"निरुक्त": अवतरणों में अंतर

No edit summary
पंक्ति 23:
इसके सिवाय परिशिष्ट के रूप में अंतिम दो अध्याय और भी साथ में संलग्न हैं। इस प्रकार कुल 14 अध्याय हैं। इन अध्यायों में प्रारंभ से द्वितीय अध्याय के प्रथम पाद पर्यंत उपोद्घात वर्णित है। इसमें निघंटु का लक्षण, पद का प्रकार, भाव का विकार, शब्दों का धातुज सिद्धांत, निरुक्त का प्रयोजन और एतत्संबंधी अन्य आवश्यक नियमों के आधार परि विस्तार के साथ विवेचन किया गया है। इस समस्त भाग का नैघंटुक कांड कहते हैं। इसी का 'पूर्वषट्क' नामांतर है। चौथे अध्याय में एकपदी आख्यान का सुंदर विवेचन किया गया है। इसे नैगमकांड कहते हैं। अंतिम छह अध्यायों में देवताओं का वर्णन किया गया है। इसे दैवत कांड बतलाया है। इसके अनंतर देवस्तुति के आधार पर आत्मतत्वों का उपदेश किया गया है।
 
निरुक्त के बारह अध्याय है। प्रथम में व्याकरण और शब्दशास्त्र पर सूक्ष्म विचार हैं। इतने प्राचीन काल में शब्दशास्त्र पर ऐसा गूढ़ विचार और कहीं नहीं देखा जाता। शब्दशास्त्र पर अनेक मत प्रचलित थे इसका पता यास्क के निरूक्त से लगता है। कुछ लोगों का मत था कि सभी शब्द [[धातु]]मूलक हैं और धातु क्रियापद मात्र हैं जिनमें [[प्रत्यय]] आदि लगाकर भिन्न शब्द बनते हैँ। यास्क ने इसी मत का खंडन किया है। इस मत के विरोधियों का कहना था कि कुछ शब्द धातुरुप क्रियापदों से बनते है पर सब नहीं, क्योंकि यदि 'अंशअशं' से अश्व माना जाय तो प्रत्य़ेक चलने या आगे बढ़नेवाला पदार्थ अश्व कहलाएगा। यास्क ने इसी विरोधी मत का खंडन किया है। यास्क मुनि ने इसके उत्तर में कहा है कि जब एक क्रिया से एक पदार्थ का नाम पड़ जाता है तब वही क्रिया करनेवाले और पदार्थ को वह नाम नहीं दिया जाता। दूसरे पक्ष का एक और विरोध यह था कि यदि नाम इसी प्रकार दिए गए है तो किसी पदार्थ में जितने-जितने गुण हों उतने ही उसका नाम भी होने चाहिए। यास्क इसपर कहते है कि एक पदार्थ किसी एक गुण या कर्म से एक नाम को धारण करता है। इसी प्रकार और भी समझिए। दूसरे और तीसरे अध्याय में तीन निधंटुओं के शब्दों के अर्थ प्रायः व्यख्या सहित है। चौथे से छठें अध्याय तक चौथे निघंटु की व्याख्या है। सातवें से बारहवें तक पाँचवें निघंटु के वैदिक देवताओं की व्याख्या है।
 
== निरुक्त का महत्व ==