"शिमला समझौता": अवतरणों में अंतर
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सन १९७१ में भारत-पाक युद्ध के बाद भारत के शिमला में एक संधि पर हस्ताक्षर हुए. इसे शिमला समझौता कहते हैं। इसमें भारत की तरफ से इंदिरा गांधी और पाकिस्तान की तरफ से जुल्फिकार अली भुट्टो शामिल
1972 में शिमला में भारत-पाकिस्तान के बीच हुआ ‘शिमला समझौता’ इसका बेहतरीन उदाहरण है। यह समझौता भारत और पाकिस्तान के बीच दिसम्बर 1971 में हुई लड़ाई के बाद किया गया था, जिसमें पाकिस्तान के 93000 से अधिक सैनिकों ने अपने लेफ्टिनेंट जनरल नियाजी के नेतृत्व में भारतीय सेना के सामने आत्मसमर्पण किया था और तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान को बंगलादेश के रूप में पाकिस्तानी शासन से मुक्ति प्राप्त हुई थी। यह समझौता करने के लिए पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो अपनी पुत्री बेनज़ीर के साथ 28 जून 1972 को शिमला पधारे। ये वही भुट्टो थे, जिन्होंने घास की रोटी खाकर भी भारत से हजार साल तक जंग करने की कसमें खायी थीं।
28 जून से 1 जुलाई तक दोनों पक्षों में कई दौर की वार्ता हुई परन्तु किसी समझौते पर नहीं पहुँच सके। इसके लिए पाकिस्तान की हठधर्मी ही मुख्य रूप से जिम्मेदार थी। तभी अचानक 2 जुलाई को लंच से पहले ही दोनों पक्षों में समझौता हो गया, जबकि भुट्टो को उसी दिन वापस जाना था। इस समझौते पर पाकिस्तान की ओर से भुट्टो और भारत की ओर से इन्दिरा गाँधी ने हस्ताक्षर किये थे। यह समझना कठिन नहीं है कि यह समझौता करने के लिए भारत के ऊपर किसी बड़ी विदेशी ताकत का दबाव था। इस समझौते से भारत को पाकिस्तान के सभी 93000 से अधिक युद्धबंदी छोड़ने पड़े और युद्ध में जीती गयी 5600 वर्ग मील जमीन भी लौटानी पड़े। इसके बदले में भारत को क्या मिला यह कोई नहीं जानता। यहाँ तक कि पाकिस्तान में भारत के जो 54 युद्धबंदी थे, उनको भी भारत वापस नहीं ले सका और वे 41 साल से आज भी अपने देश लौटने की प्रतीक्षा कर रहे हैं।
अपना सब कुछ लेकर पाकिस्तान ने एक थोथा-सा आश्वासन भारत को दिया कि भारत और पाकिस्तान के बीच कश्मीर सहित जितने भी विवाद हैं, उनका समाधान आपसी बातचीत से ही किया जाएगा और उन्हें अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर नहीं उठाया जाएगा। लेकिन इस अकेले आश्वासन का भी पाकिस्तान ने सैकड़ों बार उल्लंघन किया है और कश्मीर विवाद को पूरी निर्लज्जता के साथ अनेक बार अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर उठाया है। वास्तव में उसके लिए किसी समझौते का मूल्य उतना भी नहीं है, जितना उस कागज का मूल्य है, जिस पर वह समझौता लिखा गया है।
इस समझौते में भारत और पाकिस्तान के बीच यह भी तय हुआ था कि 17 दिसम्बर 1971 अर्थात् पाकिस्तानी सेनाओं के आत्मसमर्पण के बाद दोनों देशों की सेनायें जिस स्थिति में थीं, उस रेखा को ”वास्तविक नियंत्रण रेखा“ माना जाएगा और कोई भी पक्ष अपनी ओर से इस रेखा को बदलने या उसका उल्लंघन करने की कोशिश नहीं करेगा। लेकिन पाकिस्तान अपने इस वचन पर भी टिका नहीं रहा। सब जानते हैं कि 1999 में कारगिल में पाकिस्तानी सेना ने जानबूझकर घुसपैठ की और इस कारण भारत को कारगिल में युद्ध लड़ना पड़ा। हालांकि इस युद्ध में भी पाकिस्तान को मुँह की खानी पड़ी और अपनी पुरानी स्थिति में लौटना पड़ा, लेकिन हमारे हजारों सैनिकों को अपने प्राणों की बलि अकारण देनी पड़ी।
वास्तव में हमारे देश के शासक यह समझने में असफल रहे और अभी भी हैं कि पाकिस्तान दुनिया का सबसे अधिक अविश्वसनीय और झूठा देश है। इसका और इसके नेताओं का एक भी शब्द विश्वास करने लायक नहीं है। हम पाकिस्तान से चाहे जितनी वार्ताएँ कर लें, चाहे जितने समझौते कर लें, चाहे जितना व्यापार कर लें और चाहे जितनी क्रिकेट खेल लें, लेकिन भारत और पाकिस्तान के सम्बंधों में सुधार आने की रत्तीभर भी सम्भावना नहीं है। भारत और पाकिस्तान के बीच के सम्बंध हमेशा उसी प्रकार ‘मित्रतापूर्ण’ बने रहेंगे, जितने 1947 से आज तक रहते आये हैं।
लेकिन इतिहास हमें केवल यह सिखाता है कि हमने इतिहास से कभी कुछ नहीं सीखा। आज भी हमारी सरकार पाकिस्तान से लगातार बातचीत कर रही है। हर आतंकवादी घटना के बाद, जो वास्तव में पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित और समर्थित होती हैं, हमारे प्रधानमंत्री का रटा-रटाया बयान आता है कि ऐसी घटनाओं का दोनों देशों के बीच सम्बंधों पर कोई असर नहीं पड़ेगा और वार्ता (अनन्तकाल तक!) जारी रहेगी। आज पाकिस्तान चाहता है कि हम सियाचिन से अपनी सेनायें हटा लें। उसका मकसद अपने या भारत के खर्च या तनाव में कमी करना नहीं है, बल्कि असली मकसद वहाँ कारगिल की तरह चोरी-छिपे घुसपैठ करके उस इलाके का नियंत्रण अपने हाथ में कर लेने या चीन को सौंप देने का है। हालांकि अभी तक हमारी सेनाओं की कड़ाई के कारण सरकार इस झाँसे में नहीं आयी है, लेकिन इससे कब तक बची रहेगी, कोई नहीं जानता।
== इतिहास ==
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