"आर्य": अवतरणों में अंतर

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:'''ऊरू तदस्य यद्वैश्य: पदभ्यां शूद्रोऽजायत॥'''10॥ 90। 22॥
 
(इस विराट् पुरुष के मुंह से ब्राह्मण, बाहु से राजस्व (क्षत्रिय), ऊरु (जंघा) से वैश्य और पद (चरण) से शूद्र उत्पन्न हुआ।)
 
यह एक अलंकारिक वाक्य हे | ब्रह्म तो अनंत हे | उस ब्रह्म के सद विचार, सद प्रवृत्तियां आस्तिकता जिस जनसमुदाय से अभिव्यक्त होती हे उसे ब्राहमण कहा गया हे |
शोर्य और तेज जिस जन समुदाय से अभिव्यक्त होता हे वह क्षत्रिय वर्ग और इनके अतिरिक्त संसार को चलने के लिए आवश्यक क्रियाए जेसे कृषि वाणिज्य ब्रह्म वैश्य भाग से
अभिव्यक्त होती है। इसके अतिरिक्त भी अनेक इसे कार्य बच जाते हे जिनकी मानव जीवन में महत्ता बहुत अधिक होती हे जेसे दस्तकारी, शिल्प, वस्त्र निर्माण, सेवा क्षेत्र
ब्रह्म अपने शुद्र वर्ग द्वारा अभिव्यक्त करता हे |<ref>http://www.gitapress.org/BOOKS/GITA/18/18_Gita.pdf</ref>
 
आजकल की भाषा में ये वर्ग बौद्धिक, प्रशासकीय, व्यावसायिक तथा श्रमिक थे। मूल में इनमें तरलता थी। एक ही परिवार में कई वर्ण के लोग रहते और परस्पर विवाहादि संबंध और भोजन, पान आदि होते थे। क्रमश: ये वर्ग परस्पर वर्जनशील होते गए। ये सामाजिक विभाजन आर्यपरिवार की प्राय: सभी शाखाओं में पाए जाते हैं, यद्यपि इनके नामों और सामाजिक स्थिति में देशगत भेद मिलते हैं।
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नैतिक अर्थ में "आर्य" का प्रयोग महाकुल, कुलीन, सभ्य, सज्जन, साधु आदि के लिए पाया जाता है। ('''महाकुलकुलीनार्यसभ्यसज्जनसाधव:।''' -[[अमरकोष]] 7। 3)। [[सायणाचार्य]] ने अपने ऋग्भाष्य में "आर्य' का अर्थ विज्ञ, यज्ञ का अनुष्ठाता, विज्ञ स्तोता, विद्वान् आदरणीय अथवा सर्वत्र गंतव्य, उत्तमवर्ण, मनु, कर्मयुक्त और कर्मानुष्ठान से श्रेष्ठ आदि किया है। आदरणीय के अर्थ में तो संस्कृत साहित्य में आर्य का बहुत प्रयोग हुआ है। पत्नी पति को आर्यपुत्र कहती थी। पितामह को आर्य (हिन्दी - आजा) और पितामही को आर्या (हिंदी - आजी, ऐया, अइया) कहने की प्रथा रही है। नैतिक रूप से प्रकृत आचरण करनेवाले को आर्य कहा गया है :
 
:'''कर्तव्यमाचनरन् कार्यमकर्तव्यमनाचरन्।''' <br />
:'''तिष्ठति प्रकृताचारे स आर्य इति उच्यते॥'''
 
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== महर्षि अरविन्द के विचार ==
आर्य लोग जगत के सनातन स्थापना के जानकर थे उनके अनुसार प्रेम शक्ति सत् के विकास के लिए सर्व्यापी नारायण या ईश्वर स्थावर-जंगम मनुष्य-पशु किट-पतंग साधू-पापी शत्रु-मित्र तथा
देवता और असुर में प्रकट होकर लीला कर रहे है।हैं। अरविन्द घोष के अनुसार अर्यालोग मित्र कि रक्षा करते और शत्रु का नाश करते किन्तु उसमे उनकी आसक्ति नहीं थी। वे सर्वत्र सब प्राणियों में सब वस्तुओं में कर्मो में फल में इश्वर को देखा कर ईष्ट अनिष्ट शत्रु मित्र सुख दुःख सिद्धि असिद्धि में समबाभाव रखते थे। इस समभाव का परिणाम यह नहीं था कि सब कुछ इनके लिए सुखदायि और सब कर्म उनके करने योग्य थे
 
बिना सम्पूर्ण योग के द्वंद्व मिटता नहीं हे और यह अवस्था बहुत कम लोगो को प्राप्त होती है, किन्तु आर्य शिक्षा साधारण आर्यों कि सम्पति हे | आर्य इष्ट साधन और अनिष्ट को हटाने में सचेत रहते थे, किन्तु इष्ट साधन
से विजय के मद में चूर नहीं होते थे और अनिष्ट समपादन में डरते भी न थे। मित्र कि सहायता और शत्रु कि पराजय उनकी चेष्टा होती थी लेकिन शत्रु से द्वेष और मित्र का अन्याय भी सहन नहीं करते थे। आर्य लोग तो कर्त्तव्य
के अनुरोध से स्वजनो का संहार भी करते थे और विपक्षियों कि प्राण रक्षा के लिए युद्ध भी करते थे। वे पाप को हठाने वाले और पुण्य को संचय करने वाले थे लेकिन पुन्य कर्म में गर्वित और पाप में पतित होने पर रोते नहीं थे वरन
शारीर शुद्धि करके आत्म उन्नति में सचेष्ट होजाते थे। आर्य लोग कर्म कि सिद्धि के लिए विपुल प्रयास करते थे, हजारों बार विफल होने पर भी वीरत नहीं होते थे किन्तु असिद्धि में दुखित होना उनके लिए अधर्म था। <ref>Dharm aur Jatiyata - Jatiya uthhan page 82-83 </ref><ref>http://www.new.dli.gov.in/scripts/FullindexDefault.htm?path1=/data3/upload/0086/465&first=1&last=149&barcode=99999990232234</ref>
 
== आर्य-आक्रमण के सिद्धांत में समय के साथ परिवर्तन ==
आर्य आक्रमण का सिद्धांत अपने आराम्भिक दिनों से ही लगातार परिवर्तित होते रहा है।
आर्य-आक्रमण के सिद्धांत कि अधुनिक्तम परिकल्पन के अनुसार यह कोइ जाति विशेष नहीनहीं थी अपितु यह केवल एक सम्मानजनक शब्द था जो कि आन्ग्ल्भाषा के SIR के समनर्थाक था। आर्यो के आक्रमन की कल्पान के समर्थन के सभी तथ्य भ्रमक सिद्ध हो चुके है।
 
सन्दर्भ - आर्य कौन थे - लेखक - श्री राम साठे अनुवादक - किशोरी लाल व्यास प्रकाशक - इतिहास संकलन योजना
"https://hi.wikipedia.org/wiki/आर्य" से प्राप्त