"स्मृति": अवतरणों में अंतर

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मनु ने श्रुति तथा स्मृति महत्ता को समान माना है। गौतम ऋषि ने भी यही कहा है कि ‘वेदो धर्ममूल तद्धिदां च स्मृतिशीले'। हरदत्त ने गौतम की व्खाख्या करते हुए कहा कि स्मृति से अभिप्राय है मनुस्मृति से। परन्तु उनकी यह व्याख्या उचित नहीं प्रतीत होती क्योंकि स्मृति और शील इन शब्दों का प्रयोग स्रोत के रूप में किया है, किसी विशिष्ट स्मृति ग्रन्थ या शील के लिए नहीं। स्मृति से अभिप्राय है वेदविदों की स्मरण शक्ति में पड़ी उन रूढ़ि और परम्पराओं से जिनका उल्लेख वैदिक साहित्य में नहीं किया गया है तथा शील से अभिप्राय है उन विद्वानों के व्यवहार तथा आचार में उभरते प्रमाणों से। फिर भी आपस्तम्ब ने अपने धर्म-सूत्र के प्रारम्भ में ही कहा है ‘धर्मज्ञसमयः प्रमाणं वेदाश्च’।
 
स्मृतियों की रचना वेदों की रचना के बाद लगभग ५०० ईसा पूर्व हुआ। छठी शताब्दी ई.पू. के पहले सामाजिक धर्म वेद एवं वैदिक-कालीन व्यवहार तथा परम्पराओं पर आधारित था। आपस्तम्ब धर्म-सूत्र के प्रारम्भ में ही कहा गया है कि इसके नियम समयाचारिक धर्म के आधार पर आधारित हैं। समयाचारिक धर्म से अभिप्राय है सामाजिक परम्परा से। सब सामाजिक परम्परा का महत्त्व इसलिए था कि धर्मशास्त्रों की रचना लगभग १००० ई.पू. के बाद हुई। पीछे शिष्टों की स्मृति में पड़े हुए परम्परागत व्यवहारों का संकलन स्मृति ग्रन्थों में ऋषियों द्वारा किया गया। इसकी मान्यता समाज में इसीलिए स्वीकार की गई होगी कि जो बातें अब तक लिखित नहीं थीं केवल परम्परा में ही उसका स्वरूप जीवित था, अब लिखित रूप में सामने आईं। अतएव शिष्टों की स्मृतियों से संकलित इन परम्पराओं के पुस्तकीकृत स्वरूप का नाम स्मृति रखा गया। पीछे चलकर स्मृति का क्षेत्र व्यापक हुआ।
 
 
== स्मृति से इतर ==