"द्विजदेव (कवि )": अवतरणों में अंतर

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'''द्विजदेव (कवि ) ''' (१८३० -१८७१ ):रीति कालीन स्वच्छन्द मुक्तक काव्य परम्परा के अंतिम कवि हैं। ये अयोध्या के महाराज मान सिंह माने जाते हैं जो द्विजदेव के नाम से कविता करते थे। ये जाति से ब्राह्मण थे। वर्ष १८५७ की गदर में अंग्रेजों का साथ दिया था और जागीर प्राप्त की थी लेकिन अंत समय में सब कुछ त्याग कर वृन्दावन चले गए ।गए। <ref name="plus.google.com">https://plus.google.com/107807291734419802285/posts/YGUNzazWC7L</ref><ref>http://bharatdiscovery.org/india/द्विजदेव_(महाराज_मानसिंह)</ref>
 
==साहित्य सृजन==
इन्होंने प्रणय भावनाओं की अभिव्यक्ति सहज स्वाभाविक रूप से की है। निम्न पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं :
;तू जो कही ,सखि ! लोनो सरूप ,सो मो अँखियान कों लोनी गई लगि।
+ + + +
;एहो ब्रजराज ! मेरो प्रेमधन लूटिबे को , बीरा खाय आये कितै आप के अनोखे नैन !
+ + + +
;हाय इन कुंजन तें पलटि पधारे श्याम ,देखन न पाई वह मूरति सुधामई।
;आवन समै में दुखदाइनि भई री लाज ,चलन समै में चल पवन ने दगा दईदई।। । ।<ref>https:// name="plus.google.com"/107807291734419802285/posts/YGUNzazWC7L</ref>
== ऋतु -वर्णन==
ऋतू -वर्णन के क्षेत्र में इन्होंने मुक्तक काव्य परम्परा के अन्य कवियों की अपेक्षा अधिक उची दिखाई है। इसकी सार्थकता निम्नांकित उद्धरणों में देखि जा सकती है :
;मिलि माधवी आदिक फूल के व्याज विनोद -लवा बरसायो करै।
;रवि नाच लता गन तान वितान सबै विधि चित्त चुरायो करै।
;द्विजदेव जु देखि अनोखी प्रभा अलि -चारन कीरति गया करै।
;चिरजीवो ,बसन्त ! सदा द्विजदेव प्रसूनन की झरि लायो करै।।
;घहरि घहरि घन सघन चहूँधा घेरि , छहरि छहरि विष -बूँद बरसावै ना।
;द्विजदेव की सौं अब चूकै मत दाँव ,ए रे पातकी पपीहा !तू पिया की धुनि गावै ना।।
 
* + + +
;हौं तौ बिन प्रान ,प्रान चाहत तजोई अब ,कत नभ चंद तू अकास चढ़ि धावै ना।।
 
==प्रकाशित ग्रन्थ==
# श्रृंगार -बत्तीसी
# श्रृंगार -लतिका<ref>https:// name="plus.google.com"/107807291734419802285/posts/YGUNzazWC7L</ref>
 
{{रीति काल के कवि}}
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==सन्दर्भ==
{{Reflist}}
 
[[श्रेणी :कवि ]]
[[श्रेणी :महाकवि कवि]]
[[श्रेणी :रीतिकालीन कवि महाकवि]]
[[श्रेणी :भारतरीतिकालीन कवि]]
[[श्रेणी :कवि भारत]]