रकार शक, यवन आदि के साथ संघर्ष का वर्णन है। किष्किन्धा काण्ड में सुग्रीव के द्वारा कुरू मद्र और हिमालय के बीच में यवनों औ र शकों के देश और नगरों को स्थित बताया गया है।
 
इससे सिद्ध है कि जिस समय में अंश लिखे गये थे, ग्रीक और सिथियन लोग पंजाब के कुछ प्रदेशों पर अपना आधिपत्य जमा चुके थे। अतः रामायण के काफी अंश महाराज बिम्बिसार या बुद्ध के काल के बाद लिखे गये। महा भारत में इसी प्रकार एडूकों (बौद्ध मन्दिरों) का स्पष्ट उल्लेख है। बौद्ध विशेषण चातुर्महाराजिक भी वहाँ आया है। रोमक (रोमन) लोगों का भी वर्णन है। इसी प्रकार सिथियन और ग्रीक आदि लोगों का भी वर्णन है। आदि पर्व में महाराज अशोक को महासुर कहा गया है और महावीर्योऽपराजितः के रूप में उसकी प्रशंसा की गई है। शान्ति पर्व में विष्णुगुप्त कौटिल्य (द्वितीय शताब्दी ईसवीं पूर्व) के शिष्य कामन्दक का भी अर्थविद्या के आचार्य के रूप में उल्लेख है। इस प्रकार अनेक प्रमाणों के आधार पर सिद्ध है कि महाभारत के वर्तमान रूप का काफी अंश बुद्ध अशोक और कौटिल्य विष्णुगुप्त के बाद के युग का है। जातक की अनेक गाथाओं और रामायण के श्लोकों में अद्भुत समानता है। दसरथ जातक (461) और देवधम्म जातक (6) में हमें प्रायः राम-कथा की पूरी रूपरेखा मिलती है। जयद्दिस जातक (513) में राम का दण्डकारण्य जाना दिखाया गया है। इसी प्रकार साम जातक(540) की सदृशता रामायण 2. 63-25 से है और विण्टरनित्ज के मत में जातक का वर्णन अधिक सरल और प्रारम्भिक है। वेस्सन्तर जातक के प्रकृति वर्णन का साम्य इसी प्रकार वाल्मीकि के प्रकृति वर्णन से है और इस जातक की कथा के साथ राम की कथा में भी काफी सदृशता है। महाभारत के साथ जातक की तुलना अनेक विद्वानों ने की है। उनके निष्कर्षों को यहाँ संक्षिप्ततम रूप में भी रखना वास्तव में बड़ा कठिन है। महाजनक जातक (539) के जनक उपनिषदों और महाभारत के ही ब्राह्मज्ञानी जनक है। मिथिला के प्रासादों को जलते देखकर जनक ने कहा था मिथिलायां प्रदीप्तायां न में दह्यति किंचन। ठीक उनका यही कथन हमें महाजनक जातक (539) में भी मिलता है तथा कुम्भकार जातक (408) और सोणक जातक(529) में भी मिलता है। अतः दोनों व्यक्ति एक है।
 
इसी प्रकार ऋष्यशृर्घैं की पूरी कथा नकिनिका जातक(526) में है। युधिष्ठिर (युधिट्ठिल) और विदुर (विधूर) का संवाद दस ब्राह्मण जातक (495) में है। कुणाल जातक (536) में कृष्ण और द्रौपदी की कथा है। इसी प्रकार घट जातक(355) में कृष्ण द्वारा कंस-वध और द्वारका बसाने का पूरा वर्णन है। महाकण्ह जातक(469) निमि जातक(541) और महानारदकस्सप जातक(544) में राजा उशीनर और उसके पुत्र शिवि का वर्णन है। सिवि जातक (449) में भी राजा शिवि की दान पारमिता का वर्णन है, अपनी आँखों को दे देने के रूप में। अतः कहानी मूलतः बौद्ध है, इसमें सन्देह नहीं है। महाभारत में 100 ब्राह्मदत्तों का उल्लेख है। सम्भवतः ब्रह्मदत्त किसी एक राजा का नाम न होकर राजाओं का सामान्य विशेषण था, जिसे 100 राजाओं ने धारण किया। दुम्मेध जातक(50) में भी राजा और उसके कुमार दोनों का नाम ब्रह्मदत्त बताया गया है। इसी प्रकार गंगमाल जातक(421) मे कहा गया है कि ब्रह्मदत्त कुल का नाम है। सुसीम जातक(411), कुम्मासपिण्ड जातक(415), अट्ठान जातक(425), लोमासकस्सप जातक(433) आदि जातकों की भी, यही स्थिति है। अतः जातकों में आये हुए ब्रह्मदत्त केवल एक समय के पर्याय नहीं है। उनमें कुछ न कुछ ऐतिहासिकता भी अवश्य है।