"सामाजिक संविदा": अवतरणों में अंतर

छो बॉट: वर्तनी एकरूपता।
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:तास्तथा समयं कृत्वा समयेनावतस्थिरे ॥ (''शान्तिपर्व, अध्याय-६६)
 
:(हमने सुना है कि तब उनमें से कुछ लोग एक स्थान पर एकत्र होकर एक निर्णय लिया - ' जिसकी वाणी कठोर है, जो स्वभाव से उद्दण्द है, जो दूसरों की स्त्रियों का शील हरण करता है, जो दूसरों के धन को चुराता है, उसका हम त्याग करेंगें ताकि सभी वर्गों के लोगों का विश्वास जीता जा सके। ऐसी व्यवस्था करके उन्होने कुछ समय तक अच्छी तरह रहे।')
 
लेकिन भीष्म कहते हैं कि 'धन-सम्पदा चाहने वाले नर को चाहिये कि वह राजा की पूजा वैसे ही करे जैसे [[इन्द्र]] की की जाती है। राजा को 'दैवी' माना जाता था।