"मित्र वरुण": अवतरणों में अंतर

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जल के निर्माता के रूप में इनका वेदों में वर्णन है । उदारण के लिए, ऋग्वेद १.२.७ का पाठ है -
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ऋग्वेद १.२.७ का पाठ है -
'''मित्रं हुवे पूतदक्षं वरुणं च रिशादसम । धियं घृताचीं साधन्ता ।।'''
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अर्थात् ('''पूतदक्षं मित्रम्''') पवित्र करने में दक्ष मित्र ('''रिशादशं वरुणं च''') और ख़राब करने वाले वरुण को भी मैं ग्रहण करूँ, ('''घृताचीं धियं साधन्ता''') चे दोनों पानी का निर्माण या प्रमाण करते हैं ।
 
और ऋग्वेद में ७.३३.११ में आया है कि
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'''उतासि मैत्रावरुणो वशिष्ठोर्वश्या ब्रह्मन्मनसो अधिजातः । द्रप्सं स्कन्नं ब्रह्मणा दैव्येन विश्वेदेवाः पुष्करे त्वादद्रन्त ।।'''</p>
द्रप्सं स्कन्नं ब्रह्मणा दैव्येन विश्वेदेवाः पुष्करे त्वादद्रन्त ।।'''</p>
 
अर्थात् ('''वसिष्ठ उत मैत्रावरुणः असि''') हे वासकतम जल, तू मित्र-वरुण का है या उनसे बना है, ('''ब्रह्मन् उर्वश्याः मनसः अधिजातः''') अन्नदाता! तू विद्युत के सामर्थ्य से उत्पन्न हुआ है (द्रप्सं स्कन्नं त्वा) जल के रूप में परिणत, तुझको विद्वानों के अन्न हेतु सूर्यकिरणें अंतरिक्ष में धारण करती हैं ।