"विश्वामित्र": अवतरणों में अंतर

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प्रचार सामग्री
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अपनी सेना तथा पुत्रों के के नष्ट हो जाने से विश्वामित्र बड़े दुःखी हुये। अपने बचे हुये पुत्र को राज सिंहासन सौंप कर वे तपस्या करने के लिये हिमालय की कन्दराओं में चले गये। कठोर तपस्या करके विश्वामित्र जी ने [[महादेव]] जी को प्रसन्न कर लिया ओर उनसे दिव्य शक्तियों के साथ सम्पूर्ण धनुर्विद्या के ज्ञान का वरदान प्राप्त कर लिया।
 
== [https://sa.wikisource.org/s/fno महर्षि वशिष्ठ से प्रतिशोध] ==
 
इस प्रकार सम्पूर्ण धनुर्विद्या का ज्ञान प्राप्त करके विश्वामित्र बदला लेने के लिये वशिष्ठ जी के आश्रम में पहुँचे। उन्हें ललकार कर विश्वामित्र ने अग्निबाण चला दिया। वशिष्ठ जी ने भी अपना धनुष संभाल लिया और बोले कि मैं तेरे सामने खड़ा हूँ, तू मुझ पर वार कर। आज मैं तेरे अभिमान को चूर-चूर करके बता दूँगा कि क्षात्र बल से ब्रह्म बल श्रेष्ठ है। क्रुद्ध होकर विश्वामित्र ने एक के बाद एक आग्नेयास्त्र, वरुणास्त्र, रुद्रास्त्र, ऐन्द्रास्त्र तथा पाशुपतास्त्र एक साथ छोड़ दिया जिन्हें वशिष्ठ जी ने अपने मारक अस्त्रों से मार्ग में ही नष्ट कर दिया। इस पर विश्वामित्र ने और भी अधिक क्रोधित होकर मानव, मोहन, गान्धर्व, जूंभण, दारण, वज्र, ब्रह्मपाश, कालपाश, वरुणपाश, पिनाक, दण्ड, पैशाच, क्रौंच, धर्मचक्र, कालचक्र, विष्णुचक्र, वायव्य, मंथन, कंकाल, मूसल, विद्याधर, कालास्त्र आदि सभी अस्त्रों का प्रयोग कर डाला। वशिष्ठ जी ने उन सबको नष्ट करके उन्होंने ब्रह्मास्त्र छोड़ दिया। ब्रह्मास्त्र के भयंकर ज्योति और गगनभेदी नाद से सारा संसार पीड़ा से तड़पने लगा। सब ऋषि-मुनि उनसे प्रार्थना करने लगे कि आपने विश्वामित्र को परास्त कर दिया है। अब आप ब्रह्मास्त्र से उत्पन्न हुई ज्वाला को शान्त करें। इस प्रार्थाना से द्रवित होकर उन्होंने ब्रह्मास्त्र को वापस बुलाया और मन्त्रों से उसे शान्त किया।
पंक्ति 25:
पराजित होकर विश्वामित्र मणिहीन सर्प की भाँति पृथ्वी पर बैठ गये और सोचने लगे कि निःसन्देह क्षात्र बल से ब्रह्म बल ही श्रेष्ठ है। अब मैं तपस्या करके ब्राह्मण की पदवी और उसका तेज प्राप्त करूँगा। इस प्रकार विचार करके वे अपनी पत्नीसहित दक्षिण दिशा की और चल दिये। उन्होंने तपस्या करते हुये अन्न का त्याग कर केवल फलों पर जीवनयापन करना आरम्भ कर दिया। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर [[ब्रह्मा]] जी ने उन्हें राजर्षि का पद प्रदान किया। इस पद को प्राप्त करके भी, यह सोचकर कि ब्रह्मा जी ने मुझे केवल राजर्षि का ही पद दिया महर्षि-देवर्षि आदि का नहीँ, वे दुःखी ही हुये। वे विचार करने लगे कि मेरी तपस्या अब भी अपूर्ण है। मुझे एक बार फिर से घोर तपस्या करना चाहिये।"
 
== [https://sa.wikisource.org/s/fi4 त्रिशंकु की स्वर्गयात्रा] ==
[[चित्र:Indra prevents Trisanku from ascending to Heaven in physical form.jpg|thumb|Indra prevents Trisanku from ascending to Heaven in physical form]]
इस बीच इक्ष्वाकु वंश में [[त्रिशंकु]] नाम के एक राजा हुये। त्रिशंकु सशरीर स्वर्ग जाना चाहते थे अतः इसके लिये उन्होंने वशिष्ठ जी अनुरोध किया किन्तु वशिष्ठ जी ने इस कार्य के लिये अपनी असमर्थता जताई। त्रिशंकु ने यही प्रार्थना वशिष्ठ जी के पुत्रों से भी की,जो दक्षिण प्रान्त में घोर तपस्या कर रहे थे। वशिष्ठ जी के पुत्रों ने कहा कि जिस काम को हमारे पिता नहीं कर सके तू उसे हम से कराना चाहता है। ऐसा प्रतीत होता है कि तू हमारे पिता का अपमान करने के लिये यहाँ आया है। उनके इस प्रकार कहने से त्रिशंकु ने क्रोधित होकर वशिष्ठ जी के पुत्रों को अपशब्द कहे। वशिष्ठ जी के पुत्रों ने रुष्ट होकर त्रिशंकु को चाण्डाल हो जाने का शाप दे दिया।
पंक्ति 37:
इन्द्र की बात सुन कर विश्वामित्र जी बोले कि मैंने इसे स्वर्ग भेजने का वचन दिया है इसलिये मेरे द्वारा बनाया गया यह स्वर्ग मण्डल हमेशा रहेगा और त्रिशंकु सदा इस नक्षत्र मण्डल में अमर होकर राज्य करेगा। इससे सन्तुष्ट होकर इन्द्रादि देवता अपने अपने स्थानों को वापस चले गये।
 
==[https://sa.wikisource.org/s/15h विश्वामित्र काको ब्राह्मणत्व की प्राप्ति यज्ञ]==
एक बार विश्वामित्र ने सिद्धि हेतु एक यज्ञ का अनुष्ठान किया परन्तु बहुत प्रयत्न करने पर भी वह यज्ञ पूर्णता को प्राप्त न हो सका क्योंकि यज्ञ की पूर्णता के समय रावण द्वारा प्रेरित हुए मारीच और सुबाहु नामक दो राक्षस अपने सहयोगियों के साथ आकर उस यज्ञ में विघ्न उपस्थित कर देते। अतः यज्ञ की पूर्णता हेतु एक दिन विश्वामित्र अयोध्यापति दशरथ के पास गए और उनसे उनके ज्येष्ठ पुत्र राम की याचना की। राम की किशोरावस्था तथा राक्षसों की प्रबलता को ध्यान में रखते हुए दशरथ ने विश्वामित्र के साथ राम को भेजने में अपनी असमर्थता व्यक्त की परन्तु बाद में वसिष्ठ जी के समझाने पर पुत्र-हित को भी ध्यान में रखते हुए उन्होंने राम और लक्ष्मण को विश्वामित्र को सौंप दिया।
अयोध्या से निकलकर विश्वामित्र ने राम को बला और अतिबला नामक दो विद्याएँ प्रदान की जो ब्रह्मा जी की तेजस्विनी पुत्रियां थी। राम ने भी विश्वामित्र के आदेशानुसार सरयू के जल से आचमन करके बला और अतिबला नामक दोनों विद्याओं को ग्रहण किया।
मार्ग में जाते समय विश्वामित्र ने राम के प्रश्नों का समाधान करते हुए उन्हें सरयू-गंगा संगम के समीप निर्मित पुण्य आश्रम का परिचय दिया, संगम के जल में उठती हुई तुमुल ध्वनि के कारण को स्पष्ट किया, मलद और करूष जनपदों को समझाया तथा ताटका वन का परिचय देते हुए ताटका की उत्पत्ति का वर्णन किया। उन्होंने बताया कि सुकेतु यक्ष की यक्षिणी कन्या ताटका ही सुन्द नामक दैत्य से विवाह करके राक्षसी ताटका बन गई और उसके मारीच तथा सुबाहु नामक दो पुत्र हुए। ये सब मिलकर ऋषि अगस्त्य जी के सुन्दर देश को उजाडने के कारण अगस्त्य द्वारा भी शापित होकर राक्षस भाव को प्राप्त हुए।
ताटका वन में पहुँचकर विश्वामित्र ने राम को मारीच तथा सुबाहु की माता ताटका की गति को अवरुद्ध करते हुए उसका वध करने की आज्ञा दी, अतः राम ने ताटका का वध कर दिया। ताटका-वध से प्रसन्न हुए विश्वामित्र ने राम को अनेकानेक दिव्यास्त्र प्रदान किए जो प्रजापति दक्ष की जया और सुप्रभा नामक दो कन्याओं के पुत्र थे। राम ने सभी दिव्यास्त्रों को अपने मन में धारण कर लिया और उन दिव्यास्त्रों से आवश्यकता के समय मन में उपस्थित होकर सहायता करने का आग्रह किया।
ताटका वन से बाहर निकलकर राम और लक्ष्मण विश्वामित्र की यज्ञस्थली और वामन भगवान् की निवासस्थली सिद्धाश्रम में पहुंचे तथा विश्वामित्र के यज्ञ में दीक्षित हो जाने पर उस यज्ञ की रक्षा करने लगे। लक्ष्मण की सहायता से राम ने यज्ञ का विध्वंस करने वाले मारीच और सुबाहु नामक राक्षसों में से मारीच को तो एक ही बाण से सौ योजन दूर समुद्र में फेंक दिया और सुबाहु को उसकी सेना सहित मार डाला।
 
 
== [https://sa.wikisource.org/s/11y विश्वामित्र को ब्राह्मणत्व की प्राप्ति] ==
 
देवताओं के चले जाने के बाद विश्वामित्र भी ब्राह्मण का पद प्राप्त करने के लिये पूर्व दिशा में जाकर कठोर तपस्या करने लगे‌।‌ इस तपस्या को भ़ंग करने के लिए नाना प्रकार के विघ्न उपस्थित हुए किन्तु उन्होंने बिना क्रोध किये ही उन सबका निवारण किया। तपस्या की अवधि समाप्त होने पर जब वे अन्न ग्रहण करने के लिए बैठे, तभी ब्राह्मण भिक्षुक के रूप में आकर इन्द्र ने भोजन की याचना की। विश्वामित्र ने सम्पूर्ण भोजन उस याचक को दे दिया और स्वयं निराहार रह गये। इन्द्र को भोजन देने के पश्चात विश्वामित्र के मन में विचार आया कि सम्भवत: अभी मेरे भोजन ग्रहण करने का समय नहीं आया है इसीलिये याचक के रूप में यह विप्र उपस्थित हो गया,मुझे अभी और तपस्या करना चाहिये। अतएव वे मौन रहकर फिर दीर्घकालीन तपस्या में लीन हो गये। इस बार उन्होंने प्राणायाम से श्वास रोक कर महादारुण तप किया। इस तप से प्रभावित देवताओं ने ब्रह्माजी से निवेदन किया कि भगवन्! विश्वामित्र की तपस्या अब पराकाष्ठा को पहुँच गई है। अब वे क्रोध और मोह की सीमाओं को पार कर गये हैं। अब इनके तेज से सारा संसार प्रकाशित हो उठा है। सूर्य और चन्द्रमा का तेज भी इनके तेज के सामने फीका पड़ गया है। अतएव आप प्रसन्न होकर इनकी अभिलाषा पूर्ण कीजिये।
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== स्रोत ==
वाल्मीकि रामायण में विश्वामित्र का यज्ञ
*[http://puranastudy.byethost14.com/pur_index26/vishwaa1.htm विश्वामित्र के यज्ञ का रहस्य]
*[http://puranastudy.byethost14.com/pur_index26/pva16.htm?i=1 विश्वामित्र के पौराणिक संदर्भ]
 
{{श्री राम चरित मानस}}