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महाप्रभु [[वल्लभाचार्य]] ने पुष्टि-मार्ग की स्थापना की और विष्णु के कृष्णावतार की उपासना करने का प्रचार किया। आपके द्वारा जिस लीला-गान का उपदेश हुआ उसने देशभर को प्रभावित किया। अष्टछाप के सुप्रसिध्द कवियों ने आपके उपदेशों को मधुर कविता में प्रतिबिंबित किया।
 
इसके उपरांत माध्व तथा निंबार्क संप्रदायों का भी जन-समाज पर प्रभाव पड़ा है। साधना-क्षेत्र में दो अन्य संप्रदाय भी उस समय विद्यमान थे। नाथों के योग-मार्ग से प्रभावित संत संप्रदाय चला जिसमें प्रमुख व्यक्तित्व संत कबीरदास का है। मुसलमान कवियों का सूफीवाद हिंदुओं के विशिष्टाद्वैतवाद से बहुत भिन्न नहीं है। कुछ भावुक मुसलमान कवियों द्वारा सूफीवाद से रंगी हुई उत्तम रचनाएं लिखी गईं।
 
संक्षेप में भक्ति-युग की चार प्रमुख काव्य-धाराएं मिलती हैं :
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== परिचय ==
तेरहवीं सदी तक धर्म के क्षेत्र में बड़ी अस्तव्यस्तता आ गई। जनता में सिद्धों और योगियों आदि द्वारा प्रचलित अंधविश्वास फैल रहे थे, शास्त्रज्ञानसंपन्न वर्ग में भी रूढ़ियों और आडंबर की प्रधानता हो चली थी। मायावाद के प्रभाव से लोकविमुखता और निष्क्रियता के भाव समाज में पनपने लगे थे। ऐसे समय में भक्तिआंदोलन के रूप में ऐसा भारतव्यापी विशाल सांस्कृतिक आंदोलन उठा जिसने समाज में उत्कर्षविधायक सामाजिक और वैयक्तिक मूल्यों की प्रतिष्ठा की।
 
भक्ति आंदोलन का आरंभ दक्षिण के आलवार संतों द्वारा दसवीं सदी के लगभग हुआ। वहाँ शंकराचार्य के अद्वैतमत और मायावाद के विरोध में चार वैष्णव संप्रदाय खड़े हुए। इन चारों संप्रदायों ने उत्तर भारत में विष्णु के अवतारों का प्रचारप्रसार किया। इनमें से एक के प्रवर्तक रामानुजाचार्य थे, जिनकी शिष्यपरंपरा में आनेवाले रामानंद ने (पंद्रहवीं सदी) उत्तर भारत में रामभक्ति का प्रचार किया। रामानंद के राम ब्रह्म के स्थानापन्न थे जो राक्षसों का विनाश और अपनी लीला का विस्तार करने के लिए संसार में अवतीर्ण होते हैं। भक्ति के क्षेत्र में रामानंद ने ऊँचनीच का भेदभाव मिटाने पर विशेष बल दिया। राम के सगुण और निर्गुण दो रूपों को माननेवाले दो भक्तों - कबीर और तुलसी को इन्होंने प्रभावित किया। विष्णुस्वामी के शुद्धाद्वैत मत का आधार लेकर इसी समय बल्लभाचार्य ने अपना पुष्टिमार्ग चलाया। बारहवीं से सोलहवीं सदी तक पूरे देश में पुराणसम्मत कृष्णचरित्‌ के आधार पर कई संप्रदाय प्रतिष्ठित हुए, जिनमें सबसे ज्यादा प्रभावशाली वल्लभ का पुष्टिमार्ग था। उन्होंने शांकर मत के विरुद्ध ब्रह्म के सगुण रूप को ही वास्तविक कहा। उनके मत से यह संसार मिथ्या या माया का प्रसार नहीं है बल्कि ब्रह्म का ही प्रसार है, अत: सत्य है। उन्होंने कृष्ण को ब्रह्म का अवतार माना और उसकी प्राप्ति के लिए भक्त का पूर्ण आत्मसमर्पण आवश्यक बतलाया। भगवान्‌ के अनुग्रह या पुष्टि के द्वारा ही भक्ति सुलभ हो सकती है। इस संप्रदाय में उपासना के लिए गोपीजनवल्लभ, लीलापुरुषोत्तम कृष्ण का मधुर रूप स्वीकृत हुआ। इस प्रकार उत्तर भारत में विष्णु के [[राम]] और [[कृष्ण]] [[अवतार|अवतारों]] प्रतिष्ठा हुई।
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भाषा : रामकाव्य में मुख्यत: अवधी भाषा प्रयुक्त हुई है। किंतु ब्रजभाषा भी इस काव्य का श्रृंगार बनी है। इन दोनों भाषाओं के प्रवाह में अन्य भाषाओं के भी शब्द आ गए हैं। बुंदेली, भोजपुरी, फारसी तथा अरबी शब्दों के प्रयोग यत्र-तत्र मिलते हैं। रामचरितमानस की अवधी प्रेमकाव्य की अवधी भाषा की अपेक्षा अधिक साहित्यिक है।
छंद : रामकाव्य की रचना अधिकतर दोहा-चौपाई में हुई है। दोहा चौपाई प्रबंधात्मक काव्यों के लिए उत्कृष्ट छंद हैं। इसके अतिरिक्त कुण्डलिया, छप्पय, कवित्त , सोरठा , तोमर ,त्रिभंगी आदि छंदों का प्रयोग हुआ है।
अलंकार : रामभक्त कवि विद्वान पंडित हैं। इन्होंने अलंकारों की उपेक्षा नहीं की। तुलसी के काव्य में अलंकारों का सहज और स्वाभाविक प्रयोग मिलता है। उत्प्रेक्षा, रूपक और उपमा का प्रयोग मानस में अधिक है।
 
== ज्ञानाश्रयी शाखा ==
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शास्‍त्रीय दृष्‍टि से उपर्युक्‍त सभी प्रश्‍न ‘निर्गुण-भक्‍ति‘ के स्‍वरूप को ताल ठोंककर चुनौती देते हुए प्रतीत होते हैं। [[कबीर]] आदि संतों की दार्शनिक विवेचना करते समय आचार्य [[रामचन्‍द्र शुक्ल]] ने यह मान्‍यता स्‍थापित की है कि उन्‍होंने निराकार ईश्‍वर के लिए भारतीय [[वेदान्‍त]] का पल्‍ला पकड़ा है।इस सम्‍बन्‍ध में जब हम [[आदि शंकराचार्य|शांकर अद्वैतवाद]] एवं संतों की निर्गुण भक्‍ति के तुलनात्‍मक पक्षों पर विचार करते हैं तो उपर्युक्‍त मान्‍यता की सीमायें स्‍पष्‍ट हो जाती हैं:
 
*(क) शांकर अद्वैतवाद में भक्‍ति को साधन के रूप में स्‍वीकार किया गया है, किन्‍तु उसे साध्‍य नहीनहीं माना गया है। संतों ने (सूफियों ने भी) भक्‍ति को साध्‍य माना है।
 
*(ख) शांकर अद्वैतवाद में मुक्‍ति के प्रत्‍यक्ष साधन के रूप में ‘ज्ञान' को ग्रहण किया गया है। वहाँ मुक्‍ति के लिए भक्‍ति का ग्रहण अपरिहार्य नहीं है। वहाँ भक्‍ति के महत्‍व की सीमा प्रतिपादित है। वहाँ भक्‍ति का महत्‍व केवल इस दृष्‍टि से है कि वह अन्‍तःकरण के मालिन्‍य का प्रक्षालन करने में समर्थ सिद्ध होती है। भक्‍ति आत्‍म-साक्षात्‍कार नहीं करा सकती, वह केवल आत्‍म साक्षात्‍कार के लिए उचित भूमिका का निर्माण कर सकती है। संतों ने अपना चरम लक्ष्‍य आत्‍म साक्षात्‍कार या भगवद्‌-दर्शन माना है तथा भक्‍ति के ग्रहण को अपरिहार्य रूप में स्‍वीकार किया है क्‍योंकि संतों की दृष्‍टि में भक्‍ति ही आत्‍म-साक्षात्‍कार या भगवद्‌दर्शन कराती है।