"दान": अवतरणों में अंतर

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== दातव्य ==
दातव्य द्रव्य के तीन भेद गिनाए गए हैं - शुक्ल, मिश्रित और कृष्ण। शास्त्र, तप, योग, परंपरा, पराक्रम और शिष्य से उपलब्ध द्रव्य शुक्ल कहा गया है। कुसीद, कृषि और वाणिज्य से समागत द्रव्य मिश्रित बतलाया गया है। सेवा, द्यूत और चौर्य से प्राप्त द्रव्य को कृष्ण कहा है। शुक्ल द्रव्य के दान से सुख की प्राप्ति होती है। मिश्रित द्रव्य के दान से सुख एवं दु:ख, दोनों को उपलब्धि होती है। कृष्ण द्रव्य का दान दिया जाए तो केवल दु:ख ही मिलता है। द्रव्य की तीन ही परिस्थितियाँ देखी जाती हैं - दान, भोग और नाश। उत्तम कोटि के व्यक्ति अपने द्रव्य का उपयोग दान में करते हैं। मध्यम पुरुष अपने द्रव्य का व्यय उपभोग में करते हैं। इन दोनों से अतिरिक्त व्यक्ति अपने द्रव्य का उपयोग न दान में ही करते हैं न उपभोग में। उनका द्रव्य नाश को प्राप्त होता है। इस प्रकार के व्यक्तियों की गणना अधम कोटि में होती है।
 
== दानविधि ==
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दान ('''जैन दृष्टि से''') जैन ग्रंथों में पात्र, सम और अन्वय के भेद से दान के चार प्रकार बताए गए हैं। पात्रों को दिया हुआ दान पात्र, दीनदुखियों को दिया हुआ दान करुणा, सहधार्मिकों को कराया हुआ प्रीतिभोज आदि सम, तथा अपनी धनसंपत्ति को किसी उत्तराधिकारी को सौंप देने को अन्वय दान कहा है। दोनों में आहार दान, औषधदान, मुनियों को धार्मिक उपकरणों का दान तथा उनके ठहरने के लिए वसतिदान को मुख्य बताया गया है। ज्ञानदान और अभयदान को भी श्रेष्ठ दानों में गिना गया है।
 
वैदिक ग्रंथों के अनुसार दान करने के समय स्नान करके पहले शुद्ध स्थान को गोबर से लीप ले, फिर उसपर बैठकर दान दे और उसके बाद दक्षिणा दे। जहाँ गंगा आदि तीर्थ हों उन्हीं स्थानों को दान के लिपे उपयुक्त कहा है। इन स्थानों पर गाय, तिल, जमीन और सुवर्ण आदि का दान करना चाहिए। बालकों के लिए खिलौने दान करने से विशेष पुण्य बताया है। ग्रहों की शांति के लिए भी दान विधान है।
 
श्रद्धा, तुष्टि, भक्ति, ज्ञान अलोभ, क्षमा और सत्य ये सात गुण दाता के लिए आवश्यक है। पड़गाहना करना, उच्च स्थान देना, चरणों का उदक ग्रहण करना, अर्चन करना, प्रणाम करना, मन वचन और काय तथा भोजन की शुद्धि रखना - इन नौ प्रकारों से दान देनेवाला दाता पुण्य का भागी होता है।
"https://hi.wikipedia.org/wiki/दान" से प्राप्त