"नील हरित शैवाल": अवतरणों में अंतर

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==नील हरित काई के उपयोग से लाभ==
*(१) नील हरित काई एक जैविक खाद है जिसे धान उत्पादक किसान अपने स्तर पर आसानी से तैयार कर सकते हैं।
 
*(२) नील हरित काई सामान्य रूप से धान के फसल को करीब 25 से 30 किलो ग्राम प्रति हैक्टेयर नत्रजन की पूर्ति करता है।
 
*(३) यह काई उपचार के पश्चात् प्रत्येक सीजन में अपने अवशेषों के द्वारा करीब 800 से 1200 किलो ग्राम तक सेन्द्रीय खाद प्रति हैक्टर की पूर्ति करता है जिसकी वजह से उसे खेत के मिट्टी की गुणवत्ता और उपजाऊ क्षमता कायम रहती है।
 
*(४) नील हरित काई के द्वारा कुछ ऐसे रासायनिक पदार्थ स्त्रावित होता है जिससे बीजों का अंकुरण और फसलों में सामान रूप से वृद्धि होती है।
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*5. यदि धान के खेत में गहरे रंग के हरे रेशेदार स्थानीय काई दिखे जो कि धान के फसल के लिये नुकसान दायक होता है, उसे नष्ट करने के लिये नीला थोथा (कापर सल्फेट) का 0.05 प्रतिशत घोल (1 ग्राम एक लिटर पानी में) का छिड़काव किया जाय। इसे हर तीन चार दिन में दुबारा छिड़कें इससे हरा काई समूल नष्ट हो जायेगा।
 
*6. इस जैविक खाद के साथ ही नत्रजन धारी रासायनिक उर्वरक का भी सीमित मात्रा में उपयोग किया जा सकता है। यदि ऐसे रासायनिक उर्वरक का उपयोग करना चाहें तो कंसा निकलने के समय या सिफारिश के मुताबिक एक तिहाई [[यूरिया]] की मात्रा को बचाकर, बाकी यूरिया के उपयोग से ज्यादा उत्पादन लिया जा सकता है।
 
*7. एक बार जिस खेत में नील हरित काई जैविक खाद का प्रयोग किया गया हो वहां यही कोशिश रहे कि उस खेत में लगातार 3 से 4 वर्षों तक इस जैविक खाद का उपयोग होता रहे। इससे आने वाले वर्षों में इस काई के पुर्नउपचार की आवश्यकता नहीं होती। साथ ही उस भूमि की उर्वरता बनी रहती है।
 
*8. जिस खेत में नील हरित काई का उपचार किया गया हो अगले उन्हारी सीजन में कोई भी फसल (विशेषकर [[चना]]) लेना अत्यंत लाभप्रद पाया गया है।
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*1. छाया से दूर किसी भी खुले स्थान पर जहां पानी का स्रोत नजदीक हो वहां 5 से 10 मीटर अपनी आवश्यकतानुसार लम्बा 1 से 1.5 मीटर चौड़ा तथा करीब 15 सें.मी. गहरा गड्ढा तैयार करें। उस गड्ढे से निकाली गई मिट्टी को गड्ढे के चारों ओर पाल पर जमाकर रख दें ताकि गड्ढे की गहराई करीब 5 सें.मी. और बढ़ जाये। इस प्रकार के दो गड्ढों के बीच करीब 60 सें.मी. जगह छोड़ दें जिससे अवलोकन और दूसरे कार्यों के लिये आने जाने की सुविधा बन सकें।
 
*2. इस गड्ढे में लगातार 2-3 दिनों तक पानी भरते रहें। एक समय ऐसा आयेगा जब पानी का रिसना कम हो जायेगा। ऐसी स्थिति में उस गड्ढे में पानी भरकर खूब मचा ले इससे रिसने वाले मिट्टी के छोटे छोटे छिद्र बंद हो जायेंगे।
 
*3. ऐसी स्थिति आने पर खाली गड्ढे में 100 ग्राम प्रति वर्ग मीटर के हिसाब से पूरे गड्ढे में नापकर सुपरफास्फेट या रॉक फास्फेट छिड़ककर उसे मिट्टी में हाथ से मिला दें। यदि काली मिट्टी वाली जगह हो तो करीब 25 ग्राम प्रति वर्ग मीटर के हिसाब से चूना भी मिला दें।
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*8. यही मोटी तह पूरी जमीन की सतह में उभर जाती है अथवा उसका कुछ भाग गर्मी के दिनों में पानी के ऊपर तैरने लगता है। इस तैरते हुये कल्चर को इकट्ठा कर जिसमें मिट्टी का अंश नहीं के बराबर होता है, इसे पुनः मातृकल्चर के रूप में उपयोग में लाया जा सकता है।
 
*9. गड्ढे में उत्पादित इस कल्चर को दो प्रकार से निकाला जा सकता है। या तो इस गड्ढे को दो दिन तक पूरी तरह सूखने दीजिये और वहां की सूखे पपड़ी को इकट्ठा कर स्वच्छ थैलियों में रखते जाईये। दूसरे प्रकार में गीली अवस्था में ही मोटी तह को बड़े झारे से निकाल कर पूरी तरह सूखाकर इसे इकट्ठा करते जाइये। यही सूखा कल्चर नील हरित काई जैव उर्वरक है।
 
==उत्पादन में ध्यान रखने योग्य बातें==
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*2. गड्ढा कभी सुखने न पाये। हमेशा गड्ढा में कम से कम 10-15 से.मी. पानी बना रहना चाहिये।
 
*3. किसी भी गड्ढे से तीन बार उत्पादन लेने के पश्चात् पुनः रॉक फास्फेट का आधा भाग याने 100 ग्राम रॉक फास्फेट प्रति वर्ग मीटर के हिसाब से दुबारा डाले। इससे आशातीत उत्पादन लिया जा सकता है।
 
*4. किसी भी गड्डे में कीड़े दिखने की अवस्था में ऊपर बताये कोई भी कीटनाशक का अवश्य छिड़काव करें अन्यथा उत्पादन पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।