"हिन्दू देवी-देवता": अवतरणों में अंतर
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== परिचय ==
वैदिक देवताओं का वर्गीकरण तीन कोटियों में किया गया है - पृथ्वीस्थानीय, अंतरिक्ष स्थानीय और द्युस्थानीय। अग्नि, वायु और सूर्य क्रमश: इन तीन कोटियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। इन्हीं त्रिदेवों के आधार पर पहले 33 और बाद को 33 कोटि देवताओं की परिकल्पना की गई है। 33 देवताओं के नाम और रूप में ग्रंथभेद से बड़ा अंतर है। ‘[[शतपथ
वेदोत्तर काल में पौराणिक तांत्रिक साहित्य और धर्म तथा लोक धर्म का वैदिक देववाद पर इतना प्रभाव पड़ा कि वैदिक देवता परवर्ती काल में अपना स्वरूप और गुण छोड़कर लोकमानस मे सर्वथा भिन्न रूप में ही प्रतिष्ठापित हुए। परवर्ती काल में बहुत से वैदिक देवता गौण पद को प्राप्त हुए तथा नए देवस्वरूपों की कल्पनाएँ भी हुई। इस परिस्थिति से भारतीय देववाद का स्वरूप और महत्व अपेक्षाकृत अधिक व्यापक हो गया।
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हिंदू धर्म में कोई भी उपासक अपनी रुचि के अनुसार अपने देवता के चुनाव के लिये स्वतंत्र था। तथापि शास्त्रों में इस बात की व्यवस्था भी बताई गई कि कार्य और उद्देश्य के अनुसार भी देवता की उपसना की जा सकती है।
इस प्रकार नृपों के देवता विष्णु और इंद्र, ब्राह्मणों के देवता अग्नि, सूर्य, ब्रह्मा, शिव निर्धारित किए गए है। एक अन्य व्यवस्था के अनुसार विष्णु देवताओं के, रुद्र ब्राह्मणों के, चंद्रमा अथवा सोम यक्षों और गंधर्वो के, सरस्वती विद्याधरों के, हरि साध्य संप्रदायवालों के, पार्वती किन्नरों के, ब्रह्मा और महादेव ऋषियों के, सूर्य, विष्णु और उमा मनुओं के, ब्रह्मा ब्रह्मचारियों के, अंबिका वैखानसों के, शिव यतियों के, गणपति या गणेश कूष्मांडों या गणों के विशेष देवता निर्धारित किए गए हैं। किंतु समान्य गृहस्थों के लिये इस प्रकार का भेदभाव नहीं लक्षित है। उनके लिये सभी देवता पूजनीय हैं। (''गृहस्थानाञ्च सर्वेस्यु:'')
हिंदू देवपरिवार का उद्भव [[ब्रह्मा]] से माना जाता है। त्रिदेव में ब्रह्मा प्रथम हैं। भारतीय धारणा के अनुसार ब्रह्मा ही स्त्रष्टा हैं और वे ही प्रजापति हैं।
वे एक हैं और उनकी इच्छा कि मैं बहुत हो जाऊँ (''एकोऽहं बहु स्याम्'') ही विश्व की समृद्धि का कारण है। [[मंडूक उपनिषद्]] में ब्रह्मा को देवताओं में प्रथम, विश्व का कर्ता और संरक्षक कहा गया है। कर्ता के रूप में वैदिक साहित्य में ब्रम्हा का परिचय विभिन्न नामों से दिया गया है, यथा विश्वकर्मन्, ब्रह्मस्वति, हिरणयगर्भ, प्रजापति, ब्रह्मा और ब्रह्मा। पुराणों में इन नामों के अतिरिक्त धाता, विधाता, पितामह आदि भी प्रचलित हुए। वैदिक साहित्य की अपेक्षा पौराणिक साहित्य में ब्रह्मा का महत्व गौण है। उपासना की दृष्टि से जो महत्ता विष्णु, शिव, यहाँ तक की गणपति और सूर्य को प्राप्त है, वह भी ब्रह्मा को नहीं मिला, किंतु वैदिक देवताओं में प्रजापति के रूप में ब्रह्मा सर्वमान्य हैं और इस रूप में वे आकाश और पृथ्वी को स्थापित करने वाले तथा अंतरिक्ष में व्याप्त रहते हैं। ये समस्त विश्व और समस्त प्राणियों को अपनी भुजाओं में आबद्ध किए रहते है। इस प्रकार ऋग्वेद में ब्रह्मा का अमूर्त रूप ही अथर्व मान्य है। मानवी रूप में इनकी कल्पना भी बड़ी प्राचीन है। अथर्व और बाजसनेयी संहिता में भी वे सर्वोपरि देवता के रूप में स्वीकार किए गए हैं। शतपथ ब्राह्मण (11। 1। 6। 14।) में उन्हें देवों के पिता तथा इसी ग्रंथ में अन्यत्र (2। 2। 4। 1) कहा गया है कि सृष्टि के आदि में भी ब्रह्मा का अस्तित्व था। मैत्रयणी संहिता में (4। 212।) प्रजापति के अपनी पुत्री उषस पर आसक्त होने की कथा मिलती है जो परवर्ती साहित्य में विस्तृत रूप से दुहराई गई है। इस कथा के प्रति नैतिक दृष्टिकोण के कारण परवर्ती समाज में ब्रह्मा की मान्यता घटती गई। ब्रह्मा का स्वभाव भी उनकी लोकप्रियता में बाधक हुआ। संप्रदाय देवता के रूप में वे विष्णु और शिव की तरह लोकप्रिय न हुए तथा तपस् और यज्ञ के विशेष हिमायती होने के कारण भक्ति के विशेष पात्र न हो सके। साथ हीं विष्णु और शिव का विरोध करनेवाले असुर और देवों पर भी वे सहज ही अनुकंपा करते थे अतएव दोनों ही संप्रदायवालों ने इनकी उपेक्षा की है। ब्रह्मा धीरे धीरे हिंदू पुराकथा में इतना महत्वहीन हो जाते हैं कि जैसा मधु कैटभ की कथा से पता चलता है, वे अपनी ही सुरक्षा में असमर्थ सिद्ध होते हैं तथा विष्णु की कृपा की अपेक्षा करते हैं। वैष्णव और शैव दोनों ही संप्रदायवाले अपने आराध्य देव विष्णु और शिव को ब्रह्मा का आराध्य देव मानते हैं। इस प्रकार के दृष्टिकोण का प्रभाव भारतीय धर्म पर यह पड़ा कि उस देवता के आधार पर भारत में न तो कोई धार्मिक संप्रदाय खड़ा हो सका और न उपास्य देव के रूप में ब्रह्मा की पृथक मूर्तियाँ ही प्रचुरता से स्थापित हुई। ब्रह्मा के मंदिर बहुत ही कम मिलते हैं। शास्त्रविधान के अनुसार उपास्य देव के रूप में ब्रह्मा का पूजा केवल वैदिक ब्राह्मणों को ही करनी चाहिए।▼
▲वे एक हैं और उनकी इच्छा कि मैं बहुत हो जाऊँ (एकोऽहं बहु स्याम्) ही विश्व की समृद्धि का कारण है। मंडूक उपनिषद् में ब्रह्मा को देवताओं में प्रथम, विश्व का कर्ता और संरक्षक कहा गया है। कर्ता के रूप में वैदिक साहित्य में ब्रम्हा का परिचय विभिन्न नामों से दिया गया है, यथा विश्वकर्मन्, ब्रह्मस्वति, हिरणयगर्भ, प्रजापति, ब्रह्मा और ब्रह्मा। पुराणों में इन नामों के अतिरिक्त धाता, विधाता, पितामह आदि भी प्रचलित हुए। वैदिक साहित्य की अपेक्षा पौराणिक साहित्य में ब्रह्मा का महत्व गौण है। उपासना की दृष्टि से जो महत्ता विष्णु, शिव, यहाँ तक की गणपति और सूर्य को प्राप्त है, वह भी ब्रह्मा को नहीं मिला, किंतु वैदिक देवताओं में प्रजापति के रूप में ब्रह्मा सर्वमान्य हैं और इस रूप में वे आकाश और पृथ्वी को स्थापित करने वाले तथा अंतरिक्ष में व्याप्त रहते हैं। ये समस्त विश्व और समस्त प्राणियों को अपनी भुजाओं में आबद्ध किए रहते है। इस प्रकार ऋग्वेद में ब्रह्मा का अमूर्त रूप ही अथर्व मान्य है। मानवी रूप में इनकी कल्पना भी बड़ी प्राचीन है। अथर्व और बाजसनेयी संहिता में भी वे सर्वोपरि देवता के रूप में स्वीकार किए गए हैं। शतपथ ब्राह्मण (11। 1। 6। 14।) में उन्हें देवों के पिता तथा इसी ग्रंथ में अन्यत्र (2। 2। 4। 1) कहा गया है कि सृष्टि के आदि में भी ब्रह्मा का अस्तित्व था। मैत्रयणी संहिता में (4। 212।) प्रजापति के अपनी पुत्री उषस पर आसक्त होने की कथा मिलती है जो परवर्ती साहित्य में विस्तृत रूप से दुहराई गई है। इस कथा के प्रति नैतिक दृष्टिकोण के कारण परवर्ती समाज में ब्रह्मा की मान्यता घटती गई। ब्रह्मा का स्वभाव भी उनकी लोकप्रियता में बाधक हुआ। संप्रदाय देवता के रूप में वे विष्णु और शिव की तरह लोकप्रिय न हुए तथा तपस् और यज्ञ के विशेष हिमायती होने के कारण भक्ति के विशेष पात्र न हो सके। साथ हीं विष्णु और शिव का विरोध करनेवाले असुर और देवों पर भी वे सहज ही अनुकंपा करते थे अतएव दोनों ही संप्रदायवालों ने इनकी उपेक्षा की है। ब्रह्मा धीरे धीरे हिंदू पुराकथा में इतना महत्वहीन हो जाते हैं कि जैसा मधु कैटभ की कथा से पता चलता है, वे अपनी ही सुरक्षा में असमर्थ सिद्ध होते हैं तथा विष्णु की कृपा की अपेक्षा करते हैं। वैष्णव और शैव दोनों ही संप्रदायवाले अपने आराध्य देव विष्णु और शिव को ब्रह्मा का आराध्य देव मानते हैं। इस प्रकार के दृष्टिकोण का प्रभाव भारतीय धर्म पर यह पड़ा कि उस देवता के आधार पर भारत में न तो कोई धार्मिक संप्रदाय खड़ा हो सका और न उपास्य देव के रूप में ब्रह्मा की पृथक मूर्तियाँ ही प्रचुरता से स्थापित हुई। ब्रह्मा के मंदिर बहुत ही कम मिलते हैं। शास्त्रविधान के अनुसार उपास्य देव के रूप में ब्रह्मा का पूजा केवल वैदिक ब्राह्मणों को ही करनी चाहिए।
पुराणों तथा शिल्पशास्त्रों के अनुसार ब्रह्मा चतुर्मुख हैं। इनके चार हाथों में अक्षमाला, श्रुवा, पुस्तक और कमंडलु प्रदर्शित कराने का विधान है। ग्रंथभेद से ब्रह्मा के आयुधभेद भी हैं। युगभेद के अनुसार इन्हें कलि में कमलासन, द्वापर में विरंचि, त्रेता में पितामह और सतयुग में ब्रह्मा के नाम से कहा गया है। इनकी सावित्री और सरस्वती दो शक्तियाँ हैं। सावित्री का स्वरूप विधान ब्रह्मा के अनुरूप ही निश्चित किया गया है। ब्रह्मा के अष्ट प्रतिहारों को सत्य, धर्म, प्रियोद्भव, यज्ञ विजय, यज्ञभद्रक, भव और विभव के नाम से जाना जाता है।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार [[सृष्टि]] की स्थिति में [[विष्णु]] की ‘इच्छा’ ही प्रधान है। सृष्टि का परिपालन विष्णु अपनी शक्ति [[लक्ष्मी]] के सहयोग से करते हैं। विष्णु ‘इच्छा’ के प्रतीक हैं, लक्ष्मी ‘भूति’ और ‘क्रिया’ की। इस प्रकार इच्छा, ‘भूति’ और ‘क्रिया’ से षड्गुणों की उत्पत्ति हेती हैं। षड्गुण ज्ञान, ऐश्वर्य, शक्ति, बल, वीर्य और तेजस् हैं। ये ही सृष्टि के उपादान हैं। इन्हीं में से दो दो गुणों से तीन मूर्त रूप बनते हैं जो लोक में संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध के नाम से प्रसिद्ध हैं। [[वासुदेव]] में सभी गुण हैं। आदि वासुदेव के आधार पर गुप्तयुग में चतुर्विशति विष्णुओं की कल्पना की गई। इनके नाम क्रमश: वासुदेव, केशव, नारायण, माधव, पुरुषोत्तम, अधोक्षज, संकर्षण, गोविंद, विष्णु, मधुसुदन, अच्युत, उपेंद्र, प्रद्युम्न, त्रिविक्रम, नरसिंह, जनार्दन, वामन, श्रीधर, अनिरुद्ध, हृषीकेश, पद्मनाभ, दामोदर, हरि और कृष्ण हैं।
विष्णु के [[अवतार]] भारतीय धर्म और आस्था पर विशेष प्रभाव रखते हैं। अवतारवाद की भावना वैदिक है। ‘शतपथ’ और ‘ऐतरेय’ ब्राह्मणों में विष्णु के मत्स्य, कूर्म और वाराह अवतारों की चर्चा है। ग्रंथभेद से विष्णु के अवतारों और उनकेक्रम आदि में बड़ा अंतर है किंतु सामान्यतया अवतारों की संख्या दस मानी जाती है। मूर्तिविधान की दृष्टि से दशावतार का विवेचन करते हुए शिल्पशास्त्रों ने मत्स्य और कूर्म को यथाकृति बनाने का निर्देश किया है। नरसिंह का मुख सिंह की तरह और भयंकर दाँतों तथा भौंहों से युक्त बनाना चाहिए। वाराह वाराहमुख हैं और उनके आयुध गदा और कमल हैं। नरसिंह के भी यह आयुध हैं। वाराह के दंष्ट्राग्र पर पृथ्वी स्थित है। गुप्त युग में वाराह के इस स्वरूप का अत्यंत कलात्मक प्रदर्शन उरयगिरि गुहा (भिलसा) में किया गया है। वामन को शिखा सहित और श्याम वर्णवाला कहा गया है। उनके एक हाथ में दंड और दूसरे में जल पात्र प्रदर्शित किया जाता है वे छत्र भी धारण करते हैं। [[तक्षशिला]] से प्राप्त वामन विष्णु की एक प्रतिमा चतुर्भुज है जिनमें पद्म, शंख,
विष्णु के कुछ विशिष्ट स्वरूप भी हैं। जलशायी विष्णु का स्वरूप गुप्तयुग में भी विशेष मान्यता प्राप्त था। [[देवगढ़]] के मंदिर में जलशायी विष्णु की बड़ी सुंदर प्रतिमा अंकित है। जलशायी बिष्णु को सुप्तदर्शित किया जाता है। वे दाएँ करवट लेटे दिखाए जाते हैं और बाएँ हाथ में पुष्प लिए रहते है। नाभि से एक [[कमल]] निकला होता है जिस पर ब्रह्मा आसीन होते हैं। पाँयताने उनकी शक्तियाँ श्री और ‘भूमि’ प्रदर्शित की जाती हैं तथा पार्श्व में [[मधुकैटभ]] भी प्रदर्शित किया जाता है।
चतुर्मुख प्रकार की कुछ विष्णुमूर्तियाँ, बैकुंठ, अनंत, त्रैलोक्य मोहन और विश्वमुख के नाम से जानी जाती हैं। वैकुंठ अष्ठभुज, अनंत द्वादशभुज, त्रैलोक्य मोहन, श् षोडशभुज और विश्वमुख विंशति भुज होते हैं। वैकुंठ, त्रैलोक्य मोहन और अनंत और विश्वमुख के चार मुख क्रमश: नर, नारसिंह, स्त्रीमुख और वराहमुख होते हैं। त्रैलोक्य मोहन की प्रतिमा में वराह आनन की जगह कभी कभी कपिलानन बनाया जाता है।
विष्णु का वाहन [[गरुड़]] है और उनके अष्ट प्रतिहारों के नाम चंड, प्रचंड, जय, विजय, धाता, विधाता, भद्र और समुद्र हैं।
[[मूर्तिशास्त्र]] की दृष्टि से [[विष्णु]] और [[सूर्य]] के मूल स्वरूप में बड़ी समानता है। किंतु [[पंचदेव|पंचदेवों]] में इनका विष्णु से पृथक् स्थान है। वैदिक काल से ही सूर्य का महत्व हिंदू देववाद में स्वीकर किया गया। ई0 पू0 प्रथम शती से सूर्योपासना के प्रति निष्ठा सांप्रदायिक रूप ले बैठी। गुप्तयुग में भी सूर्य की पूजा के प्रति लोकरुचि उग्रतर होती गई। मध्यकाल में, विशेषकर [[बंगाल]] में सूर्य का विष्णु के समान ही महत्व माना गया। बौद्ध और जैन धर्म में सूर्य के प्रति उपासना का भाव व्यापक हुआ। भाजा बौद्ध गुफा में तथा अनंत ([[उड़ीसा]]) की जैन गुफा में सूर्य की प्राचीन मूर्तियाँ अंकित हैं।
प्रतिमाविधान की दृष्टि से सूर्य के स्वरूप में कई भेद हैं। कमलासन मूर्तियाँ प्राय: द्विभुज होती हैं, जिनमें श्वेत कमल होता है तथा वे सप्ताश्वरथ मे प्रदर्शित की जाती हैं। पुराणों उदीच्यवेशी सूर्य की प्रतिमा का विशेष वर्णन मिलता है, जिनमें सूर्य [[ईरान|ईरानी]] देवताओं की तरह लंबा कोट और बूट भी धारण करते है। ऐसी उदीच्यवेशी सूर्यप्रतिमाएँ रथारूढ़ भी प्रदर्शित होती हैं। मथुरा कला में सूर्य का यह रूप विशेष लोकप्रिय हुआ। दाक्षिणात्य परंपरा में सूर्य लंबा कोट और बूट नहीं धारण करते। सूर्य के साथ उनकी पत्नियाँ निशभा (या छाया) तथा राज्ञी (अथवा प्रभा वा वचंसा) भी प्रदर्शित की जाती हैं। सूर्य के सात घोड़े सूर्य की सात रश्मियों के प्रतीक हैं।
सूर्य का [[नवग्रह]] में प्रथम स्थान है। शेष आठ ग्रह, सोम, कुज, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु, केतु हैं। सभी ग्रह किरीट और रत्नकुंडल धारण करते हैं। उनके वर्ण और वाहन भिन्न भिन्न हैं।
शिव का [[त्रिदेव]] में विशिष्ट स्थान है। वैदिक [[रुद्र]] का पौराणिक शिव से प्रत्यक्ष मेल तो नहीं बैठता किंतु इसके आधार पर शिवोपासना वेदोत्तर भी नहीं मानी जा सकती। [[सिंधुघाटी की सभ्यता]] में ध्यानयोगी और पशुपति शिव का आकलन हुआ है। शिव संहार के प्रतीक हैं, किंतु सांप्रादायिक भावुकता की अतिरेकता में इन्हें सृष्टि की स्थिति और स्थायित्व का भी कारण समझा जाता है। शिव के दो रूप हैं -एक सौम्य और दूसरा उग्र। सौम्य रूप में शिव गुणातीत हैं और ‘शिव’ हैं। उनका वाहन [[नंदी]] ‘धर्म’ का प्रतीक है। उग्र रूप में शिव [[भैरव]] हैं और संहार के प्रतीक हैं।
शिव परिवार में [[गणेश]] और [[कार्तिकेय]] आते हैं। किंतु इनकी पूजा प्रधान देवों के रूप में भी होती है।
[[लोकदेवता]] के रूप में अष्ट [[लोकपाल|लोकपालों]] की विशेष मान्यता है। इनमें अधिकांश वैदिक देवता है जो पौराणिक युग में अपना पूर्वमहत्व खोकर अष्टदिक्पालों की
नाम--- आयुध और मुद्रा--- वाहन
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== देवियाँ ==
भारतीय देवताओं की तरह देवियों की भी संख्या असंख्य है। प्राय: सभी देवताओं की शक्तियाँ उनकी पत्नियों के रूप में प्रसिद्ध हैं। बहुत सी देवियों की अपनी स्वतंत्र सत्ता है और उनके आधार पर संप्रदाय भी संचालित हुए। किंतु [[मत्स्यपुराण]] में लोकदेवियों के रूप में लगभग दो सौ देवियों की सूची है। इसी प्रकार काश्यप संहिता, रेवती कल्प में भी देवियों की सूची है। मूर्तिशास्त्र की दृष्टि से देवपत्नी के रूप में देवियों का स्वरूप प्राय: उनके देवता के अनुरूप ही होता है अथवा वे अपने देवता के ही आयुध, मुद्रा और प्रतीक स्वीकार करती हैं। किंतु देवियों के कुछ विशिष्ट स्वरूप भी
सरस्वती का पूजन विद्या की अधिष्ठात्री देवी के रूप मेंश् होता है। इनकी प्रतिमा ब्रह्मा के साथ पत्नी रूप में भी बनती है और पृथक् रूप में भी। सरस्वती चतुर्भुजी हैं और उनके आयुध पुस्तक, अक्षमाला, वीणा या कमंडलु हैं। एक हाथ प्राय: वरद मुद्रा में रहता है। कमंडलु का विधान ब्रह्मा की पत्नी के रूप में है किंतु पृथक् प्रतिमा में सरस्वती के हाथ में वीणा ही रहती है और कभी कभी कमल रहता है। इनका वाहन हंस है। महाविद्या सरस्वती के रूप में देवी के आयुध अक्षा, अब्ज, वीणा और पुस्तक हैं। मध्यकालीन ध्यान और मूर्तिविधान में एक सरस्वती के आधार पर दश या द्वादश सरस्वतियों की कल्पना महाविद्या, महावाणी, भारती, सरस्वती, आर्या, ब्राह्मी, महाधेनु, वेदगर्भा, ईश्वरी, महलक्ष्मी, महकाली और महासरस्वती के नाम से भी की गई है।
शिव की पत्नी [[गौरी]] मूर्तिशास्त्र में अनेक नाम और आयुधों से जानी जाती हैं। द्वादश गौरी की सूची में उमा, पार्वती, गौरी, ललिता, श्रियोत्तमा, कृष्णा, हेमवती, रंभा, सावित्री, श्रीखंडा, तोतला और त्रिपुरा के नाम से प्रसिद्ध हैं।
देवियों में आदि शक्ति के रूप में [[कात्यायनी]] की बड़ी महिमा है। इन्हें चंडी, अंबिका, दुर्गा, महिषासुरमर्दिनी आदि नामों से जाना जाता है। सामान्यतया कात्यायनी देवी दशभुजी हैं अैर इनके दाहिने हाथों में त्रिशूल, खड्ग, चक्र, वाण और शक्ति तथा बाएँ हाथों में खेटक, चाप, पाश, अंकुश और घंटा है। ग्रंथभेद से कात्यायनी के आयुधभेद भी कहे गए हैं। महिषासुर मर्दिनी के रूप में कत्यायनी का स्वरूप उनके सामान्य स्वरूप से थोड़ा भिन्न हो जाता है; अर्थात् सिंहारूढ़ देवी त्रिभंगमुद्रा में दैत्य का संहार करती हैं, एक पैर से उसे पदाक्रांत करती हैं और दो हाथों में शूल पकड़े हुए उसे दैत्य की छाती में चुभोती हैं। इनके आठ प्रतिहार हैं जिनके नाम बेताल, कोटर, पिंगाक्ष, भृकुटि, धुम्रक, कंकट, रक्ताक्ष और सुलोचन अथवा त्रिलोचन हैं। चामुंडा या काली क्रोध की प्रतिमूर्ति हैं। इनका रूप क्रूर है, शरीर में मांस नहीं है और मुख विकृत है। आँखें लाल और केश पीले हैं। इनका वाहन शव और वर्ण कला है। भुजंग भूषण है और वे कपाल की माला धारण करती हैं। किंतु चामुंडा के रूप में देवी की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह कृशोदरी हैं। मूर्तिशास्त्रीय परंपरा के अनुसार ये षोडशभुजी हैं तथा इनके आयुध त्रिशूल, खेटक, खड्ग, धनुष, अंकुश, शर, कुठार, दर्पण, घटा, शंख, वस्त्र, गदा, वज्र, दंड और मुद्गर हैं। चामुंडा के रूप में देवी का स्वरूप, जैसा उपलब्ध मूर्तियों से पता चलता है, द्विभुज और चतुर्भुज भी है।
'''मातृकाएँ''' भारतीय मूर्तिविधान और उपासना परंपरा में विशेष मान्यता रखती हैं। इनकी संख्या ग्रंथभेद से सात, आठ और सोलह तक गिनाई गई है। सामान्यतया सप्तमातृकाएँ ही विशेष मान्यता प्राप्त हैं और इनमें ब्राम्ही, महेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वारही, इंद्राणी और चामुंडा की गणना होती है। सप्तमातृका पट्ट में आरंभ में गणेश और अंत में वीरेश्वर या वीरभद्र भी स्थान पाते हैं। विकल्प से कभी कभी चामुंडा की जगह नारसिंही स्थान पाती हैं। किंतु अष्टमातृका पट्ट में चामुंडा और नारसिंही दोनों का हीं अंकन होता है।
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== जैन देवीदेवता ==
जैनियों के देववाद में
संप्रदायभेद से तीर्थंकरों के लांछन आदि में कुछ भेद भी बताया गया है। जिनों के अष्ट प्रतिहारों के नाम इंद्र, इंद्रजय, महेंद्र, विजय, धरणेंद्र, पद्मक, सुनाभ और सुरदुंदुभि है। कुछ गौण देवताओं का वर्गीकरण ज्योतिषी, भुवनवासी, व्यंतरवासी और विमानवासी के अंतर्गत किया गया है। इनमें ईशान ब्रह्मा आदि विमानवासी, यक्ष त्यंतरवासी, दिक्पाल भुवनवासी और नक्षत्रादि ज्योतिष कोटि के देवता हैं।
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