"अहले सुन्नत वल जमात": अवतरणों में अंतर

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बरेलवी मुहीम, देओबंदी मुहिम [[दक्षिण एशिया]] में [[सूफीवाद|सूफी आंदोलन]] के अंतर्गत एक उप-आंदोलन को कहा जाता है यह अहले सुन्नत वल जमात से निकली एक मुहिम हैं जिसे उन्नीसवीं एवं बीसवीं सदी के [[भारत]] में [[रोहेलखंड]] स्थित [[बरेली]] से [[सुन्नी]] विद्वान [[अहमद रजा खान कादरी]] ने प्रारंभ किया था,। बरेलवी [[सुन्‍नी हनफी बरेलवी मुसलमान|सुन्‍नी हनफी बरेलवी मुसलमानों]] का एक बडा हिस्सा है जो अब बडी संख्या में [[भारत]], [[बांग्लादेश]], [[पाकिस्तान]] [[दक्षिण अफ्रीका]] एवं [[ब्रिटेन]] में संघनित हैं। आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा कादरी ने अपनी प्रसिद्ध फतवा रजविया के माध्यम से भारत में पारंपरिक और रूढ़िवादी इस्लाम का बचाव करते हुए अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। देवबंदी मुहीम को वास्तव में इस्माइल देहलवी ने वहाबी सम्प्रदाए के संस्थापक मुहम्मद बिन अब्दुल वहाब से प्रभावित होकर शुरू किया था।देवबंदियों के बड़े आलिमो क़ासिम नानोतवी,अशरफ अली थानवी,खलील अम्बेठवी ने सऊदी अरब की वहाबियत को तक़लीद का जामा पहना कर इसे दक्षिण एशियाई मुसलमानो के सामने प्रस्तुत किया। दक्षिण एशिया के ज़्यादातर सुन्नी बरेलवी होते हैं।देओबंदी भी खासी तादाद में है।
[[अहले हदीस]] वो सुन्नी है जो सूफिज्म में विश्वास नहीं करते इन्हें सलफ़ी भी कहा जाता हैं क्यों की ये इस्लाम को उस तरह समझने और मानाने का दावा करते हैं हैं जिस तरह सलफ(पहले ३०० साल के मुस्लमान) ने क़ुरान और सुन्नत को समझा, सलफ़ी सुन्नी उर्फ़ अहले हदीस ज़यादातर सऊदी अरब और क़तर में हैं। ये किसी इमाम की तक़लीद नही करते असल ये सुन्नी हैं ।ऐसा कहा जाता हैं कि पूरे विश्व के मुसलमानो में कट्टरपंथ फ़ैलाने का काम देओबंदी और सलाफी विचारधारा ने किया है।
जर्मनी की गुप्तचर सेवा और आतंक निरोधक एजेंसी के मुताबिक ज़्यादातर सलाफी और देओबंदी इसके खिलाफ हैं और शांतिपूर्ण हैं , सिर्फ इस्लाम और राजनीति को एक नज़र से देखने वाले ही इस तरह की संदिगद गतिविधियों में लिप्त पाए जाते हैं ,इसका एक अच्छा उदाहरण जमात ए इस्लामी हैं जिसमे वो सलाफी और देओबंदी दोनो जुड़ जाते हैं जो इस्लाम को राजनीतिक स्वरूप में लाना चाहते हैं और उसके मुताबिक ही कानून बनाना चाहते हैं । ये लोग खिलाफत लाना चाहते हैं किसी भी हाल में
और पूरे दुनिया के मुसलमानों के लिए एक खलीफा बनाना चाहते हैं
और इसी वजह से खुद कई अहले हदीस उर्फ सलाफी और देओबंदी उलेमा जमाते इस्लामी के खिलाफ रहते हैं ये कह कर की उनकी सोच सही हैं पर उसको पाने के तरीका गलत हैं
 
1744 के बाद एक बार फिर से 1925 में अरब पर सऊद शाही परिवार और सलाफियों द्वारा कब्ज़ा हो गया और ओटोमन साम्राज्य ढ़ह गया और शाही अल सऊद खानदान के नाम पर सऊदी अरब नाम रख दिया गया और धार्मिक व ऐतिहासिक महत्व की विरासतों को मूर्तिपूजा(शिर्क) की संज्ञा देकर ढहा दिया गया जिसमे सैय्यदा फातिमा की मज़ार और उस्मान गनी की मज़ार शामिल है।