"यूरोकेन्द्रीयता": अवतरणों में अंतर

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[[एडवर्ड सईद]] की कृति 'ओरिएंटलिज़म' में युरोकेंद्रीयता की कड़ी जाँच-पड़ताल की गयी है। सईद का कहना है कि यह विचार न केवल अन्य संस्कृतियों को प्रभावित करके उन्हें अपने जैसा बनाने की तरफ़ धकेलता है, बल्कि उन्हें अपने अनुभव के दायरे में एक ख़ास मुकाम पर रखने के ज़रिये उन पर पश्चिम का प्रभुत्व थोप देता है। सईद के मुताबिक ज्ञानोदय के बाद से ही युरोपीय संस्कृति ने एक प्रणालीबद्ध अनुशासन विकसित कर लिया है जिसके औज़ारों से वह पूर्व की दुनिया को प्रबंधित करते हुए गढ़ती है।
 
युरोकेंद्रीयता साहित्य-अध्ययन, इतिहास-लेखन और मानवशास्त्र के अनुशासन के माध्यम से भी पुष्ट हुई है। साहित्य के क्षेत्र में इसके पैरोकारों ने बड़ी चालाकी से अपनी धारणाओं को साहित्य के सार्वभौम की तरह स्थापित करने की परियोजना चलाई। इतिहास में विजेताओं के दृष्टिकोण से लेखन किया गया। मानवशास्त्र  की दुनिया में युरोकेंद्रीयता ने स्वजातिवादी आग्रह के रूप में घुसपैठ की और ग़ैर-युरोपीय संस्कृतियों को युरोपीय सभ्यतामूलक मानकों के बरक्स ‘आदिम’ करार दिया। कुछ संस्कृति-समीक्षकों की तो मान्यता है कि अगर युरोकेंद्रीय विचार पहले से स्थापित न होता तो मानवशास्त्र के शुरुआती रूपों का उपनिवेशवाद के साथ इतना घनिष्ठ रिश्ता स्थापित ही न हो पाता। ईसाइयत के प्रचार-प्रसार के लिए मिशनरियों द्वारा चलायी जाने वाली शैक्षणिक गतिविधियों में भी युरोकेंद्रीयता की पुष्टि करने का रुझान रहता है। इन्हीं सब कारणों से ग़ैर-युरोपीय समाजों ने आधुनिकीकरण की प्रक्रिया में युरोकेंद्रीयता को इतना जज़्ब कर लिया है कि पश्चिम से आने वाली हर चीज़ या कृति को श्रेष्ठ मानने का विचार विज्ञान, उद्योग, गणित, कला, मनोरंजन और संस्कृति जैसे सभी महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों पर लगभग स्थाई रूप से हावी हो चुका है। यहाँ तक कि युरोकेंद्रीयता के प्रति सतर्क रहने वाले लोग भी अंततः उसके साथ तालमेल बैठाते हुए पाये जाते हैं।
 
ऐतिहासिक दृष्टि से देखें तो युरोपीय श्रेष्ठता का विचार पंद्रहवीं सदी में युरोपीय [[साम्राज्यवाद]] के साथ-साथ सुदृढ़ हुआ। वैज्ञानिक क्रांति, वाणिज्यिक क्रांति और औपनिवेशिक साम्राज्यों के विस्तार ने आधुनिक युग के उदय के रूप में स्वयं को अभिव्यक्ति किया। इसे 'युरोपीयन चमत्कार' का दौर माना जाता है जिससे पहले युरोप आर्थिक और प्रौद्योगिक दृष्टि से [[तुर्की]] की ऑटोमन ख़िलाफ़त, [[भारत]] के मुग़ल साम्राज्य और [[चीन]] के मिंग साम्राज्य के मुकाबले नहीं ठहर सकता था। अट्ठारहवीं और उन्नीसवीं सदी की [[औद्योगिक क्रांति]] और युरोपीय उपनिवेशीकरण की दूसरी लहर के साथ ही यह अवधारणा अपने चरम पर पहुँच गयी। युरोपीय ताकतें दुनिया में व्यापार और राजनीति पर छा गयीं। प्रगतिवाद और उद्योगवाद के आधार पर तेज़ी से विकसित हुई युरोपीय सभ्यता को विश्व का सार्वभौम केंद्र मानने वालों ने आखेट, खेती और [[पशुपालन]] पर आधारित समाजों के प्रति तिरस्कारपूर्ण विमर्श रचे। अट्ठारहवीं सदी में ही युरोपीय लेखकों को युरोप और दुनिया के दूसरे महाद्वीपों की तुलना में यह कहते हुए पाया जा सकता था कि युरोप भौगोलिक क्षेत्रफल में दूसरों से छोटा ज़रूर है, पर विभिन्न कारणों से उसकी स्थिति ख़ास तरह की है। इसके बाद यह ख़ास स्थिति युरोपीय रीति-रिवाज़ों, शिष्टता, विज्ञान और कला में उसकी महारत का तर्क दे कर परिभाषित की जाती थी। युरोकेंद्रीयता के बारे में एक सवाल यह भी उठाया जाता है कि क्या यह प्रवृत्ति दुनिया के अन्य भागों में पाये जाने वाले स्वजातिवाद की ही एक किस्म नहीं है? चीनियों और जापानियों में भी सांस्कृतिक श्रेष्ठता का दम्भ है। 'अमेरिकन सदी' की दावेदारियाँ भी स्वजातिवाद का ही एक नमूना है। लेकिन युरोकेंद्रीयता को जैसे ही उपनिवेशवाद के परिप्रेक्ष्य में रख कर देखा जाता है, वैसे ही यह विचार सामान्य स्वजातिवाद से अलग एक विशिष्ट संरचना की तरह दिखाई देने लगता है। युरोकेंद्रीयता की साख में क्षय की शुरुआत भी उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलनों के ज़ोर पकड़ने और द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद चली वि-उपनिवेशीकरण की युगप्रवर्तक प्रक्रिया से हुई। आज़ादी के आंदोलनों द्वारा किये स्थानीय परम्पराओं और मूल्यों के राष्ट्रवादी दावों ने पश्चिमी सांस्कृतिक अहम् को चुनौती दी। भारत और अमेरिकी महाद्वीप के मध्य व दक्षिणी हिस्सों में इसी मकसद से नये इतिहास का सृजन हुआ और नयी सांस्कृतिक अस्मिताएँ गढ़ी गयीं। युरोकेंद्रीयता के बरक्स विश्व-सभ्यता की बहुकेंद्रीय तस्वीरों में रंग भरे गये। रवींद्र नाथ ठाकुर जैसी पूर्वी हस्तियों के विचारों की विश्वव्यापी प्रतिष्ठा और गाँधी प्रदत्त पश्चिम की सभ्यतामूलक आलोचना ने भी युरोकेंद्रीयता को मंच से धकेलने में उल्लेखनीय भूमिका निभायी।
 
== सन्दर्भ ==
1. दीपेश चक्रवर्ती (2000), प्रोविंशियलाइज़िंग युरोप : पोस्टकोलोनियल थॉट ऐंड हिस्टोरिकल डिफ़रेंस, प्रिंसटन युनिवर्सिटी प्रेस, प्रिंसटन, एनजे.
 
2. वासिलिस लैम्ब्रोपोलस (1993), द राइज़ ऑफ़ युरोसेंट्रिज़म : एनाटॉमी ऑफ़ इंटरप्रिटेशन, प्रिंसटन युनिवर्सिटी प्रेस, प्रिंसटन, एनजे.