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एक बार महाराज पाण्डु अपनी दोनों रानियों [[कुन्ती]] और [[माद्री]] के साथ वन विहार कर रहे थे। एक दिन उन्होंने मृग के भ्रम में बाण चला दिया जो एक ऋषि को लग गया। उस समय ऋषि अपनी पत्नी के साथ सहवासरत थे और उसी अवस्था में उन्हें बाण लग गया। इसलिए उन्होंने पाण्डु को श्राप दे दिया की जिस अवस्था में उनकी मृत्यु हो रही है उसी प्रकार जब भी पाण्डु अपनी पत्नियों के साथ सहवासरत होंगे तो उनकी भी मृत्यु हो जाएगी। उस समय पाण्डु की कोई संतान नहीं थी और इस कारण वे विचलित हो गए। यह बात उन्होंने अपनी बड़ी रानी [[कुन्ती]] को बताई। तब कुन्ती ने कहा की ऋषि [[दुर्वासा ऋषि|दुर्वासा]] ने उन्हें वरदान दिया था की वे किसी भी देवता का आवाहन करके उनसे संतान प्राप्त सकतीं हैं। तब पाण्डु के कहने पर कुन्ती ने एक-एक कर कई देवताओं का आवाहन किया। इस प्रकार [[माद्री]] ने भी देवताओं का आवाहन किया। तब [[कुन्ती]] को तीन और [[माद्री]] को दो पुत्र प्राप्त हुए जिनमें [[युधिष्ठिर]] सब्से ज्येष्ठ थे। कुंती के अन्य पुत्र थे [[भीम]] और [[अर्जुन]] तथा माद्री के पुत्र थे [[नकुल]] व [[सहदेव]]।
 
एक दिन वर्षाऋतु का समय था और पाण्डु और माद्री वन में विहार कर रहे थे। उस समय पाण्डु अपने काम वेग पर नियंत्रण न रख सके और माद्री के साथ सहवास करने को उतावले हो गए औरकिया। तब ऋषि का श्राप महाराज पाण्डु की मृत्यु के रूप में फलित हुआ।
 
== सन्दर्भ ==