"नामदेव": अवतरणों में अंतर

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श्री '''नामदेव जी''' [[भारत]] के प्रसिद्ध संत थे। उन्हेंहैं। विश्व भर में उनकी पहचान "संत शिरोमणि" के रूप में जानी जाती है. इनके समय में [[नाथ सम्प्रदाय|नाथ]] और [[महानुभाव सम्रदाय|महानुभाव]] पंथों का [[महाराष्ट्र]] में प्रचार था।
 
संत शिरोमणि श्री नामदेवजी का जन्म "पंढरपुर ", मराठवाड़ा, महाराष्ट्र (भारत) में २६"26 अक्टूबर, १२७०1270 , कार्तिक शुक्ल एकादशी संवत् १३२७, रविवार" को सूर्योदय के समय हुआ था. महाराष्ट्र के सतारासातारा जिले में कृष्णा नदी के किनारे बसा "नरसी बामणी गाँव, जिला परभणी उनका पैतृक गांव है." संत शिरोमणि श्री नामदेव जी का जन्म "शिम्पी" (मराठी) , जिसे राजस्थान में "छीपा" भी कहते है, परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम दामाशेठ और माता का नाम गोणाई (गोणा बाई) था। इनका परिवार भगवान [[विट्ठल]] का परम भक्त था। नामदेवजी का [[विवाह]] कल्याण निवासी राजाई (राजा बाई) के साथ हुआ था और इनके चार पुत्र थे, जिनके नामपुत्रवधु यथा "नारायण - लाड़ा बाई लाड़ाबाई", "विट्ठल - गोडा बाई गोडाबाई", "महादेव - येसा बाईयेसाबाई" , व "गोविन्द - साखरा बाई,साखराबाई" तथा  एक पुत्री थी जिनका नाम लिम्बालिम्बाबाई बाईथा. श्री नामदेव जी की बड़ी बहन का नाम आऊबाई था. उनके एक पौत्र का नाम मुकुन्द व उनकी दासी का नाम "संत जनाबाई" था, जो संत नामदेवजी के जन्म के पहले से ही दामाशेठ के घर पर ही रहती थी. संत शिरोमणि श्री नामदेवजी के नानाजी का नाम गोमाजी और नानीजी का नाम उमाबाई था.
श्री '''नामदेव जी''' [[भारत]] के प्रसिद्ध संत थे। उन्हें विश्व भर में उनकी पहचान "संत शिरोमणि" के रूप में जानी जाती है. इनके समय में [[नाथ सम्प्रदाय|नाथ]] और [[महानुभाव सम्रदाय|महानुभाव]] पंथों का [[महाराष्ट्र]] में प्रचार था।
 
संत नामदेवजी ने विसोबा खेचर को गुरु के रूप में स्वीकार किया था। विसोबा खेचर का जन्म स्थान - पैठण था, जो पंढरपुर से पचास कौसकोस दूर ओऊंधिया"ओंढ्या नागनाथ" नामक प्राचीन शिव क्षेत्र में आकर रहेहैं. इसी मंदिर में इन्होंने संत शिरोमणि श्री नामदेवजी को शिक्षा दी और अपना शिष्य बनाया। येसंत नामदेव, [[संत ज्ञानेश्वर]] के समकालीन थे और उम्र में उनसे 5 साल बड़े थे। संत नामदेव, संत ज्ञानेश्वर, संत निवृत्तिनाथ, संत सोपानदेव इनकी बहिन बहिन मुक्ताबाई व अन्य समकालीन संतों के साथ पूरे महाराष्ट्र के साथ उत्तर भारत का भ्रमण किए,कर "अभंग"(भक्ति-गीत) रचे और जनता जनार्दन को समता और प्रभु-भक्ति का पाठ पढ़ाया। संत ज्ञानेश्वर के परलोकगमन के बाद दूसरे साथी संतों के साथ इन्होंने पूरे भारत का भ्रमण किया। इन्होंने [[मराठी]] के साथ ही साथ [[हिन्दी]] में भी रचनाएँ लिखीं। इन्होंने अठारह वर्षो तक [[पंजाब]] में भगवन्नाम का प्रचार किया। अभी भी इनकी कुछ रचनाएँ [[सिख|सिक्खों]] की धार्मिक पुस्तकोंपुस्तक " गुरू ग्रंथ साहिब" में मिलती हैं।हैं '''मुखबानी'''. नामकइसमें पुस्तकसंत मेंनामदेवजी इनकीके रचनाएँ61पद संग्रहित हैं। आज भी इनके रचित गीतअभंग पूरे महाराष्ट्र में भक्ति और प्रेम के साथ गाए जाते हैं। ये संवत १४०७ में समाधि में लीन हो गए।
संत शिरोमणि श्री नामदेवजी का जन्म पंढरपुर , मराठवाड़ा महाराष्ट्र (भारत) में २६ अक्टूबर १२७० , कार्तिक शुक्ल एकादशी, रविवार को सूर्योदय के समय हुआ था. महाराष्ट्र के सतारा जिले में कृष्णा नदी के किनारे बसा नरसी बामणी गाँव, जिला परभणी उनका पैतृक गांव है. संत शिरोमणि श्री नामदेव जी का जन्म शिम्पी (मराठी) , जिसे राजस्थान में छीपा भी कहते है, परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम दामाशेठ और माता का नाम गोणाई (गोणा बाई) था। इनका परिवार भगवान [[विट्ठल]] का परम भक्त था। नामदेवजी का [[विवाह]] राजाई (राजा बाई) के साथ हुआ था और इनके चार पुत्र थे, जिनके नाम नारायण - लाड़ा बाई , विट्ठल - गोडा बाई , महादेव - येसा बाई , गोविन्द - साखरा बाई, तथा एक पुत्री थी जिनका नाम लिम्बा बाई था.
श्री नामदेव जी की बड़ी बहन का नाम आऊ बाई था. उनके एक पौत्र का नाम मुकुन्दा था. उनकी दासी का नाम संत जना बाई था, जो संत नामदेवजी के जन्म के पहले से ही दामाशेठ के घर पर ही रहती थी. संत शिरोमणि श्री नामदेवजी के नानाजी का नाम गोमाजी और नानीजी का नाम उमा बाई था.
 
सन्त नामदेवजी के समय में [[नाथ पंथ|नाथ]] और [[महानुभाव पंथ|महानुभाव पंथों]] का महाराष्ट्र में प्रचार था। नाथ पंथ "अलख निरंजन" की योगपरक साधना का समर्थक तथा बाह्याडंबरों का विरोधी था और महानुभाव पंथ वैदिक कर्मकांड तथा बहुदेवोपासना का विरोधी होते हुए भी मूर्तिपूजा को सर्वथा निषिद्ध नहीं मानता था। इनके अतिरिक्त महाराष्ट्र में पंढरपुर के "[[विठोबा]]" की उपासना भी प्रचलित थी। संत नामदेवजी पंढ़रपुर में वारी प्रथा शुरू करवाने के जनक हैं. इनके द्वारा शुरू की गई प्रथा अंतर्गत आज भी सामान्य जनता प्रतिवर्ष आषाढ़ी और कार्तिकी एकादशी को उनके दर्शनों के लिए [[पंढरपुर]] की "वारी" (यात्रा) किया करती थी (यह प्रथा आज भी प्रचलित है), इस प्रकार की वारी (यात्रा) करनेवाले "[[वारकरी]]" कहलाते हैं। विट्ठलोपासना का यह "पंथ" "वारकरी" संप्रदाय कहलाता है। नामदेव इसी संप्रदाय के प्रमुख संत माने जाते हैं।
संत नामदेवजी ने विसोबा खेचर को गुरु के रूप में स्वीकार किया था। जन्म स्थान - पैठण, जो पंढरपुर से पचास कौस दूर ओऊंधिया नागनाथ नामक प्राचीन शिव क्षेत्र में आकर रहे. इसी मंदिर में इन्होंने संत शिरोमणि श्री नामदेवजी को शिक्षा दी और अपना शिष्य बनाया। ये [[संत ज्ञानेश्वर]] के समकालीन थे और उम्र में उनसे ५ साल बड़े थे। संत नामदेव, संत ज्ञानेश्वर के साथ पूरे महाराष्ट्र का भ्रमण किए, भक्ति-गीत रचे और जनता जनार्दन को समता और प्रभु-भक्ति का पाठ पढ़ाया। संत ज्ञानेश्वर के परलोकगमन के बाद इन्होंने पूरे भारत का भ्रमण किया। इन्होंने [[मराठी]] के साथ ही साथ [[हिन्दी]] में भी रचनाएँ लिखीं। इन्होंने अठारह वर्षो तक [[पंजाब]] में भगवन्नाम का प्रचार किया। अभी भी इनकी कुछ रचनाएँ [[सिख|सिक्खों]] की धार्मिक पुस्तकों में मिलती हैं। '''मुखबानी''' नामक पुस्तक में इनकी रचनाएँ संग्रहित हैं। आज भी इनके रचित गीत पूरे महाराष्ट्र में भक्ति और प्रेम के साथ गाए जाते हैं। ये संवत १४०७ में समाधि में लीन हो गए।
 
सन्त नामदेवजी के समय में [[नाथ पंथ|नाथ]] और [[महानुभाव पंथ|महानुभाव पंथों]] का महाराष्ट्र में प्रचार था। नाथ पंथ "अलख निरंजन" की योगपरक साधना का समर्थक तथा बाह्याडंबरों का विरोधी था और महानुभाव पंथ वैदिक कर्मकांड तथा बहुदेवोपासना का विरोधी होते हुए भी मूर्तिपूजा को सर्वथा निषिद्ध नहीं मानता था। इनके अतिरिक्त महाराष्ट्र में पंढरपुर के "[[विठोबा]]" की उपासना भी प्रचलित थी। सामान्य जनता प्रतिवर्ष आषाढ़ी और कार्तिकी एकादशी को उनके दर्शनों के लिए [[पंढरपुर]] की "वारी" (यात्रा) किया करती थी (यह प्रथा आज भी प्रचलित है), इस प्रकार की वारी (यात्रा) करनेवाले "[[वारकरी]]" कहलाते हैं। विट्ठलोपासना का यह "पंथ" "वारकरी" संप्रदाय कहलाता है। नामदेव इसी संप्रदाय के प्रमुख संत माने जाते हैं।
 
== नामदेव जी का कालनिर्णय ==
वारकरी संत नामदेव के समय के संबंध में विद्वानों में मतभेद है। मतभेद का कारण यह है कि महाराष्ट्र में नामदेव नामक पाँच संत हो गए हैं और उन सबनेसब ने थोड़ी बहुत "[[अभंग]]" और पदरचना की है। आवटे की "सकल संतगाथा" में नामदेव के नाम पर 2500 अभंग मिलते हैं। लगभग 600 अभंगों में केवल नामदेव या "नामा" की छाप है और शेष में "विष्णुदासनामा" की।
 
कुछ विद्वानों के मत से दोनों "नामा" एक ही हैं। विष्णु (विठोबा) के दास होने से नामदेव ने ही संभवत: अपने को विष्णुदास "नामा" कहना प्रारंभ कर दिया हो। इस संबध में महाराष्ट्र के प्रसिद्ध इतिहासकार [[वि. का. राजवाड़े]] का कथन है कि "नाभा" शिंपी (दर्जी) का काल शके 1192 से 1272 तक है। विष्णुदासनामा का समय शके 1517 है। यह [[एकनाथ]] के समकालीन थे। [[प्रो॰ रानडे]]रानाडे ने भी राजवाड़े के मत का समर्थन किया है। श्री राजवाड़े ने विष्णुदास नामा की "बावन अक्षरी" प्रकाशित की है जिसमें "नामदेवराय" की वंदना की गई है। इससे भी सिद्ध होता है कि ये दोनों व्यक्ति भिन्न हैं और भिन्न भिन्न समय में हुए हैं। चांदोरकर ने महानुभावी "नेमदेव" को भी वारकरी नामदेव के साथ जोड़ दिया है। परंतु डॉ॰ तुलपुले का कथन है कि यह भिन्न व्यक्ति है और [[कोली]] जाति का है। इसका वारकरी नामदेव से कोई संबंध नहीं है। नामदेव के समसामयिक एक विष्णुदास नामा कवि का और पता चला है पर यह महानुभाव संप्रदाय के हैं। इन्होने [[महाभारत]] पर ओवीबद्ध ग्रंथ लिखा है। इसका वारकरी नामदेव से कोई संबध नहीं है।
 
नामदेव विषयक एक और विवाद है। "[[गुरु ग्रन्थ साहिब]]" में नामदेव के 61 पद संगृहीत हैं। महाराष्ट्र के कुछ विवेचकों की धारणा है कि गुरुग्रंथ साहब के 'नामदेव' [[पंजाबी]] हैं, महाराष्ट्रीय नहीं। यह हो सकता है, वह महाराष्ट्रीय वारकरी नामदेव का कोई शिष्य रहा हो और उसने अपने [[गुरु]] के नाम पर [[हिन्दी]] में पद रचना की हो। परंतु महाराष्ट्रीय वारकरी नामदेव ही के हिंदी पद गुरुग्रंथसाहब में संकलित हैं क्योंकि नामदेव के [[मराठी]] अभंगों और गुरुग्रंथसाहब के पदों में जीवन घटनाओं तथा भावों, यहाँ तक कि [[रूपक]] और [[उपमा]]ओंउपमाओं की समानता है। अत: मराठी अभंगकार नामदेव और हिंदी पदकार नामदेव एक ही सिद्ध होते हैं।
 
महाराष्ट्रीय विद्वान् वारकरी नामदेव जी को [[सन्त ज्ञानेश्वर|ज्ञानेश्वर]] का समसामयिक मानते हैं और ज्ञानेश्वर का समय उनके ग्रंथ "[[ज्ञानेश्वरी]]" से प्रमाणित हो जाता है। ज्ञानेश्वरी में उसका रचनाकाल "1212 शके" दिया हुआ है। डॉ॰ मोहनसिंह दीवाना नामदेव के काल को खींचकर 14वीं और 15वीं शताब्दी तक ले जाते हैं। परंतु उन्होंने अपने मतसमर्थन का कोई अकाट्य प्रमाण प्रस्तुत नहीं किया। नामदेव की एक प्रसिद्ध रचना "तीर्थावली" है जिसकी प्रामाणिकता निर्विवाद है। उसमें ज्ञानदेव और नामदेव की सहयात्राओं का वर्णन है। अत: ज्ञानदेव और नामदेव का समकालीन होना अंतअत: साक्ष्य से भी सिद्ध है। नामदेव, ज्ञानेश्वर की समाधि के लगभग 55 वर्ष बाद तक और जीवित रहे। इस प्रकार नामदेव का काल शके 1192 से शके 1272 तक माना जाता है।
 
== जीवनचरित्र ==
नामदेव जी का जन्म २६ अक्टूबर १२७०, रविवार में प्रथम संवत्सर, संवत१३२७, कार्तिक शुक्ल एकादशी को पंढरपुर में हुआ था। मेंनामदेवजी हुआका था।जन्म मूलतःपैतृक गाँव नरसी ब्राह्मणी नामक ग्राम के मूलनिवासी दामा शेठ "शिम्पी" (मराठी में) , जिसे राजस्थान में "छीपा" भी कहते है, के यहाँ हुआ था। नामदेव विरक्त हो पंढरपुरपंढ़रपुर में जाकरहुआ "विठोबा" के भक्त हा गए।था। वहीं इनकी ज्ञानेश्वर परिवारज्ञानेश्वरजी से भेंट हुई और उसी कीउनकी प्रेरणा से इन्होंने [[नाथ सम्प्रदाय|नाथपंथी]] विसोबा खेचर से दीक्षा ली। जो नामदेव पंढरपुर के "विट्ठल" की प्रतिमा में ही भगवान को देखते थे, वे खेचर के संपर्क में आने के बाद उसे सर्वत्र अनुभव करने लगे। उसकीउनको प्रेमभक्तिप्रेमाभक्ति में ज्ञान का समावेश हाहो गया। डॉ॰ मोहनसिंह, "नामदेव" को [[रामानंद]] का शिष्य बतलाते हैं। परन्तु महाराष्ट्र में इनकी बहुमान्य गुरु परंपरा इस प्रकार है -
 
:ज्ञानेश्वर जी और नामदेव जी उत्तर भारत की साथ साथ यात्रा की थी। ज्ञानेश्वर मारवाड़ में कोलदर्जी नामक स्थान तक ही नामदेव जी के साथ गए। वहाँ से लौटकर उन्होंने आलंदी में शके 1218 में समाधि ले ली। ज्ञानेश्वर के वियोग से नामदेवजी का मन महाराष्ट्र से उचट गया और ये पंजाब की ओर चले गए। [[गुरुदासपुर जिले|गुरुदासपुर जिले]] के घोभान नामक स्थान पर आज भी नामदेव जी का मंदिर विद्यमान है। वहाँ सीमित क्षेत्र में इनका "पंथ" भी चल रहा है। संतों के जीवन के साथ कतिपय चमत्कारी घटनाएँ जुड़ी रहती है। नामदेव के चरित्र में भी सुल्तान की आज्ञा से इनका मृत गाय को जिलाना, पूर्वाभिमुख आवढ्या नागनाथ मंदिर के सामने कीर्तन करने पर पुजारी के आपत्ति उठाने के उपरांत इनके पश्चिम की ओर जाते ही उसके द्वार का पश्चिमाभिमुख हो जाना, विट्ठल की मूर्ति का इनके हाथ दुग्धपान करना, आदि घटनाएँ समाविष्ट हैं। महाराष्ट्र से लेकर पंजाब तक विट्ठल मंदिर के महाद्वार पर शके 1272 में समाधि ले ली। कुछ विद्वान् इनका समाधिस्थान [[घोमान]] मानते हैं, परंतु बहुमत पंढरपुर के ही पक्ष में हैं।
 
:ज्ञानेश्वर जी और नामदेव जी ने उत्तर भारत की साथ -साथ यात्रा की थी। ज्ञानेश्वर मारवाड़ में कोलदर्जीकोलायत (बीकानेर) नामक स्थान तक ही नामदेव जी के साथ गए।गए थे । वहाँ से लौटकर उन्होंने आलंदीआळंदी में शके 1218 में समाधि ले ली। ज्ञानेश्वर के वियोग से नामदेवजी का मन महाराष्ट्र से उचट गया और ये पंजाब की ओर चले गए। [[गुरुदासपुर जिले|गुरुदासपुर जिले]] के घोभानघुमान नामक स्थान पर आज भी नामदेव जी का मंदिर विद्यमान है। वहाँ सीमित क्षेत्र में इनका "पंथ" भी चल रहा है। संतों के जीवन के साथ कतिपय चमत्कारी घटनाएँ जुड़ी रहती है। नामदेव के चरित्र में भी सुल्तान की आज्ञा से इनका मृत गाय को जिलाना, पूर्वाभिमुख आवढ्या नागनाथ मंदिर के सामने कीर्तन करने पर पुजारी के आपत्ति उठाने के उपरांत इनके पश्चिम की ओर जाते ही उसके द्वार का पश्चिमाभिमुख हो जाना,(ऐसी ही घटना राजस्थान के पाली जिले में मारवाड़ के पास "बारसा" नामक गाँव में कृष्ण भगवान जिन्हें स्थानीय लोग भगवान जगमोहनजी कहते हैं, के पौराणिक मंदिर की घटना का वृतांत भी मिलता हैं. इसका उल्लेख हंसनिर्वाणी संत मोहनानंदजी महाराज द्वारा अपने हस्तलिखित पुस्तक में किया हैं, जिस पर शोध कर पाली के गुड़ाएन्दला गाँव निवासी श्री अशोक आर.गहलोत, अहमदाबाद ने सैद्धांतिक व प्रायोगिक प्रमाणों के साथ सन् 2003 में उजागर किया. जहां "नामदेव भक्ति संप्रदाय संघ" के प्रणेता ह.भ.प. श्री रामकृष्ण जगन्नाथ बगाडे महाराज, पुणे ने राष्ट्रीय स्तर का अधिवेशन कर इस स्थान की पुष्टि सन् 2005 में की) विट्ठल की मूर्ति का इनके हाथ दुग्धपान करना, आदि घटनाएँ समाविष्ट हैं। महाराष्ट्र सेके लेकरपंढरपुर पंजाब तकस्थित विट्ठल मंदिर के महाद्वार पर शके 1272 में परिवार के एक सदस्य(बेटे की बहु) को छोड़कर संजीवन समाधि ले ली। कुछ विद्वान् इनका समाधिस्थान [[घोमान]]घुमान मानते हैं, परंतु बहुमत पंढरपुर के ही पक्ष में हैं।
संत नामदेव जी की यात्रायों के समय उनके साथ श्री निवृत्तिनाथ , श्री सोपान देव, श्री ज्ञानेश्वर , बहिन मुक्ता बाई , श्री चोखा मेला (नामदेवजी के शिष्य - जाती से धेड़ - गांव मंगलवेढा), सांवता माली (गांव - आरण मेंढी), नरहरि सुनार (गांव - पंढरपुर) रहते थे.
संत नामदेव जी की यात्रायों के समय उनके साथ श्री निवृत्तिनाथ , श्री सोपानदेव, श्री ज्ञानेश्वर , बहिन मुक्ताबाई , श्री चोखा मेला (नामदेवजी के शिष्य - जाती से धेड़ - गांव मंगलवेढा), सांवता माली (गांव - आरण मेंढी), नरहरि सुनार (गांव - पंढरपुर) थे. संत शिरोमणि के प्रधान शिष्यो में संत जाना बाईजनाबाई (जो दामाशेठ के घर सेविका थी), परिसा भागवत (जिन्होंने प्रथम दीक्षा ग्रहण की थी), चोखा मेलाचोखामेला, केशव कलाधारी, लड्ढा , बोहरदास , जल्लो, विष्णु स्वामीविष्णुस्वामी, त्रिलोचन आदि थे , जिनके सामीप्य में उनके जीवन काल में भक्ति रासरस की सरिता बह निकली, जो आज भी अनवरत जारी है.
 
:नामदेव जी के संत नामदेवजी घुमान (पंजाब) प्रवास के समय अपनी मण्डली के साथ मारवाड़ जंक्शन के पास "बारसा" गांव स्थित कृष्ण मंदिर, भगवान जगमोहनजी के मंदिर में रात्रि विश्राम के लिए रुके थे. उनकेजहां आगमनसंत औरमंडली सत्संगने रात में विट्ठल का कुछकीर्तन शुरू किया था. संत नामदेव अपने प्रभू श्री विट्ठल के साथ इस कदर कीर्तन में तल्लीन हो गए कि कब भौर हुई पता ही नहीं चला. प्रातःकाल मंदिर के ब्राह्मण पुजारी पूजा के लिए मंदिर प्रवेश कर रहे तो उन्हें पता चला कि कोई मराठी संत मंदिर के अहाते में नाच रहा हैं. मंदिर प्रवेश के लिए रास्ता नहीं मिला तो लोगोंपुजारी ने विरोधगुस्से कियासे नामदेव जी को प्रताडित कर मंदिर के पीछे जाकर अपना कीर्तन करने का आदेश दे दिया तो वे मंदिर के पीछे बैठकर दुःखी व अपमानित महसूस कर अपने आराध्य कृष्ण से करूणामयी पुकार से कीर्तन करने लगे. भक्त औरके आर्तनाद को महसूस कर प्रभू जगमोहनजी ने अपने पूरे मंदिर को ही पूर्व से पश्चिम की ओर घुमा दिया जहां उसका परम भक्त बैठा था. जिसका प्रमाण आज भी इस मंदिर में मौजूद हैं. जहां भक्त नामदेव व भगवान काकृष्ण(जगमोहनजी) एक ही आधार पर समकक्ष बिराजमान हैं. ऐसा अनोखा मिलनदृश्य इतिहास में कहीं नहीं मिलता, जैसा आज के बारसा धाम"बारसाधाम" (मारवाड़ जंक्शन) राजस्थान में घटित हुआ है. भगवान जगमोहनजी (ठाकुरजी) ने अपनीअपने प्रिय भक्त श्री नामदेव जी के सामनेको सम्पूर्ण मंदिर सहित घूमकर सामने दर्शन दिए. आजइस बारसधामस्थल कोपर राजस्थानशोध काकरने पंढरपुरवाले कहाछीपा जाताअशोक हैआर. इसगहलोत, बातगुड़ाएन्दला ने इसे सन् 2004 में "राजस्थान का वर्णनपंढ़रपुर" पुरातनबारसाधाम ग्रन्थनाम जोदिया, श्रीजिसे संत ह.भ.प. रामकृष्ण बगाडे जी महाराजने द्वारासन् लिखित2005 हैमें मेअपने मिलताकार्यक्रम में इस नाम पर मोहर लगाई. आज ये स्थान "राजस्थान का पंढरपुर" कहा जाता है. इस बात की पुष्टि इतिहासविद और बारसा धामबारसाधाम के खोजी छीपा श्री अशोक आर गहलोत ने भी समय समय पर छीपा जातीजाति को अवगत कराई है.
 
== नामदेव जी के मत ==
बिसोवाबिसोबा खेचर से दीक्षा लेने के पूर्व तक ये [[सगुण ब्रह्म|सगुणोपासक]] थे। पंढरपुर के विट्ठल (विठोबा) की उपासना किया करते थे। दीक्षा के उपरांत इनकी विट्ठलभक्ति सर्वव्यापक हो गई। महाराष्ट्रीय संत परंपरा के अनुसार इनकी निर्गुण भक्ति थी, जिसमें सगुण निर्गुण का काई भेदभाव नहीं था। उन्होंने मराठी में कई सौ अभंग और हिंदी में सौ के लगभग पद रचे हैं। इनके पदों में [[हठयोग]] की कुंडलिनी-योग-साधना और प्रेमाभक्ति की (अपने "राम" से मिलने की) "तालाबेली" (विह्वलभावना) दोनों हैं। निर्गुणी [[कबीर]] के समान नामदेव में भी व्रत, तीर्थ आदि बाह्याडंबर के प्रति उपेक्षा तथा भगवन्नाम एवं सतगुरु के प्रति आदर भाव विद्यमान है। कबीर के पदों में यततत्रयत्र-तत्र नामदेव की भावछाया दृष्टिगोचर होती है। कबीर केसे पूर्व नामदेव ने उत्तर भारत में निर्गुण भक्ति का प्रचार किया, जो निर्विवाद है।
 
== परलोक गमन ==
आपने कईतीन बार तीर्थ यात्राएं की व साधु संतो के साथ भ्रमण करते रहे। ज्यों ज्यों आपकी आयु बढती गई, त्यों त्यों आपका यश फैलता गया। आपने दक्षिण में बहुत प्रचार किया। आपके गुरुसाथी देवसंत ज्ञानेश्वर जी परलोक गमन कर गए तो आप भी कुछ उपराम रहने लग गए। जीवन के अंतिम दिनों मैंमें श्री नामदेव जीनामदेवजी पुनः पंढरपुर आ गए और 3 जुलाई सन १३५०1350 शनिवार को सपरिवार "संजीवन समाधी" लेकर मोक्ष प्राप्त किया. आज भी उनके भक्त इस दींदिन को "श्री नामदेव समाधीसमाधि दिवस" के रूप में याद करके अपने को धन्य समझते है. उन्होंने समाधीसमाधि भी श्री विट्ठल भगवन के मंदिर में जाने वाली सीढ़ियों (जिसे मराठी में "पायरी" कहते है) में ली. उनकी अंतिम इच्छा भी यही थी की श्री हरीहरि विट्ठल के दर्शनार्थ जो भी भक्त मंदिर में प्रवेश करे तब उनकी रज कण मेरे माथे पर पड़े और वो श्री विट्ठल के दर्शन करे . आज भी वो स्थान "श्री नामदेव पायरी" के नाम से जाना जाता है।
 
== साहित्यक देन ==