"समुद्र मन्थन": अवतरणों में अंतर
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"समुद्र मंथन आरम्भ हुआ और भगवान कच्छप के एक लाख [[योजन]] चौड़ी पीठ पर मन्दराचल पर्वत घूमने लगा। हे राजन! समुद्र मंथन से सबसे पहले जल का हलाहल विष निकला। उस विष की ज्वाला से सभी देवता तथा दैत्य जलने लगे और उनकी कान्ति फीकी पड़ने लगी। इस पर सभी ने मिलकर भगवान शंकर की प्रार्थना की। उनकी प्रार्थना पर [[महादेव]] जी उस विष को हथेली पर रख कर उसे पी गये किन्तु उसे कण्ठ से नीचे नहीं उतरने दिया। उस [[कालकूट]] विष के प्रभाव से शिव जी का कण्ठ नीला पड़ गया। इसीलिये महादेव जी को [[नीलकण्ठ]] कहते हैं। उनकी हथेली से थोड़ा सा विष पृथ्वी पर टपक गया था जिसे साँप, बिच्छू आदि विषैले जन्तुओं ने ग्रहण कर लिया।
"विष को शंकर भगवान के द्वारा पान कर लेने के पश्चात् फिर से समुद्र मंथन प्रारम्भ हुआ। दूसरा रत्न [[कामधेनु]] गाय निकली जिसे ऋषियों ने रख लिया। फिर [[उच्चैःश्रवा]] घोड़ा निकला जिसे दैत्यराज बलि ने रख लिया। उसके बाद [[ऐरावत]] हाथी निकला जिसे देवराज इन्द्र ने ग्रहण किया। ऐरावत के पश्चात् [[कौस्तुभमणि]] समुद्र से निकली उसे विष्णु भगवान ने रख लिया। फिर [[
धन्वन्तरि के हाथ से [[अमृत]] को दैत्यों ने छीन लिया और उसके लिये आपस में ही लड़ने लगे। देवताओं के पास दुर्वासा के शापवश इतनी शक्ति रही नहीं थी कि वे दैत्यों से लड़कर उस अमृत को ले सकें इसलिये वे निराश खड़े हुये उनका आपस में लड़ना देखते रहे। देवताओं की निराशा को देखकर भगवान विष्णु तत्काल [[मोहिनी]] रूप धारण कर आपस में लड़ते दैत्यों के पास जा पहुँचे। उस विश्वमोहिनी रूप को देखकर दैत्य तथा देवताओं की तो बात ही क्या, स्वयं ब्रह्मज्ञानी, कामदेव को भस्म कर देने वाले, भगवान शंकर भी मोहित होकर उनकी ओर बार-बार देखने लगे। जब दैत्यों ने उस नवयौवना सुन्दरी को अपनी ओर आते हुये देखा तब वे अपना सारा झगड़ा भूल कर उसी सुन्दरी की ओर कामासक्त होकर एकटक देखने लगे।
[[चित्र:Dasavatara2.png|thumb|समुद्र मन्थन|]]
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