"श्यामसुन्दर दास": अवतरणों में अंतर

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विद्यार्थियों के लिए उन्होंने उच्चस्तरीय पाठ्य पुस्तकें तैयार कीं। इस तरह की पाठ्य पुस्तकों में भाषा सार संग्रह (1902), भाषा पत्रबोध (1902), प्राचीन लेखमाला (1903), हिंदी पत्र-लेखन (1904), आलोक चित्रण (1902), हिंदी प्राइमर (1905), हिंदी की पहली पुस्तक (1905), हिंदी ग्रामर (1906), हिंदी संग्रह (1908), गवर्नमेण्ट ऑफ़ इण्डिया (1908), बालक विनोद (1908), नूतन-संग्रह (1919), अनुलेख माला (1919), हिंदी रीडर (भाग-6/7, 1923), हिंदी संग्रह (भाग-1/2, 1925), हिंदी कुसुम संग्रह (भाग-1/2, 1925), हिंदी कुसुमावली (1927), हिंदी-सुमन (भाग-1 से 4, 1927), हिंदी प्रोज़ सिलेक्शन (1927), गद्य रत्नावली (1931), साहित्य प्रदीप (1932), हिंदी गद्य कुसुमावली (1936), हिंदी प्रवेशिका पद्यावली (1939), हिंदी गद्य संग्रह (1945), साहित्यिक लेख (1945)।
 
श्याम सुंदर दास जीवन के अंतिम क्षण तक साहित्य-सेवा में सक्रिय रहे। स्वतंत्रता से ठीक पहले और बाद की हिंदी की पूरी पीढ़ी ही बाबूजी के कंधों पर बैठकर ही बढ़ी हुई।
 
समय-समय पर विभिन्न विषयों पर सम्मेलनों में दिये जाने वाले उनके वक्तव्यों की संख्या अनगिनत है। इस समस्त चिंतन पर दृष्टि डालने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि वे किस तरह हिंदी साहित्य को अनेक विषयों से जोड़कर आगे बढ़ाना चाहते थे। आज भी बाबूजी की बहुत बड़ी देन है पाठ्य-सामग्री की प्रामाणिक रचना तथा अध्ययन के क्षेत्र का विवेक। विद्यार्थियों के लिए ताज़ा सामग्री लाने के उनके हर क्षण के प्रयास का नतीजा यह हुआ कि वे संग्रहकार बनते रहे। आलोचना की जाती है कि इसी कारण उनके लेखन में गहरायी और मौलिकता का अभाव होता गया। लेकिन देखने की बात यह है कि उनकी समन्वयवादी बुद्धि अनेक ज्ञान- क्षेत्रों की सामग्री-संग्रह में निमग्न रही। यहाँ तक कि व्यावहारिक-आलोचना में भी बाबूजी ने सामंजस्यवाद का सौंदर्य स्थापित किया। इसीलिए उनकी आलोचना में तुलना, ऐतिहासिक दृष्टि, व्याख्या, भाष्य आदि का प्रवेश होता गया। इस तरह हिंदी में व्यावहारिक-आलोचना का आरम्भिक मार्ग भी उन्होंने तैयार किया। उनका यह कुशल नेतृत्व आगे चलकर हिंदी-भाषी क्षेत्र के लिए वरदान सिद्ध हुआ।
 
== वर्ण्य विषय ==