"शुनःशेप": अवतरणों में अंतर
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[[यज्ञ]] में नर बलि की तैयारी शुरू हुई, चार पुरोहितों को बुलाया गया। अब शुन:शेप को बलि स्तंभ से बांधना था। लेकिन इसके लिए उन चारों में से कोई तैयार नहीं हुआ, क्योंकि शुन:शेप [[ब्राह्मण]] था। तब अजीगर्त और सौ गायों के बदले खुद ही अपने बच्चे को यज्ञ स्तंभ से बांधने को तैयार हो गया। इसके बाद शुन:शेप को बलि देने की बारी आई। लेकिन पुरोहितों ने फिर मना कर दिया। ब्राह्मण की हत्या कौन करे? तब अजीगर्त और एक सौ गायों के बदले अपने बेटे को काटने के लिए भी तैयार हो गया। जब शुन:शेप ने देखा कि अब मुझे बचाने वाला कोई नहीं है, तो उसने [[ऊषा]] देवता का स्तवन शुरू किया। प्रत्येक [[ऋचा]] के साथ शुन:शेप का एक-एक बंधन टूटता गया और अंतिम ऋचा के साथ न केवल शुन:शेप मुक्त हो गया, बल्कि राजा हरिश्चंद भी श्राप मुक्त हो गए। इसी के साथ बालक शुन:शेप, ऋषि शुन:शेप बन गया, क्योंकि वह उसके लिए रूपांतरण की घड़ी थी।
कुछ और विद्वानो के अनुसार शुन:शेप
==शुनःशेपाख्यान का सन्देश==
भारतीय संस्कृति में पैदा हुए किसी भी मनुष्य का मन यावत् जीवन त्रिविध एषणाओं से बद्ध – सुबद्ध – रहता है। यह एक निर्विवाद हकीकत है। ये तीन एषणाओं का नाम है – 1. पुत्रैषणा, 2. वित्तैषणा और 3. लोकैषणा। इन तीनों में से जो वितैषणा है, वह मनुष्य-जीवन के व्यावहारिक जीवन से नाता रखती है। और जो लोकैषणा है, वह पूर्वमीमांसा-प्रोक्त यज्ञयागादि से प्राप्त होनेवाले स्वर्गलोक आदि मरणोत्तर लोक से सम्बन्ध रखती है। परन्तु जो पुत्रैषणा है, वह मनुष्यमात्र की पृथिवीलोक पर सदैव बने रहने की शाश्वत एवं सार्वभौम इच्छा का अकाट्य अङ्कुर है। और ऐसी पुत्रैषणा में
यद्यपि शुनःशेप की कथा को अद्यावधि दूसरे ही परिप्रेक्ष्य में देखी जाती है। जैसे कि – वेदकाल में नरमेध याग होते थे या नहीं। शुनःशेपाख्यान में वरुणदेवता को कोई मनुष्य का बलि चढाने की बात आती है, इस लिये दुनिया भर के विद्वानों ने एक ही बात को चर्चा का बिन्दु बनाया है कि वैदिक यज्ञ-यागादि में पशुबलि के साथ साथ मनुष्यों का भी बलि चढाया जाता था कि नहीं। - परन्तु इस आख्यान में अन्ततोगत्वा कोई भी मनुष्य का बलि तो नहीं चढाया जाता है। इस के कारण पुनर्विचार की नितान्त आवश्यकता है॥
इस शुनःशेपाख्यान के प्रारम्भ में राजा हरिश्चन्द्रजी ने नारद को पूछा है
शुनःशेप
जो दूसरा पिता है वह सुयवस् का पुत्र अजीगर्त है। वह बेचारा भूख से पीडित है। उसके पास आश्रित के रूप में उनकी पत्नी और तीन पुत्र भी है। भूख के असाधारण एवं अपरिहार्य सङ्कट में फंस कर भी वह अपने किसी भी पुत्र को बाझार में बेच दे वह उचित नहीं है। अतः वह कुटुम्ब के धुरिण होने के नाते स्वयं ही बीक जाय तो वही ठीक माना जायेगा। परन्तु “ सभी को अपनी ही आत्मा सब से अधिक प्रिय होती है ”- इस क्रूर सत्य को ध्यान में लिया जाय और फिर सोचा जाय तो शायद तीन में से एक पुत्र को बेच देने की बात कदाचित् सह्य बन सकेगी। इसी तरह से, माता-पिता की युगों पुरानी एक निर्बलता भी कुबुल की जाय की पिता को ज्येष्ठपुत्र ही प्रिय होता है और माता को कनिष्ठपुत्र ही अधिक प्रिय होता है। तो बेचारा ‘ तपस्वी ’ मध्यमपुत्र ऐसी विषम परिस्थिति में निश्चित ही बलि का बकरा बन जाता है। इस तरह, क्षुधार्त पिता अजीगर्त राजा हरिश्चन्द्र से सो गायों को ले कर, उसके बदले में (विनिमय से) एक पुत्र को बेच दे तो वह कदाचित् – हाँ कदाचित् ही – अनिच्छा से न्यायिक बताया जा सकता है। किन्तु वही पिता अपने पुत्र (शुनःशेप) को यज्ञीय पशु के रूप में, हरिश्चन्द्र की यज्ञशाला में बाँधने को तैयार हो जाय और ऐसे अधम कृत्य के लिये दूसरी सो गायें माँग ले तो वह लोभीवृत्ति का परिणाम ही कहा जायेगा।
आख्यानकार महीदास ऐतरेय ने लोभ की पराकाष्ठा भी बतायी है। यूप के साथ पुत्र शुनःशेप को बाँधने के बाद पिता अजीगर्त अपने पापकर्म से विरत नहीं होता है। यज्ञ में शुनःशेप का बलि के रूप में जब तक कोई वध नहीं करेगा, तब तक यज्ञ पूरा नहीं होगा। गाँव में से कोई भी चाण्डाल आकर एक मनुष्य का वध करने को तैयार नहीं है। अतः शुनःशेप का पिता अजीगर्त लोभवशात् इस पापकर्म के लिये तैयार होता है। उसने तीसरी सो गायों को माँग कर ले ली। तथा निर्दयता-पूर्वक अपने ही पुत्र का वध करने के लिये नंगी तलवार लेकर उठ चलता है। - यह चित्र एक लालची पिता की निर्घृणता को उद्घाटित करता है। दर्शनशास्त्रों में जो षड् रिपु के रूप में गिनाये गये है – काम, क्रोध, मद, मोह, लोभ और मत्सर – उनमें से उत्तरोत्तर रिपु का बलवत्तर होना माना गया है। अर्थात् पहेले कामादि चार रिपुओं से पाँचवा लोभ नामक रिपु अधिक बलवान् है। इस दृष्टि से देखा जाय तो दूसरे प्रकार के पिता ने लोभग्रस्त होकर, केवल पितृमर्यादा का ही भङ्ग नहीं किया है।
तीसरे पिता के रूप में ऋषि विश्वामित्र है, जिनके एक-सो एक पुत्र थे। उनके होतृत्व में शुनःशेप का यज्ञ में बलि देना निश्चित हुआ था। उन्होंने अपने सम्मुख दयनीय दशा में बंधे हुए शुनःशेप को यज्ञीय-पशु के रूप में देखा है। उनकी दयनीय मनोयातना एवं निःसहायता भी प्रतिपल देखी है। और विकट परिस्थिति में देवों की उपासना का मार्ग पकडनेवाला, स्वयं ही अपना उद्धारक बनकर मृत्यु-पाश में से छुटने का प्रयास करनेवाला धैर्यवान् शुनःशेप उन्हों ने बारीकी से देखा है। प्रजापति, अग्नि, सविता, वरुण, विश्वेदेवा, अश्विनौ, इन्द्र और उषा – सभी वैदिक देवताओं को शुनःशेप अपने मन्त्रबल से क्रमशः प्रत्यक्ष करता जाता है। उनसे बातचीत भी करता है। ऐसा सच्चा विद्यावान् ब्राह्मणपुत्र किस ऋषि को पसंद नहीं आयेगा ?
ऋषि विश्वामित्र ने ऐसे शुनःशेप को ही अपनी विरासत – ज्ञानराशि – को सम्भालनेवाला समझा. और मन ही मन शुनःशेप को अपने पुत्र के रूप में उसको स्वीकार लिया। विश्वामित्र एक पिता के रूप में गुणज्ञाता व्यक्ति थे। उन्हों ने अपने प्रथम पचास पुत्रों को बुलायें और शुनःशेप को ज्येष्ठ-बन्धु के रूप में स्वीकारने को कहा। परन्तु उन पुत्रों ने पितृ-आज्ञा नहीं मानी। अतः विश्वामित्र ने उन पचासों को ‘ अपुत्र ’
इस आख्यान में राजा हरिश्चन्द्र, दरिद्र अजीगर्त एवं ऋषि विश्वामित्र जैसे तीन पिताओं की तुलना करनी आवश्यक बनती है, वैसे ही तीन प्रकार के पुत्रों की भी तुलना करने योग्य है। जैसा कि – पहेला है राजा हरिश्चन्द्र का पुत्र रोहित। वह अपने पिता के प्रस्ताव का विरोध करता है और पितृ-आज्ञा को ठुकरा कर, प्राणों की रक्षा करने के लिये गृहत्याग करके वन में विचरण करने लगता है। इस के बाद पिता को जलोदर नामक रोग हुआ है – ऐसा सुन कर, पितृवात्सल्य से प्रेरित हो कर वह घर वापस आने का निर्णय करता है। परन्तु मार्ग में इन्द्रदेव मिल गये, (जो वरुण के दुश्मन थे,) उसके कहने में आ जाता है और वह बार बार दूसरों के (इन्द्र के) कहने में आकर वन में वापस लौट जाता है।
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इन शब्दों से इन्द्र ने जो उपदेश दिया था, इसका फल यह आता है कि हरिश्चन्द्र के पुत्र रोहित को वन-विचरण के दौरान, तीन पुत्रों को साथ में लेकर अन्न की तलाश में घुम रहे एक दरिद्र पिता अजीगर्त मिल गया। रोहित ने राजपुत्र होने के कारण, राजलक्ष्मी के जोर पर, अर्थात् बाप-कमाई के जोर पर, दरिद्र व्यक्ति के एक दीन-हीन पुत्र (शुनःशेप) को खरीद कर अपने साथ में ले कर राजमहल में वापस आता है। राजकुमार रोहित ने मन में ऐसा सोच रखा है कि इस दरिद्र-ब्राह्मणपुत्र का बलि दे कर, वरुण के पाश से पिता को वह मुक्त करा लेगा और अपने आप को भी मौत से मुक्ति मिल जायेगी। - यहाँ पर इन्द्र के कहेने में आकर बार बार वन-विचरण करते रहेते रोहित का, पहेले एक अनिर्णायक मनोबलवाले पुत्र के रूप में परिचय मिलता है और बाद में, स्वार्थी तथा बाप-कमाई का आश्रयण लेनेवाले राजपुत्र के रूप में परिचय मिलता है। संसार में यह
संसार में जो दूसरे प्रकार का पुत्र होता है, वह ऋषि विश्वामित्र के अग्रज 50 पुत्रों हैं। वे विश्वामित्र जैसे मन्त्रद्रष्टा पिता की भी आज्ञा मानते नहीं है। पिता की विवेकबुद्धि की अवहेलना करनेवाले इन पुत्रों ने पैतृक-विरासत खो दी और शापित भी हुये। परिणामतः वे समाज में दस्युओं जैसा जीवन जीने लगते है। इक्यानवाँ मधुच्छन्दा नामक पुत्र और उनके अनुज 50 भ्रातृ-समूह ने पिता की आज्ञा मान ली। विश्वामित्र की दृष्टि में विश्वास करनेवाले इन पुत्रों ने शुनःशेप को अपने ज्येष्ठ भ्राता के रूप में स्वीकार कर लिया।।
तीसरे प्रकार का जो पुत्र सदैव स्पृहणीय होता है, वह है शुनःशेप। पूरे आख्यान को पढ कर लगता है कि वह क्षुधा-पीडित व्यक्ति जरूर था, परन्तु नित्य विद्या-व्यासङ्ग करने वाला पुत्र था। क्योंकि वरुण के पाश से मुक्त होने के लिये जो मन्त्र ऋग्वेद के चतुर्थ मण्डल और पञ्चम मण्डल में आये हुये है इन सब को वह अच्छी तरह से जानता था। साथ में वह स्वयं भी, प्रथम मण्डल में संगृहीत अनेक मन्त्रों का द्रष्टा ऋषि भी है। अत एव वह ऋषि विश्वामित्र की दृष्टि में स्पृहणीय पुत्र बन जाता है। विश्वामित्र को अपने ही 101 औरसपुत्र थे। किन्तु उनको शुनःशेप जैसा मन्त्र-द्रष्टा पुत्र न होने का अफसोस था। अतः वह अपने औरसपुत्रों को बुला के शुनःशेप को ज्येष्ठ-बन्धु के रूप में स्वीकारने की आज्ञा देता है। उनकी दृष्टि में शुनःशेप जैसा पुत्र ही संग्राह्य एवं स्पृहणीय है।
विश्वामित्र ने पूरी यज्ञक्रिया के दौरान देखा है कि शुनःशेप सही अर्थ में देवरात है। अग्नि, वरुण, इन्द्र, अश्विनौ, विश्वेदेवा एवं उषा इत्यादि देवतायें ही उनकी सम्पत्ति – राति – थे और उसी के बल उपर उसने अपनी मुक्ति हाँसील की है।
यहाँ पर, शुनःशेप विद्या-व्यासङ्गी होने के कारण अमुक मन्त्र जानता है या नये मन्त्र देख (रच) सकता है – इतना ही कहना पर्याप्त नहीं है। उसने तो अपने पिता का पाप भी उनके मुँह पर कह दिया है। अर्थात् शुनःशेप सत्य का अपरोक्ष दर्शन भी कर सकता है और पिता के सम्मुख खडा रहे कर वह बता भी सकता है। वही उसकी महानता है। ऐसे सत्य को बोलने वाले को ही वरुण पाश से मुक्त करता है, दूसरे को नहीं। क्योंकि वरुण तो नीतिमत्ता का एवं ऋत का पालक देव कहा गया है। अतः वह सत्यनीति के द्रष्टा शुनःशेप को बन्धन से मुक्त कर देता है। ऐसा सत्यवक्ता पुत्र ही पिताओं के लिये परम व्योम में ज्योति स्वरूप बन सकता है। और ऐसे पुत्र की ही कामना रखनी चाहिये। अर्थात् पुत्रैषणा भी विवेकदृष्टि से नियन्त्रित होनी चाहिये।
इस तरह से शुनःशेपाख्यान का मर्मोद्धाटन हो जाने के बाद, इस आख्यान का उपसंहार भी तुरंत समझ में आ जाता है कि - 1. किसी भी राजा के अभिषेक-प्रसङ्ग में इस आख्यान का पाठ करवाने की सूचना क्यूँ दी गई है ?। राज्य का वारिस प्राप्त करने के लिये अन्धश्रद्धा-ग्रस्त होना अनुचित है। 2. तथैव, पुत्र की इच्छा रखनेवालों को भी इस आख्यान का पाठश्रवण करना चाहिये – ऐसा जो उपसंहार में कहा गया है वह भी पूर्वोक्त तीन तरह के पुत्रों को ठीक से समझ लेने के लिए ही है।।
यहाँ आनुषंगिक रूप से यह बताना भी जरूरी है कि इस आख्यान के उपक्रमोपसंहार को देखते हुए - “ वेदकाल में नरबलि दिया जाता था कि नहीं ?
जैसी चर्चायें सारे संसार में आजदिन तक होती रही है, परन्तु वह चर्चा भ्रान्तदिशा में चल रही है – ऐसा प्रतीति होता है।
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