"पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल": अवतरणों में अंतर
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{{आज का आलेख}}
{{ज्ञानसन्दूक लेखक
| नाम
| चित्र
| चित्र आकार
| चित्र शीर्षक
| उपनाम
| जन्मतारीख़
| जन्मस्थान = पाली, [[लैंसडाउन]], [[गढ़वाल]], तत्कालीन [[उत्तर प्रदेश]], अब [[उत्तराखंड]] [[भारत]]
| मृत्युतारीख़
| मृत्युस्थान = पाली, [[गढ़वाल]], [[भारत]]
| कार्यक्षेत्र
| राष्ट्रीयता = [[भारत|भारतीय]]
| भाषा = [[हिन्दी]]
| काल
| विधा
| विषय
| आन्दोलन
| प्रमुख कृति = योग-प्रवाह, मकरंद
| प्रभाव डालने वाला
| प्रभावित
| हस्ताक्षर
| जालपृष्ठ
| टीका-टिप्पणी
| मुख्य काम
}}
'''डॉ॰ पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल''' ([[१३ दिसंबर]], [[१९०१]]-[[२४ जुलाई]], [[१९४४]]) [[हिंदी]] में डी.लिट. की उपाधि प्राप्त करने वाले पहले शोधार्थी थे। उन्होंने अनुसंधान और खोज परंपरा का प्रवर्तन किया तथा [[आचार्य रामचंद्र शुक्ल]] और [[बाबू श्यामसुंदर दास]] की परंपरा को आगे बढा़ते हुए हिन्दी आलोचना को मजबूती प्रदान की। उन्होंने भावों और विचारों की अभिव्यक्ति के लिये भाषा को अधिक सामर्थ्यवान बनाकर विकासोन्मुख शैली को सामने रखा। अपनी गंभीर अध्ययनशीलता और शोध प्रवृत्ति के कारण उन्होंने हिन्दी मे प्रथम डी.लिट. होने का गौरव प्राप्त किया।<ref>{{cite book |last=शर्मा |first=कुमुद
== कार्यक्षेत्र ==
जिस समय बड़थ्वालजी में साहित्यिक चेतना जगी उस समय हिन्दी के समक्ष अनेक चुनौतियाँ थी। कठिन संघर्षों और प्रयत्नों के बाद उच्च कक्षाओं में हिन्दी के पठन-पाठन की व्यवस्था तो हो गई थी, लेकिन हिन्दी साहित्य के गहन अध्ययन और शोध को कोई ठोस आधार नही मिल पाया था। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और बाबू श्याम सुन्दर दास जैसे रचनाकार आलोचना के क्षेत्र में सक्रिय थे। बड़थ्वालजी ने इस परिदृश्य में अपनी अन्वेषणात्मक क्षमता के सहारे हिंदी क्षेत्र में शोध की सुदृढ़ परंपरा की नींव डाली। [[संत साहित्य]] के संदर्भ में स्थापित नवीन मान्यताओं ने उनकी शोध क्षमता को उजागर किया। उन्होने पहली बार संत, सिद्घ, नाथ और भक्ति साहित्य की खोज और विश्लेषण में अपनी अनुसंधनात्मक दृष्टि को लगाया। शुक्ल जी से भिन्न उन्होंने भक्ति आन्दोलन को हिन्दू जाति की निराशा का परिणाम नहीं अपितु उसे भक्ति धारा का सहज-स्वभाविक विकास प्रमाणित कर दिया। इस संदर्भ में लिखे उनके शोध लेख उनके गम्भीर अध्ययन और मनन के साथ-साथ उनकी मौलिक दृष्टि के भी परिचायक हैं। परवर्ती साहित्यकारों ने उनकी साहित्यिक मान्यताओं को विश्लेषण का आधार बनाया। उन्होंने स्वयं कहा, 'भाषा फलती फूलती तो है साहित्य में, अंकुरित होती है बोलचाल में, साधारण बोलचाल पर बोली मँज-सुधरकर साहित्यिक भाषा बन जाती है।' इस तरह भावाभिव्यंजन के लिये उन्होंने जिस शैली को अपनाया उसमें उनका सर्वाधिक ध्यान भाषा पर ही रहा। उन्होंने [[संस्कृत]], [[अवधी]], [[ब्रजभाषा]], अरबी एवं फारसी के शब्दों को खड़ीबोली के व्याकरण और उच्चारण में ढालकर अपनाया। बड़थ्वालजी निश्चय ही विपुल साहित्य की सर्जना करते, यदि वे लम्बी उम्र ले कर आते। [[डा॰ संपूर्णानंद]] ने ठीक ही कहा है,'यदि आयु ने धोखा न दिया होता तो वे और भी गंभीर रचनाओं का सर्जन करते।' अल्पवधि में ही उन्होंने अध्ययन और अनुसंधान की जो सुदृढ़ नींव डाली उसके लिये वह हमेशा याद किये जाएँगे।
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