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[[चित्र:Bhutanese painted thanka of the Jataka Tales, 18th-19th Century, Phajoding Gonpa, Thimphu, Bhutan.jpg|300px|thumb|right|जातक कथाओं पर आधारित भूटानी चित्रकला (१८वीं-१९वीं शताब्दी)]]
 
'''जातक''' या '''जातक पालि''' या '''जातक कथाएं''' [[बौद्ध ग्रंथ]] [[त्रिपिटक]] का [[सुत्तपिटक]] अंतर्गत [[खुद्दकनिकाय]] का १०वां भाग है। इन कथाओं में [[महात्मा बुद्ध]] के पूर्व जन्मों की कथायें हैं। विश्व की प्राचीनतम लिखित कहानियाँ जातक कथाएँ हैं जिसमें लगभग 600 कहानियाँ संग्रह की गयी है। यह ईसवी संवत से 300 वर्ष पूर्व की घटना है। इन कथाओं मेमें मनोरंजन के माध्यम से [[नीति]] और [[धर्म]] को समझाने का प्रयास किया गया है।
 
जातक [[खुद्दक निकाय]] का दसवाँ प्रसिद्ध ग्रन्थ है। जातक को वस्तुतः ग्रन्थ न कहकर ग्रन्थ समूह ही कहना अधिक उपयुक्त होगा। उसका कोई-कोई कथानक पूरे ग्रन्थ के रूप में है और कहीं-कहीं उसकी कहानियों का रूप संक्षिप्त महाकाव्य-सा है। जातक शब्द जन धातु से बना है। इसका अर्थ है भूत अथवा भाव। ‘जन्’ धातु में ‘क्त’ प्रत्यय जोड़कर यह शब्द निर्मित होता है। धातु को भूत अर्थ में प्रयुक्त करते हुए जब अर्थ किया जाता है तो जातभूत कथा एवं रूप बनता है। भाव अर्थ में प्रयुक्त करने पर जात-जनि-जनन-जन्म अर्थ बनता है। इस तरह ‘जातक’ शब्द का अ र्थ है, ‘जात’ अर्थात् जन्म-सम्बन्धीं। ‘जातक’ भगवान बुद्ध के पूर्व जन्म सम्बन्धी कथाएँ है। बुद्धत्व प्राप्त कर लेने की अवस्था से पूर्व भगवान् बुद्ध बोधिसत्व कहलाते हैं। वे उस समय बुद्धत्व के लिए उम्मीदवार होते हैं और दान, शील, मैत्री, सत्य आदि दस पारमिताओं अथवा परिपूर्णताओं का अभ्यास करते हैं। भूत-दया के लिए वे अपने प्राणों का अनेक बार बलिदान करते हैं। इस प्रकार वे बुद्धत्व की योग्यता का सम्पादन करते हैं। बोधिसत्व शब्द का अर्थ ही है बोधि के लिए उद्योगशील प्राणी। बोधि के लिए है सत्व (सार) जिसका ऐसा अर्थ भी कुछ विद्वानों ने किया है। पालि सुत्तों में हम अनेक बार पढ़ते हैं, ‘‘सम्बोधि प्राप्त होने से पहले, बुद्ध न होने के समय, जब मैं बोधिसत्व ही था‘‘ आदि। अतः बोधिसत्व से स्पष्ट तात्पर्य ज्ञान, सत्य दया आदि का अभ्यास करने वाले उस साधक से है जिसका आगे चलकर बुद्ध होना निश्चित है। भगवान बुद्ध भी न केवल अपने अन्तिम जन्म में बुद्धत्व-प्राप्ति की अवस्था से पूर्व बोधिसत्व रहे थे, बल्कि अपने अनेक पूर्व जन्मों में भी बोधिसत्व की चर्या का उन्होंने पालन किया था। जातक की कथाएँ भगवान् बुद्ध के इन विभिन्न पूर्वजन्मों से जबकि वे बोधिसत्व रहे थे , सम्बन्धित हैं। अधिकतर कहानियों में वे प्रधान पात्र के रूप में चित्रित है। कहानी के वे स्वयं नायक है। कहीं-कहीं उनका स्थान एक साधारण पात्र के रूप में गौण है और कहीं-कहीं वे एक दर्शक के रूप में भी चित्रित किये गये हैं। प्रायः प्रत्येक कहानी का आरम्भ इस प्रकार होता है-‘‘एक समय राजा ब्रह्मदत्त के वाराणसी में राज्य करते समय (अतीते वाराणसिंय बह्मदत्ते रज्ज कारेन्ते) बोधिसत्व कुरंग मृग की योनि से उत्पन्न हुए अथवा ... सिन्धु पार के घोड़ों के कुल में उत्पन्न हुए अथवा ..... बोधिसत्व ब्रह्मदत्त के अमात्य थे अथवा ..बोधिसत्व गोह की योनि सें उत्पन्न हुए आदि, आदि।
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शिल्पों का समाज में आदर था। वेश्याओं के प्रभूत वर्णन जातक में मिलते है, इस समय यह प्रथा विद्यमान थी। इसी प्रकार द्यूत का व्यसन भी प्रचलित था। विधुर पंडित जातक में हम धनंजय कोरव्य को जुआ खेलते देखते है। शासन में रिश्वत चलती थी। कणवेर जातक में हम एक कोतवाल को रिश्वत लेते देखते हैं। शकुनों में और फलित ज्योतिष में लोगों का विश्वास था। छींक आने को अपशकुन मानते थे और जब कोई छींकता था तो उससे लोग कहते थे ‘जियो’ या ‘चिंरजीव होओ’। सत्य क्रिया (सच्च किरिया) में लोगों का विश्वास था। मूगपक्ख जातक में हम देखते है कि काशिराज की रानी ने सत्य क्रिया के बल से सन्तान प्राप्त की। इसी प्रकार बट्टक जातक में कहा है कि एक बटेर के बच्चे ने अपने सत्य क्रिया बल से वृक्ष में लगी आग को बुझा दि या। वयः प्राप्त कुमारिकाओं को अपना वर खोजने की स्वतन्त्रता थी, ऐसा अम्ब जातक से पता चलता है। संकिच्च जातक में पत्नी को धनक्कीता कहा गया है। इससे पता चलता है कि कुछ विशेष अवस्थाओं में पति को कन्या के पिता को धन भी देना पड़ता था। उदय जातक से भी ऐसा ही मालूम पड़ता है।
 
जहाँ तक धार्मिक अवस्था का सम्बन्ध है, एक प्रकार का लोक-धर्म प्रचलित था। लोग यक्षों, वृक्षों, नागों, गरुड़ों और नदियों की पूजा करते थे। एक स्त्री को जो अपने पति से विछुड़ गई है, हम भागीरथी गंगा की स्तुति करते और उसकी शरण में जाते देखते हैं। परन्तु इससे यह निष्कर्ष निकालना ठीक नहीं कि एक प्रकार का भाग वत् धर्म लोगों में प्रचलित था। गोकुलदास दे ने इस बात को दिखाने का बड़ा प्रयास किया है, कि धर्म का जो स्वरूप जातककालीन समाज मेमें हम देखते हैं उसमें भागवत धर्म के तत्व विद्यमान हैं। जातककालीन समाज में एक प्रकार का लोकधर्म प्रचलित था। जिसमें साधारण जन-समाज के विश्वास और उसकी विभिन्न लौकिक और आध्यात्मिक आवश्यकताएँ समतल पर प्रतिबिम्बित थी। अर्थात पूजा, वन्दना, दान, देवताओं की शरणागति आदि की भावनाएँ प्रधान थी। जातक वस्तुतः प्राचीन भारतीय सामाजिक जीवन सम्बन्धी सूचनाओं का अगाध भण्डार ही हैं और उनका समग्रतया अध्ययन पालि साहित्य के इतिहास लेखक के लिए सम्भव नहीं है। यह अनेक महाग्रन्थों का विषय है।
 
बौद्ध धर्म के सभी सम्प्रदायों में जातक का महत्व सुप्रतिष्ठित है। महायान और हीनयान को वह एक प्रकार से जोड़ने वाली कड़ी है, क्योंकि महायान का बोधिसत्व आदर्श यहाँ अपने बीज-रूप में विद्यमान है। दूसरी-तीसरी शताब्दी ईसवी पूर्व के साँची और भरहुत के स्तूपों में जातक के अनेक दृश्य अंकित है। मिलिन्दपंहां में अनेक जातक कथाओं को उद्धृत किया गया है। अमरावती स्तूप द्वितीय शताब्दी ईसवी में उसके चित्र अंकित है। पाँचवी शताब्दी में लंका में उसके 500 दृश्य अंकित किये जा चुके थे। अजन्ता की चित्रकारी में भी महिस जातक (278) अंकित है। बोध गया में भी उसके अनेक चित्र अंकित है। जावा के बोरोबदूर स्तूप 9वीं शताब्दी ईसवी में बरमा के पगान नगर में स्थित पेगोडाओं (13 वीं शताब्दी ईसवी) में और सिआम में सुखोदय नामक प्राचीन नगर में जातक के अनेक दृश्य चित्रित मिले हैं। अतः जातक का महत्व भारत में ही नहीं, भारत के बाहर भी स्थविरवाद बौद्ध धर्म में ही नहीं बौद्ध धर्म के अन्य अनेक रूपों में भी प्रतिष्ठित है।
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इससे सिद्ध है कि जिस समय में अंश लिखे गये थे, ग्रीक और सिथियन लोग पंजाब के कुछ प्रदेशों पर अपना आधिपत्य जमा चुके थे। अतः रामायण के काफी अंश महाराज बिम्बिसार या बुद्ध के काल के बाद लिखे गये। महा भारत में इसी प्रकार एडूकों (बौद्ध मन्दिरों) का स्पष्ट उल्लेख है। बौद्ध विशेषण चातुर्महाराजिक भी वहाँ आया है। रोमक (रोमन) लोगों का भी वर्णन है। इसी प्रकार सिथियन और ग्रीक आदि लोगों का भी वर्णन है। आदि पर्व में महाराज अशोक को महासुर कहा गया है और महावीर्योऽपराजितः के रूप में उसकी प्रशंसा की गई है। शान्ति पर्व में विष्णुगुप्त कौटिल्य (द्वितीय शताब्दी ईसवीं पूर्व) के शिष्य कामन्दक का भी अर्थविद्या के आचार्य के रूप में उल्लेख है। इस प्रकार अनेक प्रमाणों के आधार पर सिद्ध है कि महाभारत के वर्तमान रूप का काफी अंश बुद्ध अशोक और कौटिल्य विष्णुगुप्त के बाद के युग का है। जातक की अनेक गाथाओं और रामायण के श्लोकों में अद्भुत समानता है। दसरथ जातक (461) और देवधम्म जातक (6) में हमें प्रायः राम-कथा की पूरी रूपरेखा मिलती है। जयद्दिस जातक (513) में राम का दण्डकारण्य जाना दिखाया गया है। इसी प्रकार साम जातक(540) की सदृशता रामायण 2. 63-25 से है और विण्टरनित्ज के मत में जातक का वर्णन अधिक सरल और प्रारम्भिक है। वेस्सन्तर जातक के प्रकृति वर्णन का साम्य इसी प्रकार वाल्मीकि के प्रकृति वर्णन से है और इस जातक की कथा के साथ राम की कथा में भी काफी सदृशता है। महाभारत के साथ जातक की तुलना अनेक विद्वानों ने की है। उनके निष्कर्षों को यहाँ संक्षिप्ततम रूप में भी रखना वास्तव में बड़ा कठिन है। महाजनक जातक (539) के जनक उपनिषदों और महाभारत के ही ब्राह्मज्ञानी जनक है। मिथिला के प्रासादों को जलते देखकर जनक ने कहा था मिथिलायां प्रदीप्तायां न में दह्यति किंचन। ठीक उनका यही कथन हमें महाजनक जातक (539) में भी मिलता है तथा कुम्भकार जातक (408) और सोणक जातक(529) में भी मिलता है। अतः दोनों व्यक्ति एक है।
 
इसी प्रकार ऋष्यशृर्घैं की पूरी कथा नकिनिका जातक(526) में है। युधिष्ठिर (युधिट्ठिल) और विदुर (विधूर) का संवाद दस ब्राह्मण जातक (495) में है। कुणाल जातक (536) में कृष्ण और द्रौपदी की कथा है। इसी प्रकार घट जातक(355) में कृष्ण द्वारा कंस-वध और द्वारका बसाने का पूरा वर्णन है। महाकण्ह जातक(469) निमि जातक(541) और महानारदकस्सप जातक(544) में राजा उशीनर और उसके पुत्र शिवि का वर्णन है। सिवि जातक (449) में भी राजा शिवि की दान पारमिता का वर्णन है, अपनी आँखों को दे देने के रूप में। अतः कहानी मूलतः बौद्ध है, इसमें सन्देह नहीं है। महाभारत में 100 ब्राह्मदत्तों का उल्लेख है। सम्भवतः ब्रह्मदत्त किसी एक राजा का नाम न होकर राजाओं का सामान्य विशेषण था, जिसे 100 राजाओं ने धारण किया। दुम्मेध जातक(50) में भी राजा और उसके कुमार दोनों का नाम ब्रह्मदत्त बताया गया है। इसी प्रकार गंगमाल जातक(421) मेमें कहा गया है कि ब्रह्मदत्त कुल का नाम है। सुसीम जातक(411), कुम्मासपिण्ड जातक(415), अट्ठान जातक(425), लोमासकस्सप जातक(433) आदि जातकों की भी, यही स्थिति है। अतः जातकों में आये हुए ब्रह्मदत्त केवल एक समय के पर्याय नहीं है। उनमें कुछ न कुछ ऐतिहासिकता भी अवश्य है।
 
रामायण और महाभारत के अतिरिक्त पतंजलि के महाभाष्य में भी जातक गाथाएँ उल्लिखित हैं। प्राचीन जन साहित्य में और बाद के कथा-साहित्य पर भी उसका प्रभाव उपलक्षित है। प्रथम शताब्दी ईसवी में गुणाढ्य ने पैशाची प्राकृत में अपनी वड्डकहा (बृहत्कथा) लिखी जो अाज अप्राप्त है। परन्तु सोमदेव ने जो स्वयं बौद्ध थे, ग्यारहवीं -बारहवीं शताब्दी में अपना कथासरित्सागर बृहत्कथा के आधार पर ही लिखा और उसमें अनेक कहानियों के मूल श्रोत भी जातक में दिखाई पड़ते है। इसी प्रकार हितोपदेश में भी अनेक कहानियाँ जातक कथाओं प र आधारित दिखाई जा सकती हैं। भारतीय लोक-साहित्य में भी अनेक जातक-कहानियों को अदृश्य रूप से खोजा जा सकता है। ऐसी कहानियाँ भारत के प्रत्येक प्रान्त में प्रचलित हैं। उदाहरणतः-‘‘सीख वाकूँ दीजिए, जाकूँ सीख सुहाइ। सीख न दीजै बानरा, बया कौ घर जाई‘‘ के रूप में बन्दर और बया की कहानी भारत के सब प्रदेशों में विदित है। बन्दर और बया की यह कहानी कूटिदूसक जातक (321) की कहानी है। इसी प्रकार कई अनेक कहानियों को मनोरंजकपूर्ण ढंग से खोजा जा सकता है।
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ग्रीक साहित्य में ई्सप की कहानियाँ प्रसिद्ध है। फ्रैंच, जर्मन और अंग्रेज विद्वानों की खोज से सिद्ध है कि ईसप एक ग्रीक थे। ईसप की कहानियों का यूरोपीय साहित्य पर बड़ा प्रभाव पड़ा है और विद्वानों के द्वारा यह दिखा दिया गया है कि ईसप की अधिकांश कहानियों का आधार जातक है।
 
सीहचम्म जातक (189) की कथा अति प्रसिद्ध है जो ईसप की कहानियों में भी पाई जाती है। सिंह की खाल ओढ़े हुए गधा इन दोनों जगह ही दिखाई पड़ता है। डॉ0 टी0 डब्ल्यू0 रायस डेविड्स का मत है कि शेक्सपियर ने अपने नाटक किंग जोन्ह में इस कथा की ओर संकेत किया है- अंक-2, दृश्य-1 तथा अंक 3 दृश्य 1 में। इसी प्रकार अलिफ लैला की कहानियों से भी जातक की समानताएँ है। समुग्ग जातक (436) का सीधा सम्बन्ध अलिफ लैला की एक कहानी से दिखाया गया है। कृतज्ञ पशु और अकृतज्ञ मनुष्यों की कहानियाँ जो सच्चं किर जातक (73) तक्कारिय जातक (481) आैर महाकवि जातक (516) में मिलती है। यूरोप की अनेक भाषाओं के कथा-साहित्य में बिखरी पड़ी है। इसी प्रकार अकृतज्ञ पत्नी की कहानी भी है, जो चूलपदुम जातक (193) मेंं आई है, प्रायः सारे यूरोप के कथा साहित्य में व्याप्त है। कच्छप जातक (215) की कहानी ग्रीक, लैटिन, अरबी, फारसी और अनेक यूरोपीय भाषाओं के साहित्य में पाई जाती है ऐसा रायस डेविड्स का कथन है। इसी प्रकार जम्बुखादक जातक (294) की कहानी है। पनीर के टुकड़े को लेकर गीदड़ और कौए की कहानी के रूप में यह यूरोप भर के बालकों को विदित है। महोसध जातक, दधिवाहन जातक और राजोवाद जातक की कहानियाँ भी इसी प्रकार यूरोपीय साहित्य में थोड़े बहुत रूपान्तर से पाई जाती है। अन्य अनेक कहानियों की भी तुलना विद्वानों ने जातक से की हैं। आठवीं शताब्दी में अरबों ने यूरोप पर आक्रमण किया। स्पेन और इटली आदि को उन्होंने रौंद डाला। उन्हीं के साथ जातक कहानियाँ भी इन देशों मेमें गईं और उन्होंने धीरे-धीरे सारे यूरोपीय साहित्य को प्रभावित किया। फ्रांस के मध्यकालीन साहित्य में पशु पक्षी सम्बन्धी कहानियों की अधिकता है। फ्रेंच विद्वानों ने उन पर जातक के प्रभाव को स्वीकार किया है।बायबिल और विशेषतः सन्त जोन्ह के सुसमाचार की अनेक कहानियों और उपमाओं की तुलना पालि, त्रिपिटक और विशेषतः जातक के इस सम्बन्धी विवरणों से विद्वानों ने की है। ईसाई धर्म पर बौद्ध धर्म का पर्याप्त प्रभाव पड़ा है। इस प्रभाव में अन्य अनेक तत्वों के अति रिक्त जातक का भी काफी सहयोग रहा है। इ्र्रसाई सन्त प्लेसीडस की तुलना निग्रोधमिग जातक (12) की कथा से की गई है। यद्यपि विण्टरनित्ज ने उसमें अधिक साम्य नहीं पाया है। पर सब से अधिक साम्य मध्ययुग की रचना बरलाम एण्ड जोसफत का जातक के बोधिसत्व से है। इस रचना में जो मू लतः छठीं या सातवीं शताब्दी ईसवी में पहलवी में लिखी गई थी। भगवान बुद्ध की जीवनी एक ईसाई सन्त के परिधान में वर्णित की गई है। बाद में इस रचना के अनुवाद अरब, सीरिया इटली और यूरोप की अन्य भाषाओं मेंं हुए। ग्रीक भाषा में इस रचना का अनुवाद आठवीं शताब्दी में अरब के खलीफा अलमंसूर के समकालिक एक ईसाई सन्त ने, जिसका नाम दमिश्क का सन्त जोन्ह (सेण्ट जोन्ह आव दमस्कस 676-749 ई0) था किया। ग्रीक से इस रचना का लैटिन में अनुवाद हुआ और फिर यूरोप की अन्य भाषाओं में अनुवाद हुआ। करीब 80 संस्करण इस रचना के यूरोप अफ्रीका और पश्चिमी एशिया की भाषाओं में हुए है। इस रचना में जोसफत बोधिसत्व के रूप में है और बरलाम उनके गुरु हैं। बुद्ध के जन्म की कथा बृद्ध, रोगी, मृत और प्रव्रजित को उनके द्वारा देखना और संन्यास लेना, ये सब तथ्य बुद्धचरित की शैली में यहाँ वर्णित है। बुद्ध के जन्म पर की गई भविष्यवाणी का भी वर्णन और पिता के द्वारा पुत्र को महल के अन्दर रखने का भी, ताकि यह संसार का दुःख न देख सके। जोसफत शब्द अरबी युदस्तफ का रूपान्तर है, जो स्वयं संस्कृत बोधिसत्व का अरबी अनुवाद है। बोधिसत्व शब्द पहले बोसत बना और फिर जोसफत या जोसफ। ईसाई धर्म में सन्त जोसफत को (जिनका न केवल नाम बल्कि पूरा जीवन बोधिसत्व बुद्ध का जीवन है) ईसाई सन्त के रूप में स्वीकार किया गया है। पोप सिक्सटस पंचम (1585-90) ने अपने 27 दिसम्बर सन् 1585 के आदेश में जोसफत और बरलाम को ईसाई सन्तों के रूप में स्वीकार किया है।
 
इस प्रकार ईसाई परिधान में मध्यकालीन यूरोप बोधिसत्व बुद्ध को पूजता रहा। मध्ययुगीन ईसाई यूरोप पर बौद्ध धर्म के प्रभाव का यह प्रतीक है। यह एक बड़ी अद्भुत किन्तु ऐतिहासिक रूप से सत्य बात है। डॉ0 टी0 डब्ल्यू0 रायस डेविड्स ने शेक्सपियर के मर्चेण्ट ऑव वेनिस में तीन डिबियों तथा आधसेर मांस के वर्णन में तथा एज यू लाइक इट में बहुमूल्य रत्नों के विवरण में जातक के प्रभाव को ढूँढ निकाला है एवं स्लेवोनिक जाति के साहित्य में तथा प्रायः सभी पूर्वी यूरोप के साहित्य में जातक के प्रभाव की विद्यमानता दिखाई है। भिक्षु शीलभद्र ने पर्याप्त उदाहरण देकर सिद्ध किया है कि निमि जातक (541) ही चौदहवीं शताब्दी के इटालियन कवि दाँते की प्रसिद्ध रचना का आधार है। जर्मन विद्वान बेनफे ने जातक को विश्व को कथा साहित्य का उद्गम कहा है जो तथ्यों के प्रकाश में अतिशयोक्ति नहीं कहा जा सकता है।