"भाई परमानन्द": अवतरणों में अंतर
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'''भाई परमानन्द''' या '''पण्डित परमाननंद''' (6 जून, 1892 - 13 अप्रैल 1982) [[भारत]] से स्वतंत्रता संग्राम के महान
==जीवनी==
भाई जी का जन्म 4 नवम्बर, 1876 को जिला जेहलम (अब [[पाकिस्तान]] में) के करिमाला ग्राम में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इनके पिताजी का नाम भाई ताराचन्द्र था। इसी पावन कुल के भाई मतिदास ने [[हिन्दू]] धर्म की रक्षा के लिए [[गुरु तेगबहादुर]] जी के साथ दिल्ली पहुंचकर [[औरंगजेब]] की चुनौती स्वीकार की थी। सन् 1902 में भाई परमानंद ने [[पंजाब विश्वविद्यालाय]] से स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त की और [[लाहौर]] के दयानंद एंग्लो महाविद्यालय में शिक्षक नियुक्त हुए।
[[अफ्रीका]] में [[वैदिक धर्म]] पर व्याख्यान देने के लिए सन् 1905 में भाई जी अफ्रीका पहुंचे। [[डरबन]] में भाई जी की [[महात्मा गांधी|गांधीजी]] से भेंट हुई। अफ्रीका से भाई जी [[लन्दन]] चले गए। वहां उन दिनों श्री [[श्यामजी कृष्ण वर्मा]] तथा [[विनायक दामोदर सावरकर]] क्रांतिकारी कार्यों में सक्रिय थे। भाई जी दोनों के सम्पर्क में आए।
भाई जी सन् 1907 में भारत लौट आए। दयानंद वैदिक महाविद्यालय में पढ़ाने के साथ-साथ वे युवकों को क्रांति के लिए प्रेरित करने के कार्य में सक्रिय रहे। [[सरदार अजीत सिंह]] तथा [[लाला लाजपतराय]] से उनका निकट का सम्पर्क था। इसी दौरान लाहौर पुलिस उनके पीछे पड़ गई। सन् 1910 में भाई जी को लाहौर में गिरफ्तार कर लिया गया। किन्तु शीघ्र ही उन्हें जमानत पर रिहा कर दिया गया। इसके बाद भाई जी [[अमरीका]] चले गए तथा वहां उन्होंने प्रवासी भारतीयों में वैदिक (हिन्दू) धर्म का प्रचार किया। [[लाला हरदयाल]] आदि के साथ वे भारत की स्वाधीनता के लिए भी प्रयासरत रहे। करतार सिंह सराबा, विष्णु गणेश पिंगले तथा अन्य युवकों ने उनकी प्रेरणा से अपना जीवन भारत की स्वाधीनता के लिए समर्पित करने का संकल्प लिया। 1913 में भारत लौटकर भाई जी पुन: लाहौर में युवकों को क्रांति की प्रेरणा देने के कार्य में सक्रिय हो गए।
भाई जी द्वारा लिखी पुस्तक, "तवारीख-ए-हिन्द" तथा उनके लेख युवकों को सशस्त्र क्रांति के लिए प्रेरित करते थे। 25 फरवरी, 1915 को लाहौर में भाई जी को गिरफ्तार कर लिया गया। उनके विरुद्ध अमरीका तथा [[इंग्लैण्ड]] में अंग्रेजी सत्ता के विरुद्ध षड्यंत्र रचने, करतार सिंह सराबा तथा अन्य अनेक युवकों को सशस्त्र क्रांति के लिए प्रेरित करने, आपत्तिजनक साहित्य की रचना करने जैसे आरोप लगाकर [[फांसी]] की सजा सुना दी गई। सजा का समाचार मिलते ही देशभर के लोग उद्विग्न हो उठे। अन्तत: भाई जी की फांसी की सजा रद्द कर उन्हें आजीवन कारावास का दण्ड देकर दिसम्बर, 1915 में अण्दमान (कालापानी) भेज दिया गया।
उधर भाई जी जेल में अमानवीय यातनाएं सहन कर रहे थे, इधर उनकी धर्मपत्नी श्रीमती भाग्यसुधि धनाभाव के बावजूद पूर्ण स्वाभिमान और साहस के साथ अपने परिवार का पालन-पोषण कर रही थीं।
अण्दमान की काल कोठरी में भाई जी को गीता के उपदेशों ने सदैव कर्मठ बनाए रखा। जेल में श्रीमद्भगवद्गीता सम्बंधी लिखे गए अंशों के आधार पर उन्होंने बाद में "मेरे अन्त समय का आश्रय" नामक ग्रंथ की रचना की। गांधीजी को जब कालापानी में उन्हें अमानवीय यातनाएं दिए जाने का समाचार मिला तो उन्होंने 19 नवम्बर 1919 के "[[यंग इंडिया]]" में एक लेख लिखकर यातनाओं की कठोर भर्त्सना की। उन्होंने भाई जी की रिहाई की भी मांग की। 20 अप्रैल, 1920 को भाई जी को कालापानी जेल से मुक्त कर दिया गया।
कालेपानी की कालकोठरी में पांच वर्षों में भाई जी ने जो अमानवीय यातनाएं सहन कीं, भाई जी द्वारा लिखित "मेरी आपबीती" पुस्तक में उनका वर्णन पढ़कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। प्रो. [[धर्मवीर]] द्वारा लिखित "क्रांतिकारी भाई परमानंद" ग्रंथ में भी इन यातनाओं का रोमांचकारी वर्णन दिया गया है।
जेल से मुक्त होकर भाई जी ने पुन: लाहौर को अपना कार्य क्षेत्र बनाया। लाला लाजपतराय भाई जी के अनन्य मित्रों में थे। उन्होंने "नेशनल कालेज" की स्थापना की तो उसका कार्यभार भाई जी को सौंपा गया। इसी कालेज में भगतसिंह व सुखदेव आदि पढ़ते थे। भाई जी ने उन्हें भी सशस्त्र क्रांति के यज्ञ में आहुतियां देने के लिए प्रेरित किया। भाई जी ने "[[वीर बन्दा वैरागी]]" पुस्तक की रचना की, जो पूरे देश में चर्चित रही।
कांग्रेस तथा गांधी जी ने जब मुस्लिम तुष्टीकरण की घातक नीति अपनाई तो भाई जी ने उसका कड़ा विरोध किया। वे जगह-जगह हिन्दू संगठन के महत्व पर बल देते थे। भाई जी ने "हिन्दू" पत्र का प्रकाशन कर देश को खंडित करने के षड्यंत्रों को उजागर किया। भाई जी ने सन् 1930 में ही यह भविष्यवाणी कर दी थी कि मुस्लिम नेताओं का अंतिम उद्देश्य मातृभूमि का विभाजन कर पाकिस्तान का निर्माण है। भाई जी ने यह भी चेतावनी दी थी कि कांग्रेसी नेताओं पर विश्वास न करो, ये विश्वासघात कर देश का विभाजन कराएंगे।
जब भाई जी की भविष्यवाणी सत्य सिद्ध हुई तथा भारत विभाजन और पाकिस्तान के निर्माण की घोषणा हुई तो भाई जी के हृदय में एक ऐसी वेदना पनपी कि वे उससे उबर नहीं पाए तथा 8 दिसम्बर, 1947 को उन्होंने संसार से विदा ले ली।
भाई जी के सुपुत्र डा. भाई महावीर आज भी अपने पूज्य पिताश्री के पदचिन्हों पर चलते हुए राष्ट्र और हिन्दू समाज की सेवा में सक्रिय हैं। उनकी स्मृति को बनाये रखने के लिये [[दिल्ली]] में एक व्यापार अध्ययन
संस्थान का नामकरन उनके नाम पर किया गया है।
==कृतियाँ==
भाई जी द्वारा लिखित "हिन्दू संगठन", "भारत का इतिहास", "दो लहरों की टक्कर", "मेरे अंत समय का आश्रय", "पंजाब का इतिहास", "वीर बन्दा वैरागी", "मेरी आपबीती" आदि साहित्य आज भी इस महान विभूति की पावन स्मृति को अक्षुण्ण रखे हुए हैं।
[[श्रेणी:जीवनी]]
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