"बौद्ध दर्शन": अवतरणों में अंतर

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==संक्षिप्त परिचय==
बौद्ध दर्शन अपने प्रारम्भिक काल में [[जैन दर्शन]] की ही भाँति आचारशास्त्र के रूप में ही था। बाद में बुद्ध के उपदेशों के आधार पर विभिन्न विद्वानों ने इसे आध्यात्मिक रूप देकर एक सशक्त दार्शनिकशास्त्र बनाया। बुद्ध द्वारा सर्वप्रथम [[सारनाथ]] में दिये गये उपदेशों में से चार आर्यसत्य इस प्रकार हैं :- ‘दुःखसमुदायनिरोधमार्गाश्चत्वारआर्यबुद्धस्याभिमतानि तत्त्वानि।’ अर्थात् -
 
:1. दुःख
:2. दुःखसमुदाय दर्शन
:3. दुःखनिरोध
:4. दुःखनिरोधमार्ग
 
बुद्धाभिमत इन चारों तत्त्वों में से [[दुःखसमुदाय]] के अन्तर्गत [[द्वादशनिदान]] (जरामरण, जाति, भव, उपादान, तृष्णा, वेदना, स्पर्श, षडायतन, नामरूप, विज्ञान, संस्कार तथा अविद्या) तथा [[दुःखनिरोध]] के उपायों में [[अष्टांगमार्ग]] (सम्यक् दृष्टि, सम्यक् संकल्प, सम्यक् वाणी, सम्यक् कर्म, सम्यक् आजीव, सम्यक् प्रयत्न, सम्यक् स्मृति तथा सम्यक् समाधि) का विशेष महत्व है। इसके अतिरिक्त [[पंचशील]] (अहिंसा, अस्तेय, सत्यभाषण, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह) तथा [[द्वादश आयतन]] (पंच ज्ञानेन्द्रियाँ, पंच कर्मेन्द्रियाँ, मन और बुद्धि), जिनसे सम्यक् कर्म करना चाहिए- भी आचार की दृष्टि से महनीय हैं। वस्तुतः चार आर्य सत्यों का विशद विवेचन ही बौद्ध दर्शन है।
 
बौद्ध दर्शन का प्रारम्भिक श्रेणी विभाग, सत्ता के महत्त्वपूर्ण प्रश्न को लेकर किया गया, जो कि चार प्रस्थान के रूप में इस प्रकार जाना जाता है-
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===सौत्रान्तिक सम्प्रदाय (बाह्यार्थानुमेयवाद)===
ये बाह्यार्थ को अनुमेय मानते हैं। यद्यपि बाह्यजगत की सत्ता दोनों स्वीकार करते हैं, किन्तु दृष्टि के भेद से एक के लिए चित्त निरपेक्ष तथा दूसरे के लिए चित्त सापेक्ष अर्थात् अनुमेय सत्ता है। सौत्रान्तिक मत में सत्ता की स्थिति बाह्य से अन्तर्मुखी है।
 
===योगाचार सम्प्रदाय (विज्ञानवाद)===
इनके अनुसार बुद्धि ही आकार के साथ है अर्थात् बुद्धि में ही बाह्यार्थ चले आते हैं। चित्त अर्थात् आलयविज्ञान में अनन्त विज्ञानों का उदय होता रहता है। क्षणभंगिनी चित्त सन्तति की सत्ता से सभी वस्तुओं का ज्ञान होता है। वस्तुतः ये बाह्य सत्ता का सर्वथा निराकरण करते हैं। इनके यहाँ माध्यमिक मत के समान सत्ता दो प्रकार की मानी गई है-
 
* अ) पारमार्थिक
* ब) व्यावहारिक।
व्यावहारिक में पुनश्च परिकल्पित और परतन्त्र दो रूप ग्राह्य हैं। यहाँ चित्त की ही प्रवृत्ति तथा निवृत्ति (निरोध, मुक्ति) होती है। सभी वस्तुऐं चित्त का ही विकल्प है। इसे ही आलयविज्ञान कहते हैं। यह आलयविज्ञान क्षणिक विज्ञानों की सन्तति मात्र है।
 
===माध्यमिक सम्प्रदाय (शून्यवाद)===
यहाँ बाह्य एवम् अन्तः दोनों सत्ताओं का शून्य मेंं विलयन हुआ है, जो कि अनिर्वचनीय है। ये केवल ज्ञान को ही अपने में स्थित मानते हैं और दो प्रकार का सत्य स्वीकार करते हैं-
 
*अ) '''सांवृत्तिक सत्य''' :- अविद्याजनित व्यावहारिक सत्ता।
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*ब) '''पारमार्थिक सत्य''' :- प्रज्ञाजनित सत्य
 
बौद्धों के इन चारों सम्प्रदायों में से प्रथम दो का सम्बन्ध हीनयान से तथा अन्तिम दोनों का सम्बन्ध महायान से है। हीनयानी सम्प्रदाय यथार्थवादी तथा सर्वास्तिवादी है, जबकि महायानी सम्प्रदायों में से योगाचारी विचार को ही परम तत्त्व तथा परम रूप में स्वीकार करते हैं। माध्यमिक दर्शन एक निषेधात्मक एवं विवेचनात्मक पद्धति है। यही कारण है कि माध्यमिक शून्यवाद को 'सर्ववैनाशिकवाद' के नाम से भी जाना जाता है।
 
हीनयान तथा महायान की अन्यान्य अनेक शाखाएँ है, जो कि प्रख्यात नहीं हैं-
 
===क्षणिकवाद===
बौद्धों के अनुसार वस्तु का निरन्तर परिवर्तन होता रहता है और कोई भी पदार्थ एक क्षण से अधिक स्थायी नहीं रहता है। कोई भी मनुष्य किसी भी दो क्षणों में एक सा नहीं रह सकता, इसीलिए आत्मा भी क्षणिक है और यह सिद्धान्त क्षणिकवाद। इसके लिए बौद्ध मतानुयायी प्रायः दीपशिखा की उपमा देते हैं। जब तक दीपक जलता है, तब तक उसकी लौ एक ही शिखा प्रतीत होती है, जबकि यह शिखा अनेकों शिखाओं की एक श्रृंखला है। एक बूँद से उत्पन्न शिखा दूसरी बूंद से उत्पन्न शिखा से भिन्न है; किन्तु शिखाओं के निरन्तर प्रवाह से एकता का भान होता है। इसी प्रकार सांसारिक पदार्थ क्षणिक है, किन्तु उनमें एकता की प्रतीति होती है। इस प्रकार यह सिद्धान्त ‘नित्यवाद’ और ‘अभाववाद’ के बीच का मध्यम मार्ग है।
 
===प्रतीत्यसमुत्पाद===
‘प्रतीत्यसमुत्पाद’ से तात्पर्य एक वस्तु के प्राप्त होने पर दूसरी वस्तु की उत्पत्ति अथवा एक कारण के आधार पर एक कार्य की उत्पत्ति से है। प्रतीत्यसमुत्पाद सापेक्ष भी है और निरपेक्ष भी। सापेक्ष दृष्टि से वह संसार है और निरपेक्ष दृष्टि से निर्वाण। यह क्षणिकवाद की भाँति शाश्वतवाद और उच्छेदवाद के मध्य का मार्ग है; इसीलिए इसे मध्यममार्ग कहा जाता है और इसको मानने वाले माध्यमिक।
 
==इन्हें भी देखें==