"विद्युत उत्पादन": अवतरणों में अंतर

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[[उर्जा]] के अन्य स्रोतों से [[विद्युत शक्ति]] का निर्माण '''विद्युत उत्पादन''' कहलाता है। व्यावहारिक रूप में विद्युत् शक्ति का उत्पादन, [[विद्युत जनित्र|विद्युत् जनित्रों]] (generators) द्वारा किया जाता है। विद्युत उत्पादन के मूलभूत सिद्धान्त की खोज अंग्रेज वैज्ञानिक [[माइकेल फैराडे]] ने १९२० के दशक के दौरान एवं १९३० के दशक के आरम्भिक काल में किया था। तार की एक कुण्डली को किसी चुम्बकीय क्षेत्र में घुमाकर विद्युत उत्पन्न करने की माइकेल फैराडे की मूल विधि आज भी उसी रूप में प्रयुक्त होती है।
 
विद्युत का उत्पादन जहाँ किया जाता है उसे [[बिजलीघर]] कहते हैं। बिजलीघरों में विद्युत-यांत्रिक जनित्रों के द्वारा बिजली पैदा की जाती है जिसे किसी किसी अन्य युक्ति से घुमाया जाता है, इसे मुख्यघूर्णक या प्रधान चालक (प्राइम मूवर) कहते हैं। प्राइम मूवर के लिये जल टर्बाइन, वाष्प टर्बाइन या गैस टर्बाइन हो सकती है। विद्युत शक्ति, जल से, कोयले आदि की उष्मा से, नाभिकीय अभिक्रियाओं से, पवन शक्ति से एवं अन्य कई विधियों से पैदा की जाती है।
 
== परिचय ==
विद्युत् शक्ति के लिए, वस्तुत:, तीन संघटक आवश्यक हैं :
 
(1) चालक, जो व्यावहारिक रूप में एक निर्धारित व्यवस्था के अनुसार योजित संवाहक समूह होता है,
 
(2) चुंबकीय क्षेत्र, व्यावहारिक रूप में एक कुंडली में विद्युत् धारा प्रवाहित करके प्राप्त किया जाता है और
 
(3) चालक समूह को चुंबकीय क्षेत्र में घुमाने की व्यवस्था, जिसका तात्पर्य है यांत्रिक ऊर्जा का प्रावधान।
 
वस्तुत:, यही यांत्रिक ऊर्जा, विद्युत् ऊर्जा के रूप में परिवर्तित होती है और ऊर्जा अविनाशिता नियम का प्रतिपादन करती है।
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== विद्युतजनित्र ==
[[चित्र:Alternador de fábrica textil.jpg|300px|thumb|right|एक वस्त्रनिर्माण कारखाने में लगी '''अल्टरनेटर''']]
धारा के प्ररूप के अनुसार विद्युत् जनित्र, मुख्यत:, दो प्ररूप के होते हैं : दिष्ट धारा जनित्र (D.C. generator) और प्रत्यावर्ती धारा जनित्र (A.C. generator)। यद्यपि मूलत: दोनों के मूल सिद्धांत एक ही होते हैं, परंतु बनावट के दृष्टिकोण से उनमें काफी अंतर होता है। दिष्ट धारा जनित्र में चुंबकीय क्षेत्र अचल क्षेत्र कुंडलियों द्वारा उत्पन्न किया जाता है और आर्मेचर पर आरोपित चालक तंत्र घूर्णन करता है। इस प्रकार, चुंबकीय अभिवाह को काटने से उसमें एक वोल्टता जनित होती है। वस्तुत:, वोल्टता के जनन के लिए यह आवश्यक नहीं कि चालक में ही गति हो। यह भी हो सकता है कि चालकतंत्र स्थिर हो और चुंबकीय अभिवा उनको काटता हुआ जाएगा इसका तात्पर्य यह है कि चुंबकीय क्षेत्र गतिशील हो और चालक अपने स्थान पर ही रहे। किसी भी प्रकार से चालक तथा चुंबकीय क्षेत्र में आपेक्षिक गति होना आवश्यक है, जिससे चालक में वोल्टता जनित हो सके। वस्तुत:, दोनों विधियाँ ही व्यावहारिक है और प्रत्यावर्ती धरा जनित्रों में, जिन्हें प्रत्यावर्तित्र (Alternator) भी कहते हैं, चालक समूह अचल होता है और उसे स्टैटर (Stator) कहते हैं। चुंबकीय क्षेत्र उत्पन्न करनेवाले ध्रुव और कुंडली घूर्णी भाग होते हैं और उन्हें रोटर (Rotor) कहते हैं। आर्मेचर को अचल रखने का मुख्य लाभ यह है कि इस प्रकार सापेक्षतया उच्चतर वोल्टता जनित की जा सकती है। उच्च वोल्टता जनन के लिए या तो चालक की संख्या बढ़ानी पड़ती है, अथवा घूर्णनवेग, या दोनों ही। चालक की संख्या बढ़ाने से आर्मेचर का आकार बहुत बढ़ जाता है और उसके घूर्णी भाग होने के कारण अपकेंद्री बल इतना बढ़ जाएगा कि संरचना के दृष्टिकोण से चालकों को अपने स्थानों पर स्थिर रखना भी एक समस्या हो जाएगी। बड़े आकार के घूर्णी भाग बनावट के दृष्टिकोण से उपयुक्त नहीं होते और न उनका वेग ही बहुत अधिक बढ़ाया जा सकता है। अत:, घूर्णी आर्मेचर वाले जनित्रों में उच्च वोल्टता जनित करना परिसीमित हो जाता है, परंतु यदि अचल हो, तो उसका आकार भी बड़ा बनाया जा सकता है और अपकेंद्री बल का भी प्रश्न नहीनहीं उठता। साथ ही जनित धारा को स्थिर संस्पर्शकों (contacts) से ले जाना होता है, जो बहुत सुगम हो जाता है। घूर्णी आर्मेचरों में जनित धारा को कूर्चो द्वारा ही बाहरी परिपथ में ले जाया जा सकता है। क्षेत्र के रोटर होने में समस्या इतनी जटिल नहीं होती, क्योंकि उसमें प्रवाहित होनेवाली उत्तेजक धारा (exciting current), सापेक्षतया, बहुत कम होती है। उत्तेजन केवल दिष्ट धारा से ही संभव है और प्रत्यावर्ती धारा जनित्रों में क्षेत्र उत्तेजन के लिए दिष्ट धारा संभारक का होना आवश्यक है, जो सामान्यत: इसी शैफ़्ट (shaft) पर आरोपित एक छोटे से दिष्ट धारा जनित्र द्वारा, जिसे उत्तेजक (exciter) कहते हैं, प्रावधान किया जाता है।
 
आर्मेचर चालकों में चुंबकीय क्षेत्र के सापेक्ष, आपेक्षिक गति के कारण जनित होनेवाली वोल्टता, वस्तुत: प्रत्यावर्ती प्ररूप की होती है। किसी भी क्षण पर इसका परिमाण चुंबकीय क्षेत्र के चालकों की सापेक्ष स्थिति पर निर्भर करता है। दिष्ट धारा जनित्र के आर्मेचर में भी इसी प्रकार की वोल्टता प्रेरित होती है, पर एक दिक्परिवर्तक (commutator) द्वारा उसे बाहरी परिपथ में अदिष्ट धारा के रूप में प्राप्त किया जाता है। दिक् परिवर्तक आर्मेचर के साथ उसी ईषा (shaft), पर आरोपित होता है और आर्मेचर चालक निश्चित व्यवस्था के अनुसार उसके ताम्र खंडों (copper segments) से योजित होते हैं। धारा के दिक्परिवर्तक से बाहरी परिपथ में ले जाने के लिए बुरुशों (brushes) का प्रावधान होता है, जो साधारणतया कार्बन के होते हैं और बुरुश धारक (brush holder) में लगे होते हैं।