"ययाति": अवतरणों में अंतर

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:भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ताः<br />
:तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः।<br />
:कालो न यातो वयमेव याताः <br />
:तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः ॥
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:''' न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति |''' ''' हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते ||''' ''' ''' “पुत्र ! मैंने तुम्हारी जवानी लेकर अपनी रुचि, उत्साह और समय के अनुसार विष्यों का सेवन किया लेकिन विषयों की कामना उनके उपभोग से कभी शांत नहीं होती, अपितु घी की आहुति पड़ने पर अग्नि की भाँति वह अधिकाधिक बढ़ती  ही  जाती है |
: रत्नों से जड़ी हुई सारी पृथ्वी, संसार का सारा सुवर्ण, पशु और सुन्दर स्त्रियाँ, वे सब एक पुरुष को मिल जायें तो भी वे सबके सब उसके लिये पर्याप्त नहीं होंगे | अतः तृष्णा का त्याग कर देना चाहिए |
 
अर्थात, हमने भोग नहीं भुगते, बल्कि भोगों ने ही हमें भुगता है; हमने तप नहीं किया, बल्कि हम स्वयं ही तप्त हो गये हैं; काल समाप्त नहीं हुआ हम ही समाप्त हो गये; तृष्णा जीर्ण नहीं हुई, पर हम ही जीर्ण हुए हैं !
 
ययाति का अनुभव वस्तुतः बड़ा मार्मिक और मनुष्य जाति ले लिये हितकारी है | ययाति आगे कहते हैं : 
 
  “पुत्र ! देखो, मेरे एक हजार वर्ष विषयों को भोगने में बीत गये तो भी तृष्णा शांत नहीं होती और आज भी प्रतिदिन उन विषयों के लिये ही तृष्णा पैदा होती है |
 
''' '''
 
'''                पूर्णं वर्षसहस्रं मे विषयासक्तचेतसः |'''
 
'''                तथाप्यनुदिनं तृष्णा ममैतेष्वभिजायते ||'''
 
''' '''
 
  इसलिए पुत्र ! अब मैं विषयों को छोड़कर ब्रह्माभ्यास में मन लगाऊँगा | निर्द्वन्द्व तथा ममतारहित होकर वन में मृगों के साथ विचरूँगा | हे पुत्र ! तुम्हारा भला हो | तुम पर मैं प्रसन्न हूँ | अब तुम अपनी जवानी पुनः प्राप्त करो और मैं यह राज्य भी तुम्हें ही  अर्पण करता हूँ |
 
 इस प्रकार अपने पुत्र पुरु को राज्य देकर ययाति ने तपस्या हेतु वनगमन किया | उसी राजा पुरु से पौरव वंश चला | उसी वंश में परीक्षित का पुत्र राजा जन्मेजय पैदा हुआ था |
 
== सन्दर्भ ==
"https://hi.wikipedia.org/wiki/ययाति" से प्राप्त