"हास्यरस तथा उसका साहित्य (संस्कृत, हिन्दी)": अवतरणों में अंतर

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इसी प्रकार-
: विकृताकारवाग्वेशचेष्टादे: कुहकाद् भवेत्।।
 
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देवताओं के संबंध का मजाक देखिए। प्रश्न था कि शंकर जी ने जहर क्यों पिया? कवि का उत्तर है कि अपनी गृहस्थी की दशा से ऊबकर।
 
अत्तुं वांछति वाहनं गणपते राखुं क्षुधार्त: फणी
तं च क्रौंचपते: शिखी च गिरिजा सिंहोऽपिनागानर्न।
गौरी जह्रुसुतामसूयसि कलानार्थ कपालाननो
निविं्वष्ण: स पयौ कुटुम्बकलहादीशोऽपिहालाहलम्।।
 
शंकर जी का साँप गणेश जी के चूहे की तरफ झपट रहा है किंतु स्वत: उसपर कार्तिकेय जी का मोर दाँव लगाए हुए है। उधर गिरिजा का सिंह गणेश जी के गजमस्तक पर ललचाई निगाहें रख रहा है ओर स्वत: गिरिजा जी भी गंगा से सौतियाडाह रखती हुई भभक रही हैं। समर्थ होकर भी बेचारे शंकर जी इस बेढंगी गृहस्थी से कैसे पार पाते, इसलिए ऊबकर जहर पी लिया।
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त्रिदेव खटिया पर नहीं सोते। जान पड़ता है खटमलों से वे भी भयभीत हो चुके हैं।
 
विधिस्तु कमले शेते हरि: शते महोदधौ
हरो हिमालये शेते मन्ये मत्कुण शंकया।।
 
दामाद अपनी ससुराल को कितनी सार वस्तु माना करता है परंतु फिर भी किस अकड़बाजी से अपनी पूजा करवाते रहने की अपेक्षा रखा करता है य निम्न श्लोकों में देखिए। दोनों ही श्लोक पर्याप्त काव्यगुणयुक्त हैं। जितना विश्लेषण कीजिए उतना ही मजा आता जाएगा:
 
असारे खलु संसारे, सारं श्वसुर मंदिरं
हर: हिमालये शेते, हरि: शेते पयोनिधौ।।
 
सदा वक्र: सदा क्रूर:, सदा पूजामपेक्षते
कन्याराशिस्थितो नित्यं, जामाता दशमो ग्रह:।।
 
परान्न प्रिय हो कि प्राण, इसपर कवि का निष्कर्ष सुनिए-
 
परान्नं प्राप्य दुर्बुद्धे! मा प्राणेषु दयां कुरु
परान्नं दुर्लभं लोके प्राण: जन्मनि जन्मनि।।
 
राजा भोज ने घोषणा की थी कि जो नया श्लोक रचकर लाएगा उसे एक लाख मुद्राएँ पुरस्कार में मिलेंगी परंतु पुरस्कार किसी को मिलने ही नहीं पाता था क्योंकि उसे मेधावी दरबारी पंडित नया श्लोक सुनते ही दुहरा देते और इस प्रकार उसे पुराना घोषित कर देते थे। किंवदंती के अनुसार कालिदास ने निम्न श्लोक सुनाकर बोली बंद कर दी थी। श्लोक में कवि ने दावा किया है कि राजा निन्नानबे करोड़ रत्न देकर पिता को ऋणमुक्त करें और इसपर पंडितों का साक्ष्य ले लें। यदि पंडितगण कहें कि यह दावा उन्हें विदित नहीं है तो फिर इस नए श्लोक की रचना के लिए एक लाख दिए ही जाएँ। इसमें "कैसा छकाया" का भाव बड़ी सुंदरता से सन्निहित है :
 
स्वस्तिश्री भोजराज! त्रिभुवनविजयी धार्मिक स्ते पिताऽभूत्
पित्रा ते मे गृहीता नवनवति युता रत्नकोटिर्मदीया।
तान्स्त्वं मे देहि शीघ्रं सकल बुधजनैज्र्ञायते सत्यमेतत्
नो वा जानंति केचिन्नवकृत मितिचेद्देहि लक्षं ततो मे।।
 
== हिन्दी में हास्य साहित्य ==