"वृत्र": अवतरणों में अंतर
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वृत्र के इस जलरूप शरीर से बड़ी-बड़ी नदियाँ उत्पन्न होके अगाध समुद्र में जाकर मिलती हैं, और जितना जल तालाब व कूप आदि में रह जाता है वह मानो पृथ्वी में शयन कर रहा है।।५।।
वह वृत्र अपने बिजली और गर्जनरूप भय से भी इन्द्र को कभी जीत नहीं सकता।
(वृत्रो ह वा०) जब जब मेघ वृद्धि को प्राप्त होकर पृथ्वी और आकाश में विस्तृत होके फैलता है, तब तब उसको सूर्य्य हनन करके पृथ्वी में गिरा देता है। उसके पश्चात वह अशुद्ध भूमि , सड़े हुये वनस्पति, काष्ठ, तृण तथा मलमुत्रादि युक्त होने से कहीं-कहीं दुर्गन्ध रूप भी हो जाता है। तब समुद्र का जल देखने में भयंकर मालूम पड़ने लगता है। इस प्रकार बारम्बार मेघ वर्षता रहता है।(उपर्य्युपय्यॅति०)--अर्थात सब स्थानों से जल उड़ उड़ कर आकाश में बढ़ता है। वहां इकट्ठा होकर फिर से वर्षा किया करता है। उसी जल और पृथ्वी के सयोंग से ओषधी आदि अनेक पदार्थ उत्पन्न होते हैं।उसी मेघ को 'वृत्रासुर' के नाम से बोलते हैं।
वायु और सूर्य्य का नाम इन्द्र है।
इस सत्य ग्रन्थों की अलंकाररूप कथा को छोड़ कर मूर्खों के समान अल्पबुद्दी वाले लोगो ने ब्रह्मा-वैवर्त्त और श्रीमद्भागवतादि ग्रन्थों में मिथ्या कथा लिख रखी हैं उनको श्रेष्ठ पुरुष कभी न मानें।
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