"भक्ति आन्दोलन": अवतरणों में अंतर

No edit summary
ऑटोमेटिक वर्तनी सु, replaced: → (11)
पंक्ति 1:
'''भक्ति आन्दोलन''' मध्‍यकालीन [[भारत]] का सांस्‍कृतिक इतिहास में एक महत्‍वपूर्ण पड़ाव था। इस काल में सामाजिक-धार्मिक सुधारकों की धारा द्वारा समाज विभिन्न तरह से भगवान की भक्ति का प्रचार-प्रसार किया गया। यह एक मौन क्रान्ति थी।
 
यह अभियान हिन्‍दुओं, मुस्लिमों और सिक्‍खों द्वारा भारतीय उप महाद्वीप में भगवान की पूजा के साथ जुड़े रीति रिवाजों के लिए उत्तरदायी था। उदाहरण के लिए, हिन्‍दू मंदिरों में कीर्तन, दरगाह में कव्‍वाली (मुस्लिमों द्वारा) और गुरुद्वारे में गुरबानी का गायन, ये सभी मध्‍यकालीन इतिहास में (800 - 1700) भारतीय भक्ति आंदोलन से उत्‍पन्‍न हुए हैं।
 
== इतिहास ==
पंक्ति 33:
== भक्ति आन्दोलन के बारे में विद्वानों के विचार ==
* '''[[बालकृष्ण भट्ट]]''' के लिए भक्तिकाल की उपयोगिता अनुपयोगिता का प्रश्न मुस्लिम चुनौती का सामना करने से सीधे सीधे जुड़ गया था। इस दृष्टिकोण के कारण भट्ट जी ने मध्यकाल के भक्त कवियों का काफी कठोरता से विरोध किया और उन्हें हिन्दुओं को कमजोर करने का जिम्मेदार भी ठहराया। भक्त कवियों की कविताओं के आधार पर उनके मूल्यांकन के बजाय उनके राजनीतिक सन्दर्भों के आधार पर मूल्यांकन का तरीका अपनाया गया। भट्ट जी ने मीराबाई व सूरदास जैसे महान कवियों पर हिन्दू जाति के पौरुष पराक्रम को कमजोर करने का आरोप मढ़ दिया। उनके मुताबिक समूचा भक्तिकाल मुस्लिम चुनौती के समक्ष हिन्दुओं में मुल्की जोश जगाने में नाकाम रहा। भक्त कवियों के गाये भजनों ने हिन्दुओं के पौरुष और बल को खत्म कर दिया।
 
* '''[[रामचन्द्र शुक्ल]]''' जी ने भक्ति को पराजित, असफल एवं निराश मनोवृत्ति की देन माना था। अनेक अन्य विद्वानों ने इस मत का समर्थन किया जैसे, [[बाबू गुलाब राय]] आदि। डॉ॰ [[राम कुमार वर्मा]] का मत भी यही है -: ''मुसलमानों के बढ़ते हुए आतंक ने हिंदुओं के हृदय में भय की भावना उत्पन्न कर दी थी इस असहायावस्था में उनके पास ईश्वर से प्रार्थना करने के अतिरिक्त अन्य कोई साधन नहीं था।''
 
* '''[[हजारी प्रसाद द्विवेदी|आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी]]''' ने सर्वप्रथम इस मत का खंडन किया तथा प्राचीनकाल से इस भक्ति प्रवाह का सम्बन्ध स्थापित करते हुए अपने मत को स्पष्टत: प्रतिपादित किया। उन्होंने लिखा - "यह बात अत्यन्त उपहासास्पद है कि जब मुसलमान लोग उत्तर भारत के [[मन्दिर]] तोड़ रहे थे तो उसी समय अपेक्षाकृत निरापद दक्षिण में भक्त लोगों ने भगवान की शरणागति की प्रार्थना की। मुसलमानों के अत्याचार से यदि भक्ति की धारा को उमड़ना था तो पहले उसे [[सिन्ध]] में, फिर उसे उत्तरभारत में, प्रकट होना चाहिए था, पर हुई वह दक्षिण में।"
 
Line 41 ⟶ 39:
 
* [[नारद]]
* [[आलवार सन्त|अलवर]] (लगभग २री शताब्दी से ८वीं शताब्दी तक; दक्षिण भारत में)
* [[नयनार]] (लगभग ५वीं शताब्दी से १०वी शताब्दी तक; दक्षिण भारत में)
* [[आदि शंकराचार्य]] (788 ई से 820 ई)
* [[रामानुज]] (1017 - 1137)
 
* [[बासव]] (१२वीं शती)
* [[माध्वाचार्य]] (1238 - 1317)
 
* [[नामदेव]] (1270 - 1309 ; महाराष्ट्र)
 
* [[एकनाथ]] - [[गीता]] पर भाष्य लिखा ; [[विठोबा]] के भक्त
 
* [[सन्त ज्ञानेश्वर]] (1275 - 1296 ; महाराष्ट्र)
* [[जयदेव]] (12वीं शताब्दी)
* [[निम्बकाचार्य]] (13वीं शताब्दी)
 
* [[रामानन्द]] (15वीं शती)
* [[कबीरदास]] (1440 - 1510)
 
* [[दादू दयाल]] (1544-1603 ; कबीर के शिष्य थे)
 
* [[गुरु नानक]] (1469 - 1538)
 
* [[पीपा]] (जन्म 1425)
 
* [[पुरन्दर]] (15वीं शती; कर्नाटक)
* [[तुलसीदास]] (1532 - 1623)
* [[चैतन्य महाप्रभु]] (1468 - 1533 ; [[बंगाल]] में)
 
* [[शंकरदेव]] (1499 - 1569 ; [[असम]] में)
* [[वल्लभाचार्य]] (1479 - 1531)
 
* [[सूरदास]] (1483 - 1563 ; बल्लभाचार्य के शिष्य थे)
 
* [[मीराबाई]] (1498 - 1563 ; [[राजस्थान]] में ; कृष्ण भक्ति)
 
* [[हरिदास]] (1478 - 1573 ; महान संगीतकार जिहोने भगवान विष्णु के गुण गाये)
 
* [[तुकाराम]] ([[शिवाजी]] से समकालीन ; विठल के भक्त)
 
* [[समर्थ रामदास]] (शिवाजी के गुरू ; [[दासबोध]] के रचयिता)
 
* [[त्यागराज]] (मृत्यु 1847)
* [[रामकृष्ण परमहंस]] (1836 - 1886)
 
* [[भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद]] (1896 - 1977)
 
== परिचय ==
स्वामी माधवाचार्य (संवत्‌ 1254-1333) ने '[[ब्राह्म सम्प्रदाय]]' नाम से [[द्वैतवाद|द्वैतवादी]] वैष्णव सम्प्रदाय चलाया जिसकी ओर लोगों का झुकाव हुआ। इसके साथ ही [[द्वैताद्वैतवाद]] (सनकादि सम्प्रदाय) के संस्थापक [[निम्बार्काचार्य]] ने [[विष्णु]] के दूसरे अवतार कृष्ण की प्रतिष्ठा विष्णु के स्थान पर की तथा लक्ष्मी के स्थान पर राधा को रख कर देश के पूर्व भाग में प्रचलित कृष्ण-राधा ([[जयदेव]], [[विद्यापति]]) की प्रेम कथाओं को नवीन रूप एवं उत्साह प्रदान किया। [[वल्लभाचार्य]] जी ने भी कृष्ण भक्ति के प्रसार का कार्य किया। जगत्‌प्रसिद्ध [[सूरदास]] भी इस सम्प्रदाय की प्रसिद्धि के मुख्य कारण कहे जा सकते हैं। सूरदास ने वल्लभाचार्य जी से दीक्षा लेकर कृष्ण की प्रेमलीलाओं एवं बाल क्रीड़ाओं को भक्ति के रंग में रंग कर प्रस्तुत किया। माधुर्यभाव की इन लीलाओं ने जनता को बहुत रसमग्न किया।
 
इस तरह दो मुख्य सम्प्रदाय सगुण भक्ति के अन्तर्गत अपने पूरे उत्कर्ष पर इस काल में विद्यमान थे - रामभक्ति शाखा; कृष्णभक्ति शाखा।